शिक्षा: मुदित-प्रसंग -2

राजेन्द्र भट्ट

शिक्षा पर मेरे पिछले लेखों (यहाँ, यहाँ और  यहाँ) के बाद पिछली बार (शिक्षा:मुदित-प्रसंग -1) में हम मुदित के, ‘मुदित’ बने रहने के संघर्ष के प्रसंग से दो-चार हुए। अब मुदित-प्रसंग से जुड़े कुछ अन्य मुद्दे।

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क्या मुदित को आगे पढ़ाई और रोजगार में कोई रिज़र्वेशन मिलना चाहिए? पांडे-गुप्ता- सक्सेना साहब की पक्की राय है – नहीं। सब कुछ ‘मेरिट’ से होना चाहिए। ये क्या मज़ाक हैं कि अपना मेधावी 94% ला कर ही टापता रहे, और ये —- की औलाद 71% लाकर हमारा मुंह चिढ़ाएं! ऐसे डॉक्टर-इंजीनियर बनेंगे, तभी तो बनते ही पुल टूट जाते हैं और ऑपरेशन टेबल पर ही मरीज मर जाते हैं। पांडे-गुप्ता-सक्सेना साहब को पक्का पता है – अगर ज्यादा पूछें तो कहते हैं कि उन्होंने सुना है – कि 35-40 परसेंट लाकर भी ‘इनके’ बच्चे डॉक्टर- इंजीनियर बन रहे हैं। कम से कम मुदित के मामले में वे निश्चिंत हो सकते हैं कि वह पुल नहीं गिराएगा, न ही ऑपरेशन टेबल पर गंवार की तरह चाकू चला कर किसी को मारेगा। मेडिकल-इंजीनियरी की पढ़ाई के खर्च को देखते हुए वह पहले ही ‘कॉमर्स’ में चला गया था। उसने अपने पंखों को अपनी हैसियत के हिसाब से पहले ही काट लिया था। सनद रहे कि मुदित का कॉमर्स लेना ‘विकल्प चुनने का उसका अधिकार’ नहीं था – लोकतान्त्रिक सभ्य समाज का कागज़ पर दिया यह हक, उसकी किस अयोग्यता और गलती के बिना उससे छीन लिया गया था? साथ ही, डॉक्टर-इंजीनियर बनने की ‘अवसरों की समानता’ का भी बुनियादी अधिकार उससे छीना गया था।

चूंकि पांडे-गुप्ता-सक्सेना साहब को पक्का पता महज सुन कर हो जाता है, इसलिए उन्होंने यह आधिकारिक जानकारी पढ़ी तो नहीं ही होगी कि पढ़ाई-लिखाई और नौकरियों में आरक्षण का कोटा कभी पूरा हो ही नहीं पाता। हाँ, एक जगह शत-प्रतिशत आरक्षण है जो पूरा भी हो जाता है। वह है सफाई कर्मचारी, गटर-सीवर से जुड़े काम! इसलिए अगर पुल इंजीनियर की गलती या घटिया माल इस्तेमाल करने के भ्रष्टाचार से गिरते हैं, मरीज गलत इलाज से मरते हैं – तो इसमें रिज़र्वेशन वालों की गलती उनके निर्धारित कोटे से बहुत कम होती है। मतलब, बहुत ज्यादा गलतियाँ-अपराध मेधावियों के होते हैं। बहुत से मुदितों के लिए तो रोज़ की रोटी की जद्दो-जहद ही इतनी हो जाती है कि वे तीसरी-पाँचवीं- आठवीं के शिखरों पर ही अटक जाते हैं – ‘मुदिताएँ’ तो कई कदम और पीछे रह जाती हैं। उनकी राह में तो, बाहर की बाधाओं के साथ-साथ परिवार-समाज भी दीवारें खड़ी कर देता है। इसलिए, ज़्यादातर मुदित-मुदिताएँ किसी पद की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता तक ही नहीं पहुँच पाते, रिज़र्वेशन फिर कैसे मिलेगा?

