आखिरी पन्ना
आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के मार्च 2020 अंक के लिए लिखा गया।
कभी-कभी ऐसा होता है कि हम अपनी चिंताएँ कहते हैं, बुरी घटनाओं की आशंका हमें होती है और फिर साथ ही हम मनाते हैं कि हमारे ये सब अनुमान और चिंताएँ झूठी साबित हों। अक्सर होता भी है कि हमारी चिंताएँ- आशंकाएं झूठी साबित होती हैं लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। आप और हम सोचते थे कि देश का सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने की तमाम हरकतें की जा रही हैं लेकिन फिर भी कुछ ना कुछ चमत्कार ऐसा होगा कि देश में दंगे तो नहीं होंगे। काश कि हमारी और आपकी दुआएं और प्रार्थनाएँ ऊपर वाला सुन लेता। लंबे समय से जो तनातनी का माहौल बनाया जा रहा था, उसकी परिणति दंगों में हो ही गई।
और दंगे हुए भी तो कहाँ – देश की राजधानी दिल्ली में! आजकल जब प्रशासन और पुलिस खूब साधन-सम्पन्न हैं, तो ऐसे में इस स्तर के दंगे होना बहुत बड़ी बात है और ये ना केवल दिल्ली पुलिस की विफलता को दिखा रहे है बल्कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय की ज़बरदस्त असफलता की ओर इंगित करते हैं क्योंकि दिल्ली पुलिस पूरी तरह केंद्र सरकार के अधीन हैं।
पुलिस और प्रशासन के निकम्मेपन से कम नहीं है दिल्ली के राजनीतिक दलों की महा नालायकी और उनमें भी आम आदमी पार्टी का व्यवहार तो इतना निराशाजनक रहा कि लोगों को विश्वास ही नहीं हो रहा कि अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और आतिशी सिंह जैसे प्रगतिशील लोगों की पार्टी इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा सकी कि कम से कम दंगा-ग्रस्त क्षेत्रों में अपने विधायकों को ही भेज देती। कपिल मिश्रा और प्रवेश वर्मा जैसे भाजपा के कुछ लोकल नेता तो अपने विवादित बयानों की वजह से काफी सुर्खियों मे रहे। दिल्ली हाई कोर्ट के एक बेंच को तो लगा था कि इस तरह के भड़काऊ ब्यान देने वालों के खिलाफ दिल्ली पुलिस को एफ़आईआर दर्ज करनी चाहिए लेकिन अगले ही दिन जब ये बेंच बदल गया सरकारी वकील ने नए बेंच को दलील दी कि अभी एफ़आईआर दर्ज करने का माहौल ठीक नहीं है और इन दोनों माननीय न्यायाधीशों को भी ये बात जंच गई और उन्होंने चार हफ्ते पुलिस को दिये। तब पुलिस बताएगी कि एफ़आईआर दर्ज करना कैसा रहेगा।
बहरहाल, अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी पर एक बार फिर वापिस आयें तो कहना होगा कि जब समस्त राजनीतिक दलों से कोई उम्मीद नहीं थी तो लगता था कि आम आदमी पार्टी के नेता और विधायक कम से कम जनता के बीच उतरेंगे। दंगों के तीसरे दिन जब अरविंद केजरीवाल राजघाट पर जाकर बैठ गए तो वो एक उबाऊ नाटक जैसा लग रहा था। दिल्ली के मुख्यमंत्री ने पहली बार ऐसा ड्रामा किया हो, ये बात तो नहीं लेकिन इस बार का ये प्रतीकात्मक ड्रामा ज़्यादा ही घिनौना लग रहा था क्योंकि राजघाट का नाम जुड़ने से गांधी की याद आना स्वाभाविक है और गांधी ने ऐसी स्थिति में क्या किया था, ये भी याद आएगा ही। 15 अगस्त 1947 को स्वतन्त्रता मिलने के उपरांत जब दिल्ली में ब्रिटिश हुकूमत से सत्ता हस्तांतरण का काम हो रहा था तो गांधी उस समय दंगों की आग में झुलस रहे नोआखली ज़िले में चले गए थे। उनकी जान को तो खतरा था लेकिन उन्हें कहाँ जान की परवाह थी।
केजरीवाल अपनी और अपने विधायकों की जान खतरे में नहीं भी डालना चाहते थे तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए था ना कि आम पार्टी के बड़े नेता और विधायक सुरक्षा लेकर दंगा-ग्रस्त इलाकों में जाते और लोगों के साथ खड़े दिखते, उन्हें आश्वस्त करते क्योंकि उनके जाने से पुलिस पर भी दबाव बढ़ता कि वह दंगों को फैलने से रोके। इस तरह जहां पुलिस दिल्ली के दंगों के दौरान नकारा साबित हुई वहीं एक राजनीतिक दल के तौर पर अपनी नैतिक और सामाजिक ज़िम्मेवारी निभाने में आम आदमी पार्टी पूरी तरह फेल हो गई है। हम इस मामले में दिल्ली के अन्य राजनीतिक दलों का नाम नहीं ले रहे क्योंकि कांग्रेस दिल्ली में लगभग संगठन विहीन हो चुकी है और भाजपा के स्थानीय नेता तो जो कर रहे थे, उसका ज़िक्र तो दिल्ली हाई कोर्ट में हो ही चुका है। हालांकि अब ये लिखते समय महसूस हो रहा है कि कांग्रेस क्या, हर छोटे मोटे राजनीतिक संगठन को आगे बढ़ कर, चाहे थोड़ा जोखिम उठाकर भी अपनी जो भी सामर्थ्य थी, उसके हिसाब से ही सही, कुछ सक्रियता तो दिखानी चाहिए थी। आखिर यही तो मौके होते हैं जब आप राजनैतिक नेतृत्व क्या होता है, यह सकारात्मक ढंग से दिखा सकते हैं।
इन दंगों से जान-माल का तो जो नुकसान हुआ वो तो सबकी नज़रों में है लेकिन किसी भी सांप्रदायिक दंगे के दूरगामी परिणाम भी होते हैं जिनकी चर्चा मौका मिला तो आगे कभी करेंगे।