तीन विधान-सभाई चुनावों में हारने के बाद भाजपा और उसकी राजग सरकार जल्दी में नज़र आ रही है। ऐसा लग रहा है कि खोई हुई ज़मीन वापिस पाने के भारतीय जनता पार्टी अपनी सरकार से बहुत कुछ करवाना चाह रही है।
हाल ही में लागू आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण की योजना से भाजपा शायद सवर्ण जातियों के वोट-बैंक का ध्रुवीकरण करना चाह रही है। आरक्षण के अलावा हाल ही में जीएसटी दरों में काफी छूट दी है ताकि जीएसटी के कारण उफनते गुस्से पर कुछ छींटे डाले जा सकें।
ऐसे संकेत भी आ रहे हैं कि भाजपा में ये सोच है कि अभी हमारे तूणीर में कई अस्त्र बाकी हैं जो एक-एक करके लोकसभा चुनावों को लड़ने के लिए छोड़े जा सकते हैं।
इनमें से एक है ‘फार्म रिलीफ पैकेज’ जिसकी चर्चा पिछले दिनों काफी हुई और जिसका संकेत अरुण जेटली ने भी एक मीडिया इंटरव्यू में हाल ही में दिया। मिंट के अनुसार इस पैकेज में किसानों को तीन लाख रुपये तक का बिना ब्याज का लोन दिया जा सकता है। इसके अलावा भी सीमांत और मध्यम दर्जे के किसानों को राहत पहुँचाने के लिए इस पैकेज में कई उपाय होंगे जिनसे किसानों की आय बढ़ने की उम्मीद होगी।
किसानों के गुस्से को तीन विधानसभाओं के चुनावों में भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण माना गया। इसलिए भाजपा नेतृत्व पर उसके निचले स्तर के नेताओं का दबाव है कि किसानों के लिए सरकार जल्दी से जल्दी कुछ ऐसा किया जाये कि मोदी सरकार को किसान-विरोधी छवि से चुनावों से पहले कुछ तो हद तक तो मुक्ति मिले।
लेकिन प्रश्न ये है कि क्या सरकार के पास चुनाव से पहले इतना समय है कि वो ऐसे लोक-लुभावन उपायों को लागू कर सके और उनका असर ज़मीन पर दिख सके? यह मुश्किल लग रहा है। संभावना है कि मार्च के शुरू में ही चुनाव आयोग को लोकसभा चुनावों की अधिसूचना जारी करनी होगी जिसके उपरांत ‘मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट’ या चुनावी आचार संहिता लागू हो जाएगी।
ऐसे में ज़्यादा संभावना ये लग रही है कि ये सब पैकेज महज चुनावी नारों के तौर पर देखें जाएँगे और इन्हें भी ‘जुमला’ समझे जाने की बदनामी झेलनी पड़ सकती है।
हो सकता है कि भाजपा में भी इस पर आंतरिक मंथन चल रहा हो कि आखिर पिछले एक-डेढ़ वर्ष में ऐसा क्या हुआ कि मोदी जी का पुराना जादू टूटता जा रहा है और ऐसा लगने लगा है कि 2014 के मुक़ाबले भाजपा की लोकसभा में सीटें काफी कम हो सकती हैं?
उपरोक्त प्रश्न पर विस्तृत विश्लेषण एक अलग आलेख का विषय हो सकता है लेकिन जब यहाँ चर्चा निकली है तो इतना तो कहना होगा कि मोदी सरकार का ग्राफ नीचे जाने का कारण केवल किसानों का गुस्सा मात्र नहीं है। 2014 के चुनावों में लगभग ना समझ आने वाले कारणों से भाजपा को पूरे उत्तर भारत में दलितों का व्यापक समर्थन मिला था। आज की स्थिति ये है कि दलितों का भाजपा से काफी हद तक मोह-भंग हो चुका है। भाजपा को 2014 में समर्थन क्यूँ मिला था, चाहे ये समझ ना आता हो लेकिन मोह-भंग क्यूँ हुआ, ये देखना मुश्किल नहीं लेकिन इसकी चर्चा फिर कभी।
मध्यम-वर्ग, जिसमें भाजपा समर्थक हमेशा से पर्याप्त संख्या में रहे हैं, का एक हिस्सा भी भाजपा से खासा नाराज़ लग रहा है। उनकी नाराज़गी सिर्फ तीन विधान सभा चुनावों में नहीं बल्कि उससे पहले हुए गुजरात विधान सभा चुनावों में (जहां भाजपा जैसे-तैसे सरकार बना सकी) और उत्तर प्रदेश के दो उपचुनावों में भी परिलक्षित हुई थी।
अब देखना ये है कि वर्तमान परिस्थिति में भाजपा कैसे विपक्ष के महागठबंधन का मुक़ाबला करती है। फिलहाल तो भाजपा के लिए महागठबंधन से भी ज़्यादा गंभीर मामला उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन का है। वैसे कुछ प्रेक्षक याद दिला रहे हैं कि उत्तर-प्रदेश में आधी के लगभग लोकसभा सीटें ऐसी थीं जहां सपा और बसपा दोनों के वोट मिलाकर भी भाजपा के वोटों से कम थे। लेकिन फिर 2014 और 2019 के बीच बहुत कुछ बदल गया है।
ऐसी परिस्थिति में लोक-लुभावन पैकेज लाने से भाजपा को चुनावों में कुछ लाभ होगा, ऐसा लगता नहीं है। फिर जैसा कि ऊपर कहा गया कि ना तो इन घोषणाओं को लागू करने का पर्याप्त समय सरकार के पास है और ना ही ऐसे कोई वित्तीय संसाधन हैं जिन्हें बिना गंभीर आलोचना झेले इस्तेमाल किया जा सके।
ऐसी घोषणाओं के लिए सबसे उपयुक्त समय सरकार के पास फरवरी में शुरू होने वाले संसद सत्र में ही होगा जब सरकार को ‘इंटेरिम बजट’ लाना होगा। जहां तक वित्तीय संसाधनों की बात है तो सरकार को रिजर्व बैंक का मुँह ताकना होगा कि वह अपने सुरक्षित कोश से कुछ पैसा निकाल कर देने को राज़ी हो जाये।
पूरे परिदृश्य में ऐसा लग रहा है कि यदि ऐसी कोई घोषणाएँ होती हैं तो ना तो किसानों या आम जनता तक कोई खास लाभ पहुँचने की संभावना है और ना भाजपा की झोली में इन उपायों से वोट बढ़ने की कोई सूरत नज़र आती है। होगा तो सिर्फ इतना कि सरकारी योजनाओं की जानकारी दूर-दराज़ तक पहुँचाने के नाम पर केंद्र के पास सरकारी पैसे से धुआंधार विज्ञापन जारी करने का माकूल बहाना मिल जाएगा। एक चीज़ और नज़र आ रही है कि आने वाली सरकार के लिए भी ये गड्ढे खोदने जैसी बात होगी जिससे ये घोषणाएँ ना लागू करते बनेंगी और ना समाप्त करते! अगर दुबारा भी मोदी सरकार बनती है तो उसे भी ये दुविधा झेलनी होगी।
……विद्या भूषण अरोरा