चलिए, अपने मुदित पर आते हैं जो पाँच साल पहले तक ‘मेरिट’ की दौड़ में मेधावी से आगे था और उसे गणित सिखा देता था। सुबह-शाम का समय धोबी वाले काम में खर्च होने, अच्छा स्कूल-टीचर न होने, जाड़ा-गर्मी-बरसात जीने की सीढ़ियों के नीचे पढ़ने, अंडा-ब्रेड-दूध न मिलने की स्थितियों को उसने मन पर हावी नहीं होने दिया था। ( किसी महान व्यक्ति की जीवनी में इसे ‘असाधारण मेरिट’ मान कर ही पढ़ाया जाएगा।) मतलब, रेस को कई कदम पीछे से शुरू करके भी, वह पूरी सकारात्मकता के साथ दौड़ में था- और बहुत से मेधावियों से ‘मेरिट’ में आगे था। पर काली मिर्च बुरके अंडे वाले प्रसंग ने इस दौड़ को बिलकुल बेमानी बना दिया। आखिर कोई दौड़ भी कई कदम पीछे से शुरू करे और उसकी आँखों में काली मिर्च भी डाल दी जाए – तो फिर कैसी दौड़, कैसा मुक़ाबला, कैसी अवसरों की समानता! एकलव्य को गुरुदेव की कोचिंग क्लास भी न मिले, अर्जुन मेधावी जैसा महल और साज-सामान भी न मिले – और संस्कारी एहतियात के तौर पर अंगूठा भी ले लिया जाए तो कैसी वीरता! कैसी प्रतियोगिता!

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फिर मेरिट से जुड़ा एक और पक्ष भी है। मेधावी के लिए हर सब्जेक्ट में ट्यूशन लगाना पड़ा। कमीज का बटन वह नहीं लगा पाता। उसे नहीं मालूम, गेहूं पौधे की जड़ में होता है कि तने में। पर मुदित इतना समझदार-सजग है कि हर काम की तह में जाता है, ‘बेसिक्स’ समझता है, फिर फटाफट काम को बढ़िया तरीके से सीख जाता है -चाहे प्रेस करनी हो, गाड़ी धोनी हो, गाँव में खेती-बाड़ी हो या बिजली-रिपेयर का काम हो। वह अपनी बहन को भी पढ़ाता है, काम करता है तो पिता का ज्यादा से ज्यादा हाथ बटाना चाहता है। क्या उसका आईक्यू और ईक्यू ( संवेदना सूचकांक) मेधावी से ज्यादा नहीं होगा? क्या किसी समग्र शिक्षा/आकलन प्रणाली में इन मानदंडों की भी गुंजाइश नहीं होनी चाहिए?क्या हमारी शिक्षा प्रणाली में इस समग्र समझ को भी ‘क्वांटिफ़ाई’ करने का कोई तरीका है? क्या तब मुदित को ज्यादा ‘मेरिटोरियस’ नहीं पाना जाएगा?

दरअसल, जाति का ‘कोटा’ तो अकसर बड़े पदों पर पूरा ही नहीं हो पाता, बस तीसरे-चौथे या ‘गंदे’ कामों में ही पूरा होता है, जहां सदियों से उनका आरक्षण है। हाँ, राजनीति में, यानि एमपी-एमएलए से लेकर प्रधान (‘प्रधान-प्रति’ के बोनस पद सहित) की आरक्षित सीटों पर यह कोटा भर जाता है जिनकी अयोग्यताओं और बदनामियों का जिक्र गुप्ता-पांडे-सक्सेना साहब अक्सर करते हैं, पर इनके होने-न होने से अपने मुदित का तो कुछ भला होता नहीं। हाँ, ये लोग तीसरे-चौथे पायदान के, या आलंकारिक शब्दों में कहें तो, श्रेष्ठ पदों वाले ‘निषादराज’ हो पाते हैं – अपने-अपने ‘रामों’ की कृपा अथवा उनके द्वारा उचित मूल्य पर खरीदे जाने से गदगद। अपने छोटे-बड़े शिखर पा लेने की दौड़ में जुटे, ‘समाज के ये नेता’ मुदित और सेवाराम को खुश महसूस कराने वाले, उनके वोट दिलाने वाले प्रतीक-मात्र रह जाते है और व्यवहार में, मुदितों से दूरी बनाकर, अपनी अगली पीढ़ियों की नस्ल सुधारने के प्रयासों में लग जाते हैं।

