कोई भूखा ना सोये ये सुनिश्चित करें सरकारें

कभी-कभी लगता है कि आज के भारतीय मध्यम-वर्ग ने अब वंचितों और आदिवासियों की तरफ से पूरी तरह से मुँह मोड़ लिया है। राजनीतिज्ञों की हम यानि मध्यम वर्ग कड़ी आलोचना करता रहता है (और उसमें कोई बुराई नहीं है) लेकिन राजनीतिज्ञ और या फिर कुछ गिने-चुने बुद्जीवी ही ऐसी जमात हैं जो कभी-कभार दलित-आदिवासियों की कोई चिंता करते हैं।

थोड़ा श्रेय मीडिया को भी देना होगा कि अपने तमाम ‘एलिटिस्ट’ (अभिजात्य) तेवर के बावजूद कभी कभी मुख्यधारा के इंगलिश अखबार भी ऐसी खबरें प्रकाशित करते हैं जो मध्यम-वर्ग की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए। ऐसा हालांकि कुछ होता नहीं और हम हमेशा की तरह उदासीन बने रहते हैं। चार दशक पहले जब ये स्तंभकार कॉलेज का विद्यार्थी था तो किसी भी नवयुवक के लिए कम से कम सिद्धान्त के तौर पर गरीबों और वंचितों का तरफदार होना अनिवार्य होता था। फिर चाहे आप समाजवादी-गांधीवादी विचारधारा के हों या फिर उन दिनों ज़्यादा फैशनेबल साम्यवादी विचारधारा के।

आज हम आत्म-मुग्धतता के दौर में जी रहे हैं। हमारे नेता अच्छे भाषण देकर अपने-आप से खूब प्रसन्न नज़र आते हैं और सोचते हैं कि मैदान मार लिया। शायद सही ही सोचते हैं। आजकल के दौर में अच्छा भाषण काफी दूर तक ले जा सकता है। पहले ऐसा ना था। ऐसा होता तो अटल बिहारी वाजपेयी इन्दिरा जी को तो अपने सामने ना ही टिकने देते बल्कि शायद उनसे भी पहले नेहरू जी तक को भी अपदस्थ कर चुके होते।

भाजपा में मोदी जी का वर्चस्व और अन्य नेताओं का नंबर काटकर बिना किसी आंतरिक विवाद के शीर्ष तक पहुँचना अन्य कारणों के अलावा इसलिए भी संभव हुआ कि उनकी वक्तृत्व-कला पर उनकी पार्टी को सबसे ज़्यादा भरोसा था। अगर सिर्फ सफल मुख्यमंत्रितत्व काल की बात होती तो उस समय उनकी पार्टी के अन्य उतने ही या एक मायने में उनसे भी ज़्यादा सफल मुख्यमंत्री थे। और अगर पार्टी में वरिष्ठता की बात होती तो वह कई नेताओं के पीछे होते।

लेख में हमारा भटकाव कुछ ज़्यादा ही हो गया। बात हो रही थी गरीबों और वंचितों के प्रति मध्यम-वर्ग की उदासीनता की। आज के टाइम्स ऑफ इंडिया में उनकी संवाददाता अम्बिका पंडित ने एक सर्वे के हवाले से ये खबर प्रकाशित की है कि सही कागजों के ना होने से झारखंड के लातेहार-पलामू इलाके में रहने वाले परहाइया समुदाय के आदिवासी भूखे सोने को मजबूर हैं। ये आदिवासी विशेष रूप से कमजोर या संवेदनशील समुदाय की श्रेणी में आते हैं।

सर्वे में और भी कई बातें सामने आईं हैं जैसे बहुत सारे लोगों को आवश्यक कागजी कार्यवाही के अभाव में राशन ना मिलना, वृद्धवस्था पेंशन ना मिलना और अन्य ऐसे अधिकारों से वंचित रहना जो कानूनी तौर पर उन्हें मिलने चाहिए। इनमें से एक मामले का रिपोर्ट में ज़िक्र किया गया है कि इलाके के सलाइया गाँव में सुनीता देवी के बच्चे को विद्यालय में प्रवेश सिर्फ इस कारण नहीं मिला कि उसका आधार कार्ड उपलब्ध नहीं था।

दरअसल हुआ ये है कि एक बार बहुत ज़ोर-शोर से आधार और राशन कार्ड लिंक करने का इतना हल्ला हुआ कि अब नए नियमों के मुताबिक और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक आधार लिंक होना आवश्यक ना होने के बावजूद अब इस बात को कोई नहीं सुन रहा और दूर-दराज़ के इलाकों में गरीब आदिवासियों को उनके हिस्से का राशन लेने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ रहा है। जैसा कि हमने ऊपर भी लिखा कि मीडिया को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि बीच-बीच में खबरें उजागर होती रहीं हैं कि आधार के ना होने के कारण या कभी कभी तो ऐसी खबरें कि नेट-वर्क कनेक्टिविटी ना होने के कारण ग्रामीण इलाकों में लोग राशन ही नहीं ले पा रहे।

हमें याद है कि वेब न्यूज़ पोर्टल स्क्रोल (scroll) पर लगातार ऐसी खबरें आती रही हैं। लेकिन उदासीनता का ये आलम है कि बरसों से समस्या है, बीच बीच में उजागर भी होती रही है लेकिन समाधान की तरफ ना राज्य सरकारें बढ़तीं लग रही हैं और ना केंद्र की तरफ से ये सुनिश्चित किया जा रहा है कि कम से कम एक जागरूकता अभियान ही चला दिया जाये कि आपके राशन के लिए, बच्चों के स्कूल में एड्मिशन के लिए आदि आधार ज़रूरी नहीं है। दसियों ऐसे उपाय हो सकते हैं जिनसे कम से कम ये तो सुनिश्चित किया जा सकता है कि कोई परिवार ऐसा ना रहे जिसे उसके हिस्से का राशन नहीं मिल रहा हो।

हो उसका उल्टा रहा है। ये याद दिलाये जाने की बजाय आप अपना राशन बिना आधार के भी ले सकते हैं, ऐसे आंकड़ों के आधार पर जिनकी प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह था, सरकार ये दावा कर रही है कि जाली राशन कार्ड खतम करके हज़ारों करोड़ की बचत कर ली गई है। जाली राशन कार्ड खतम ना हों, ये कोई नहीं कह रहा लेकिन जो गरीब बिना किसी घर के हैं, जिन का कोई स्थायी पता नहीं हैं और इस कारण उनका आधार कार्ड नहीं बनाया गया है, उन्हें अपराधी जैसा तो महसूस मत कराये ये सरकार और ये समाज!

ग्राम सभा से लेकर ज़िलाधीशों, राज्य सरकारों और केंद्र सरकार तक सबको ये अपनी ज़िम्मेवारी माननी चाहिए कि कोई देश में प्रशासनिक तंत्र की उदासीनता और काहिली के कारण कोई भूखा ना सोये।

…..विद्या भूषण अरोरा

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