शिक्षा: मुदित प्रसंग -1

राजेंद्र भट्ट

शिक्षा पर पिछले लेखों ( यहाँ, यहाँ और  यहाँ, ) में मैंने निवेदन किया था कि इस   व्यापक विषय है पर समग्रता से लिख पाने का दावा (मेरे जैसे सीमित क्षमता के व्यक्ति के लिए) कुछ ऐसा ही है जैसे ऊन के हजारों बिखरे, उलझे धागों को सुलटा कर बिना गांठ का एक-सार गोला बना पाना। इसीलिए  मैंने यह रास्ता चुना कि मुझे जहां जो धागा उलझा, बिखरा दिखा, उसकी गांठ खोलने का प्रयास करूँ। प्रयास छोटा है – राम जी के लिए समुद्र पर पुल बनाने में गिलहरी के  प्रयास जैसा –  छोटा पर नेक।

मैंने उक्त लेखों में, प्राइमरी शिक्षा के क्षेत्र में कुछ धागे सुलझाने का प्रयास किया।

अब इस कड़ी में, मुदित की कहानी के जरिए, अपना प्रयास आगे बढ़ा रहा हूँ। मुदित, जो बच्चे से अब किशोर हो गया है। और उसके साथ ही मेरे सवाल भी किशोर अवस्था, यानी प्राइमरी से सेकेन्डरी शिक्षा  को छू  रहे हैं।

मैं न शिक्षाविद हूँ, न मनोविज्ञानी, न जीव-विज्ञानी, न सामाजिक-राजनीतिक विचारक -लेकिन मुदित और मैं, पिछले कुछ सालों में  जो सोचते रहे हैं, जिन हालात से गुजरे हैं, वो शायद इन विषयों से दो-चार होते हैं।

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अमीर हो रहे मध्यवर्ग की हमारी ‘गेटेड कॉलोनी’ है। वैसी ही सोच-समझ, सब जानने और खूब कमाने का आत्मविश्वास, दंभ और कॉस्मेटिक देश-जाति-धर्म-भक्ति – जैसी ऐसी कॉलोनियों में होती है।

मुदित वल्द सेवाराम। दोनों का जैसा नाम, वैसा काम। सेवाराम सपरिवार कपड़े प्रेस करता है, कारें धोता है। खुशमिजाज़ है,  डांठने पर भी ‘हैं-हैं’ करता है। जब मैं इस कॉलोनी में  आया, मुदित 9-10 साल का था – प्रेस किए कपड़े हर घर पंहुचाता, परिवार की रोजी-रोटी मेँ  हाथ बँटाता।

लेकिन मुझे आकर्षित किया मुदित के मुदित आत्मविश्वास ने। प्रेस के कपड़े देते हुए इस प्यारे-से बच्चे ने निर्दोष इठलाहट के साथ कहा, “अंकल, मुझे टॉफी खिलाइए। मैं क्लास मेँ फ़र्स्ट आया हूँ।“ उसमें सेवक-वर्ग का कोई दैन्य, कोई पलायन नहीं था। वह भाग्यवान बच्चों की तरह, सम्मान से टॉफी का प्रोत्साहन पाने का अपना अधिकार मांग रहा था। धीरे-धीरे वह हमारा प्रिय हो गया। उसे पढ़ने, नई बातें सीखने-समझने का बड़ा उत्साह था – तीव्र बुद्धि और मौलिक समझ थी।

       मैं अपनी मध्यवर्गीय उदारता की सीमा में उसे पढ़ाता, कुछ पैन-पेंसिल, पुरानी किताबें, टॉफी-बिस्कुट दे देता। (यह  ‘चैरिटी’ मेरे लिए  न तो महंगी थी, न मेरी सामाजिक स्थिति के लिए जरा भी जोखिम भरी थी।  एक गरीब बच्चे को ‘आगे बढ़ाने’ की महानता की  खुशफहमी का सुख  बोनस में था।) इसी, कुछ सच्ची- कुछ किताबी आदर्शवादिता के जरिए   उसके परिवार को इस होनहार बच्चे की पढ़ाई पर पूरा ध्यान देने की राय देने का कर्तव्य भी पूरा कर आया था। लेकिन, उसके परिवारजनों ने, किसी फिल्मी उत्साह से मेरी ‘एक्सपर्ट’ सदाशयता का खास  स्वागत नहीं किया। बल्कि, बड़े सपाट तरीके से कहा कि मुदित को रोजी-रोटी के कामों में ज्यादा हाथ बँटाना चाहिए और क्या, मैं उसके 16-17 साल के बड़े भाई की कोई नौकरी लगा सकता हूँ?  यह प्रतिक्रिया मेरी सवर्ण, सरल-मासूम  सदिच्छा और समझ से बाहर थी।  