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इन्हें छोड़ें। मेधावी जी के बिना ‘कोटे’ के इंजीनियर बनने की बात करें। उनके लिए तो कोटा नगरी का ‘कोटा’ है, जिसमें आईआईटी-जेईई से ध्यान बंटाने वाली सारी बेवकूफ़ियों यानि परंपरागत स्कूल और ज़रूरी ज्ञान के अलावा समाजविज्ञानों-साहित्य की फालतू पढ़ाई से भी मुक्ति की व्यवस्था है। 12वीं की शिक्षा के प्रमाणपत्र की खाना-पूरी के लिए ‘प्रोक्सी’ स्कूल भी मिल जाते हैं और तपोनिष्ठ विद्यार्थी और ‘सर’ जेईई-साधना में, धन की चिंता न करते हुए तल्लीन हो जाते हैं। सूचना टैक्नोलॉजी के इस युग में, अब कोटा की भौगोलिक दूरियाँ भी कम हो रही हैं और ‘कोटा-फैक्ट्रियाँ’ नए-नए नामों के साथ – हर शहर-कस्बे में उपलब्ध हैं। यों हर गली-मुहल्ले में भी संपन्नों वाला कोटा दिलाने वाले ‘ट्यूशन वाले सरों’ के बैनर-पोस्टर-पर्चे लगे रहते हैं – ये गुरुजन अपनी-अपनी पेटेंट शैलियों में विद्यादान नहीं – ‘फीस-जेईई स्किल प्रदान’ सेवाएँ चलाते हैं।

मेधावी इन दो श्रेणियों से भी इंजीनियर नहीं हो पाए इसलिए उनके लिए तीसरा तरीका अपनाया गया। महानगरों-उपनगरों के आस-पास कुकुरमुत्तों जैसे अनेक कॉलेज- विश्वविद्यालय पनप रहे हैं – ये किन्हीं मालवीय जी, सर सैयद, डॉ. ज़ाकिर हुसैन की शिक्षा- दृष्टि और आदर्शों से नहीं जन्मे हैं। इनके संचालकों ने रियल एस्टेट, दलालियों, राजनीति से लेकर मिठाई बनाने तक के काम-धंधों से ‘एजुकेशन’ में ‘डाइवर्सिफ़ाई’ किया है – वे ही वीसी या डाइरेक्टर भी हैं। ये उदार मोल-भाव के साथ पसंद का प्रोफेशनल कोर्स करा देते हैं। मेधावी भी ऐसे ही एक उपनगरीय कॉलेज में टिक गए। ये तमाम ‘धन-कोटा’ मुदित को उपलब्ध नहीं थे। इस तरह, रो-पीट के मेधावी को भी एक तरीके के ‘कोटे’ में रिज़र्वेशन मिल ही गया और वह (आईटी) इंजीनियर बनने- पैकेज पाने की राह पर बढ़ चले। चिंता न करें, मेधावी कोई पुल नहीं गिराएँगे। समय बदल गया है। ज़्यादातर इंजीनियर अब सॉफ्टवेयर बनाने-ठीक करने या बेचने वाले हैं। वे ‘वर्चुअल’ इंजीनियर हैं।

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बहरहाल, समाज और शिक्षा प्रणाली तो एकदम नहीं बदलेगी। इसलिए पांडे-गुप्ता-सक्सेना साहब से गुजारिश है कि वे इन सब बातों को पढ़-समझ कर थोड़ा ज्यादा गहरे, ज्यादा संवेदनशील हो जाएँ और समझें कि इस व्यवस्था के नहीं बदलने से मुदित गरीबी और पिछड़ेपन के एक दुष्चक्र में फंस गया है। वह काबिल है – उसमें ‘मेरिट’ है – बस उसे एक बार इस दुष्चक्र से बाहर लाने के लिए रिज़र्वेशन का सहारा चाहिए। इसलिए इन मामलों में छिछोरे न रहें, सोच में थोड़ा गहराई लाएँ – और अब ( उसकी कुल योग्यता और संघर्ष के मद्देनजर ) उसके 71% अंकों, उसके ई. क्यू. और समग्र व्यक्तित्व को सम्मान दें, उसके रिज़र्वेशन से नहीं कुढ़ें। इस रिज़र्वेशन से उसे कम खर्च वाले सरकारी कॉलेज में दाखिला मिलेगा या किसी सरकारी दफ्तर में कोई नौकरी मिलेगी, (अगर वर्तमान दौर में ऐसे कॉलेज-दफ्तर बचे रहे तो!), तभी निर्धनता-अपमान का यह दुष्चक्र टूटेगा – मुदित आगे बढ़ पाएगा – ‘मुदित’ रह पाएगा, उसका गुस्सा नहीं फटेगा। हमारी रीति-नीति-संविधान बनाने वाले पुरखों ने इसीलिए ये प्रावधान रखे थे कि बिना खून-खराबे, सामाजिक विघटन के असमानता