बहरहाल, मुदित  होनहार नौनिहाल था।  लेकिन, उसकी ‘मेरिट’ से परिवार गदगद नहीं हो पा रहा था।  वह ‘मेरिटोरियस’ था, पर धोबी था।   वह बढ़िया नाश्ता कर टाई वाली ड्रेस पहन कर चम-चम बस या कार में अंग्रेजी स्कूल में नहीं जाता था। घर आने पर महंगा ट्यूटर-कोच उसके लिए नहीं था। स्कूल जाने से पहले और आने के बाद,  काम में हाथ बँटाता था और जैसे ही वक्त मिलता, प्रेस वाली टेबल में पढ़ाई-लिखाई भी शुरू कर देता था। पर अभी तक वह ‘मेरिटोरियस’ संभावना से सम्पन्न चुलबुला ज़रूर था।  

पर अचानक जाने क्या  हो गया कि मुदित मुदित न रहा। वह मिलने-बात करने यहाँ तक कि नमस्ते करने से भी कटने लगा, खिंचा-खिंचा रहने  लगा। मेरी सौम्य-प्रेरक बातों पर भी उसकी प्रतिक्रिया सपाट होती और वह बस, प्रेस के कपड़ों के बारे में पूछताछ और उनके पैसे बताने के अलावा कोई बात नहीं करता था।

जैसा मैंने कहा – मैं न शिक्षा का विशेषज्ञ हूँ, न समाज का, न मनोविज्ञान का। मैं इस प्रसंग से जुड़े सभी पक्षों की प्रतिक्रिया आपको बता देता हूँ। मेरे, मुदित और अन्य लोगों के बीच जो संवाद हुआ; साथ ही, जो अंदर अनकहा रहा या घटा –– वह भी कहने की कोशिश की है ताकि मनोविज्ञान, समाजविज्ञान और शिक्षाशास्त्र की ‘केस स्टडी’ पूरी हो सके।

मुझे शुरू में आश्चर्य, फिर दुख भी हुआ। मेरे हिसाब से, मैं वैज्ञानिक सोच वाला लिबरल डेमोक्रेट हूँ। वंचितों को समानता की सीढ़ियाँ चढ़ाना चाहता हूँ। लेकिन सीधे संघर्ष से सुरक्षित और रोज भोगी जा रही वेदना से दूर, आराम से खड़ा मध्यवर्गीय सवर्ण भी हूँ। मुदित मेरे सोच, आदर्शों और महत्वाकांक्षा का ‘टेस्ट केस’ भी था। उसे आगे बढ़ाने के पीछे सहज उदार, मानवीय करुणा तो थी ही, उसके सफल होने पर  मेरे ‘उदार’ विचारों की जीत भी थी।  उस के ‘बड़ा आदमी’ बनने से मेरे ( बिना पसीना-बहाऊ  मेहनत और संघर्ष के जोखिम के ) महान होने की संभावना की शायद गुदगुदाहट भी थी।

मुदित का  खिंचा रूप मेरे लिए एक प्रयोग, एक जीवन-दृष्टि, एक मासूम छिपी महत्वाकांक्षा के  टूटने का विषाद भी था। प्रारम्भिक स्तब्धता के बाद, मेरी लिबरल डेमोक्रेट बनावट की कच्ची मिट्टी दरकी और नीचे दबे ‘गेटेड कॉलोनी’ वाले मध्यवर्गीय सवर्ण अंकुर बाहर निकलने लगे, जिसे मेरी छोटी-मोटी उदारता के लिए मुझे टोकते (पर मन ही मन गौरवान्वित भी होते ), मेरे परिवारजनों ने ‘औचित्य’ का खाद-पानी दिया। अब मेरी निराश व्याख्या थी – ‘ये’ लोग ऐसे ही होते हैं, ‘जो मुंह लगाता है’, उससे बदतमीजी करते हैं; और जो ‘जूते की नोक’ पर रखते हैं, उनसे ठीक रहते हैं।

मैं अब उस बच्चे के साथ बराबरी का मुक़ाबला करने लगा। ( मैं ज्यादा ताकतवर, सफल, अन्यायी, जातिवादी, सांप्रदायिक और भ्रष्ट   अफसरों, गुंडों, नेताओं से तो मुक़ाबला कर नहीं पाता था, इस बात की घुटन और ‘फ्रस्ट्रेशन’ तो थे ही।) मैंने उसकी उपेक्षा करनी शुरू की। एक-दो बार उसके बदले ‘मूड’ का मज़ाक भी उड़ाया। ( अपनी हैसियत के हिसाब से वह ऐसे ‘मूड’ बदलने का अधिकारी तो था नहीं। क्या वह ‘मनाये-पुचकारे जाने’ की उम्मीद कर रहा था, जैसे हमारे बच्चे  करते हैं?)

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अब मुदित की तरफ से – मुदित के भोगे पर अनकहे शब्दों में –

“मुझे लगता था, मैं अपनी मेहनत और ‘पॉज़िटिव’ रवैये से ‘लेवल प्लेईंग फील्ड’ तक पहुँच ही जाऊंगा। अंकल भी कहते हैं, मैं ‘मेरिटोरियस’ हूँ। माना कि मुझे प्रेस और कार-धुलाई  के काम के बाद, पढ़ने को कम वक्त मिलता है; दिल्ली की सर्दी-गर्मी-उमस  झेलते हुए, मैं एसी में बैठे फ्लैट वाले बच्चों जितना पढ़ाई पर पूरा फोकस  नहीं पर  पाता; मुझे किताबें और दूसरी ज़रूरी चीजें रुला-रुला कर मिलती हैं; मेरा अंग्रेजी नाम वाला स्कूल वास्तव में तबेले जैसा है और जिन्हें कहीं काम नहीं मिलता, वैसे अध्यापक हैं  – पर फिर भी तो मैं क्लास में फ़र्स्ट आया ना! ‘मेरिटोरियस’ हुआ ना! बहुत से अंकल-आंटी मुझसे प्यार करते हैं ना! तो जैसा अंकल ने समझाया था – मैंने तय किया –  मैं किसी पर गुस्सा नहीं करूंगा, निराश नहीं होऊंगा और  अपनी ‘पॉजिटिविटी’ और बहुत ज्यादा मेहनत की ताकत से एक दिन वो दूरी खत्म कर दूँगा, जो ‘रेस’ शुरू होते समय मेरे और फ्लैटों के बच्चों के बीच है।  

“लेकिन उस दिन पांडे अंकल  के घर का हादसा सब कुछ चकनाचूर कर गया। उनका बेटा – मेधावी मेरा हमउम्र है। मुझे अच्छा भी लगता है। वैसे वह ज्यादा मेधावी (अंग्रेजी में ‘मेरिटोरियस’) है नहीं।  मैं तो उसे गणित में मदद भी कर देता हूँ।  उसने मुझे सुबह-सुबह बुलाया। उससे एक सवाल नहीं निकल रहा था और उसे स्कूल में होम वर्क दिखाना था। मैं उसके साथ ही बैठ कर सवाल हल करने लगा।

“तभी उसकी मम्मी आईं। उन्होंने मुझे घूर कर देखा, डपट कर कहा, “नीचे बैठो।“ मुझे समझ में नहीं आया। नीचे तो फर्श था! मैं ठिठक कर खड़ा हो गया। उनके बेटे ने लगभग मिमियाते हुए कहा,”वह मुझे सवाल बता रहा है।“ उसकी मम्मी ने रूखेपन से कहा, “हाँ, हाँ, पहले नाश्ता करो।“

“नाश्ते में ब्रैड, जैम, मक्खन और काली मिर्च-नमक बुरका उबला अंडा था। साथ में दूध भी था। वह एकदम आज्ञाकारी बालक की तरह खाने लगा। मेरी वहाँ मौजूदगी को जैसे कतई उपेक्षित कर दिया गया था। मुझे गुस्सा, रोना -सब कुछ आ रहा था। ऊपर से एक अजीब सी ग्लानि – क्योंकि मेरे सपनों का सबसे अच्छा खाना – काली मिर्च बुरका अंडा ही था जो मुझे सबसे पहले मेधावी ने ही खिलाया था – तब आंटी घर पर नहीं थीं।

“मैं शायद दो मिनट वहाँ खड़ा रहा। क्यों खड़ा रहा – पता नहीं। फिर जैसे खुद को धक्का देते बाहर निकल गया। अंदर से आती आवाज ने मेरे सीने पर तीर चलाया, ”न जात- न औकात। सब को कुर्सी पर बिठा लो, सुबह-सुबह। सिर चढ़ा लो। और वो भी ढीठ हो के बैठा है।  उसी से पढ़ना है तो बंद करा दो ट्यूशन। अब ये ही चढ़ेंगे सिर पर – और दो रिज़र्वेशन इन्हें।“

“मेधावी और उनके पापा सुन रहे थे – चुप थे। जब तक मैं  सिर झुकाए अपनी प्रेस वाली टेबल पर पहुंचा, मेधावी मेरी ही प्रेस की हुई चम-चम ड्रेस पहने अपने पापा की कार में बैठ चुके थे। थोड़ी देर में, मुझे भी स्कूल जाना था। इस वाकये के बाद मेरे पास न अब अपनी ड्रेस प्रेस करने का वक्त था, न इच्छा। मैंने ड्रेस पहनी, फिर उतार दी। मुझे लगा, मेरे आँखों में जैसे अंडे वाली काली मिर्च बुरक दी गई है।  उस दिन मैं स्कूल नहीं गया। पापा ( मैं भी अपने पापा को पापा ही कहता था, बेशक वह सेवाराम थे) से डाँठ खा ली।

“उस दिन मुझे लगा कि ‘लेवल प्लेईंग फील्ड’ नहीं हो सकता – मेरे दोनों पैरों में अभाव के काटने वाले जूतों के साथ-साथ, मेरे माथे पर मेरी जात भी लिखी है। मेरे और मेरे परिवार की कुशल इसी में है कि मैं पीछे बने रहूँ। मेरे अपमान की कोई सीमा नहीं हो सकती, लेकिन मेरे सम्मान की कोई  भी ऊंचाई, किसी उदार राम के भरोसे, उनके केवट जैसी ही रहेगी। क्या किसी कलैंडर में ‘राम-दरबार’ की बजाय ‘केवट-दरबार’ का फोटो लगा होता है? तुम राजा राम नहीं हो – नायक नहीं हो। अच्छे से अच्छा होगा तो केवट बनोगे  – और बुरे बनोगे तो शंबूक बन कर मारे जाओगे।  मुझे ज्यादा नहीं उड़ना है, अब मैं अपनी औकात में ही रहूँगा, माँ-पापा का ज्यादा हाथ बटाऊंगा, साहब लोगों से दूर रहूँगा- अब और अपना मन नहीं दुखाना।“

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मुदित की तरफ से कथा पूरी हुई।

इसके बाद, मुझे मेरी ‘गेटेड कॉलोनी’ के पांडे-गुप्ता-सक्सेना ‘साहब’ मिले, सबने मुदित के सिर  चढ़ने की बात की। गुप्ता जी का आर्थिक सिद्धान्त है कि अगर उनके धंधे में कोई रोक-टोक न की जाए, तो उनके अमीर होने से देश भी अमीर हो सकता है और आखिर रोटी-टुकड़ा गरीब को भी तो मिलेगा!

बहरहाल, उन सब की राय थी कि मुदित जैसे लोगों के सिर चढ़ने के  देश-समाज के लिए आर्थिक-राजनैतिक के साथ-साथ, नैतिक-सांस्कृतिक खतरे भी हैं। अदब, मेल-मिलाप  तो अब पहले जैसे रहे नहीं। जहां तक काली मिर्च बुरके अंडे की बात है, हमें कौन सा बचपन में मिलता था?हम भी तो अपनी ‘मेरिट’ से आगे बढ़े हैं!  

मुझे अपने बचपन की याद आई। मैं भी सुदूर देहात के गरीब परिवार से था।  मैंने किशोरावस्था में एक रूमानी उपन्यास में एक संभ्रांत बुजुर्ग को काली मिर्च बुरका अंडा दिए जाने का प्रसंग पढ़ा था और उसके दो-तीन साल बाद ही इस दिव्य भोजन का पहला अनुभव हुआ था।  

हमारे स्कूल के पास पानी के ‘धारे’ (प्राकृतिक स्रोत)  थे, स्कूल में नल नहीं था। हम बच्चे जब ‘हाफ-टाइम’ में पानी पीने ‘धारे’  पर जाते थे, तो अगर वहाँ (अ-सवर्ण) नंदराम हमसे पहले पानी पीता दिख जाता था, तो हम पीछे से उसे लात मारने का खेल करते थे। वह भी ‘ही-ही’ करके कान पकड़ लेता।

मतलब हमें अंडा नहीं मिलता था, अभाव थे। पर ‘धारे’ का पानी हम धड़ल्ले से पी सकते थे। नंदराम और मुदित के लिए अभाव और अपमान दोनों ही थे। नंदराम से सेवाराम तक – राम के  ये दोनों  बंदे अभाव-अपमान खुशी से झेल जाते थे – पर मुदित की पीढ़ी को इससे तकलीफ हुई।

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मुदित अब पहले जैसा नहीं था। पर कुछ समय बाद उसने कटना, खिंचा रहना छोड़ दिया। वह अदब से बात करने लगा। मुझे भी ग्लानि हुई कि मैं समाज, घर-परिवार सब जगह तो समर्थों से उपेक्षा, संवेदनहीनता के थप्पड़ खा लेता हूँ। कैसा शूरवीर हूँ कि मुदित से पंजा लड़ा रहा हूँ!! मैंने उससे सद्व्यवहार करना, थोड़ा-बहुत मदद करना फिर शुरू कर दिया- यों खुद को ‘जस्टिफ़ाई’ किया।

बीच में ‘कोविड’ आया। मुदित का स्कूल बंद हो गया। धोबी  का काम भी ठप्प जैसा हो गया। उसके पास न वाई-फ़ाई था, न स्मार्ट फोन। मैंने उसे स्मार्ट फोन देने की सोची, लेकिन  फिर पाँच सौ रुपए दिए – इतना भी कौन देता है! दूसरे – जंगल में मोर नाचेगा, कौन देखेगा!! मेरे पास इतनी समझ, इतने नेक विचार हैं – मेरी प्रतिभा का कौन-सा सम्मान हो रहा है? बस, उसकी पढ़ाई के हाल-चाल  पूछ कर सहानुभूति व्यक्त करता रहा -कभी बिस्कुट-बन दे देता।

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मुदित गाँव चला गया। कोविड निपटने पर वापस आया। एक दिन उसने शर्माते हुए मुझे बताया कि उसने बारहवीं क्लास – कॉमर्स से – 71 प्रतिशत नंबरों के साथ पास कर ली है।

इस सारे प्रसंग से जुड़े सवालों की चर्चा – अगली कड़ी में।

  • कृपया गुप्ता-पांडे-सक्सेना को हम सब के बीच के गैर-दलित शहरी मध्यवर्ग के प्रतीक के रूप में लें। किसी व्यक्ति-जाति के आक्षेप के रूप में नहीं। हम सब ‘गुप्ता-पांडे-सक्सेना’ हैं!

*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

12 COMMENTS

  1. सामाजिक असमानता के systemic आधार, मध्यवर्ग के खोखले आदर्शवाद, इसकी सीमाएँ और साथ ही इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चालू रखने में उनकी भूमिका पर गंभीर टिप्पणी। रोज़मर्रा की ज़िंदगी का उदाहरण लेकर एक गंभीर मुद्दे पर की गयी सार्थक टिप्पणी। राजेंद्र भट्ट जी का लेख पढ़ते हुए कई बार दिल भर आया तो कई बार ग़ुस्से का उबाल भी आया। इस बेहतरीन लेख के लिए बधाई।

    • बेहद सार्थक, गहन-गंभीर टिप्पणी। बहुत धन्यवाद।

  2. जीवन के अनुभवों को कहानी में पिरोना एक अच्छे साहित्य की परिचायक है. जो संदेश इससे मिला है, वह शिक्षाविद नहीं दे सकते. इस सुन्दर रचना के लिए बधाई.

  3. कहानी के माध्यम से अपने जीवन के वास्तविक अनुभव को उकेरने का प्रयास सराहनीय है।। सामाजिक समरसता हेतु एक सार्थक विचारणीय बिन्दुओ की और भी ध्यान आकर्षित किया है।।कहानी के माध्यम से सामाजिक असमानता पर भी गहन समीक्षा की और सन्देश दिया है।।वास्तव मे एक स्वतंत्र विचारक की भांति इस लेख हेतु शुभकामनाएं।। आभार।।

    • आपके स्नेह ने हमेशा मुझे गद्गद किया है। दिल से शुक्रिया।

  4. राजेन्द्र भट्ट जी को इस चमहत्वपूर्ण चिंतन के लिए धन्यवाद और बधाई ! अपनी चिंता को कितनी खूबसूरती से उन्होंने एक कहानी का जामा पहना दिया है ! यह घटित हुआ हो, या नहीं, पर यही सत्य है | इस समाज में एक ओर समर्थ लोग है, और दूसरी ओर ग़रीब और उपेक्षित | लेखक के मन में हाशिये पर पड़े, एक सचमुच मेधावी बच्चे के प्रति सहानुभूति है; वह उसकी दशा भी सुधारणा चाहता है, मगर उस बच्चे की जाति उसका व्यवधान बन जाती है | ग़रीबी से कोई लड़ भी ले, जाति से वह कैसे लड़ेगा ? लेखक ने बहुत होशियारी से तथाकथित सवर्णों की क्रूरता और उनके पाखंड पर अपनी टिप्पणी की है | अपने जातिगत अपमान को इक्कीसवीं सदी का बच्चा सह नहीं पाता | उसका मन आहत होता है, मगर विडंबना है, कि समर्थ लोगों का संवेदनहीन मन उस वर्ग के मन को नहीं समझ पाता | इसलिए, आवश्यकता है समाज में संवेदनशील लोगों की | कोई संविधान, कोई क़ानून हमारे समाज को नहीं बदल सकता, जब तक लोगों का मन (ऐटीट्यूड) नहीं बदले | मुदित -1 को पढ़कर सुख मिला, कि हमारे साहित्यकारों ने अब समाज-सेवा का काम बहुत बड़े ‘गैप’ के बाद शुरू कर दिया है |

  5. इस संवेदनशील दिप्पणी के लिए आभार।

  6. सर,अभी तो मुदित का पहला ही प्रसंग पढ़ा है मगर एक बार भी यह नहीं लगा कि पढ़ रहा हूं बल्कि यह लग रहा है जैसे देख रहा हूं! इस समाज में क्या -क्या हो जाता है,कैसे कोई घटना जिसे छोटी सी घटना मान लिया जाता है वह किसी के लिए कितनी बड़ी घटना हो सकती है!
    अभी प्रसंग 2और तीन पढ़ने हैं सर 👍🙏

  7. यह एक संवेदनशील मन की आप बीती या आत्माभिव्यक्ति कुछ भी कही जा सकती है। मुदित प्रसंग हम सब के आसपास घट रहा है। लिपिबद्ध करके भट्ट जी ने हम सब को कृतार्थ कर दिया। लिखते रहें।

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