के दुष्चक्र टूटें- वंचित आगे बढ़ें- देश समरसता के साथ आगे बढ़े। और अगर खून-खराबा, विघटन हुआ तो मुदित जैसे लोग तो आदत पड़ जाने की वजह से बीहड़-बंजर हालात भी झेल जाएंगे, ज्यादा दिक्कत मेधावी जैसे राजा-बेटा को होगी। इसलिए भी पांडे-गुप्ता-सक्सेना साहब के लिए अब बदलते-बिगड़ते समय को समझना, गंभीर अध्ययन करना और संवेदनशील होना जरूरी है।

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यह तो हुआ, रिज़र्वेशन के जरिए तत्काल ‘फायर फाइटिंग’; पर हमारे समाज को ज्यादा पुख्ता तरीके अपनाने होंगे। पांडे-गुप्ता-सक्सेना साहब के बच्चे-रिश्तेदार अब यूरोप-अमेरिका में पढ़ या ‘सैटल’ हो रहे हैं। वहाँ के समाज, साफ-सुथरेपन, व्यवस्था के प्रति वे गदगद हैं। कोई भी प्रमाण अगर गोरों की दुनिया से आ जाए तो, अपने पुरखों की तरह, वे मान ही जाते हैं। इसलिए अब हम उनके लिए ‘पश्चिम’ के देशों से ही उदाहरण लाते हैं।

अठारहवीं से बीसवीं शताब्दी के शुरू तक, यूरोप में भी भारी सामाजिक असमानताएँ, गरीबी थी। साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की अथाह कमाई की अनियंत्रित भूख ने स्थितियाँ और बिगाड़ दीं। चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास बाँच लीजिए। इसी की प्रतिक्रिया में क्रांतिकारी विचार और विचारक पनपे और वंचित वर्ग के हिंसक विद्रोहों ने साम्राज्यों के तख्ते पलट दिये। अठारहवीं शताब्दी के अंत की फ्रांसीसी और बीसवीं सदी (1917) की रूसी क्रांति इसके उदाहरण हैं। तब के क्रांतिकारी विचारकों का मानना था कि निरंकुश पूंजीवाद का लालच कभी खत्म नहीं होगा और वह गरीबों-वंचितों को जितना लूटेगा, उतनी ज्यादा क्रांतियाँ, युद्ध और खून-खराबे होंगे।

लेकिन दिलचस्प बात यह है कि यूरोप-अमेरिका के ज़्यादातर देशों द्वारा पूंजीवाद का रास्ता अपनाए जाने और निजी उद्यमों को लाभ कमाने की स्वतन्त्रता देने के बावजूद, 1917 के बाद, यूरोप-अमेरिका में कोई बड़ी क्रांति, बड़ा खून-खराबा नहीं हुए। आम तौर पर, नस्ली-तानाशाही ‘साम्राज्यों (एम्पायर्स)’ को पीछे छोड़ कर बहुलता (प्लूरेलिटी) वाले ‘राष्ट्र-राज्य (नेशन स्टेट्स)’ बना लेने की समझदारी भी इन देशों ने अपनाई। इन समझदारियों की वजह से दूसरे विश्वयुद्ध के बाद, विकसित देश प्रायः बड़ी लड़ाइयाँ रोक सके। ज़्यादातर, राष्ट्र-राज्यों ने अंध-देशभक्तियों के उन्माद से बचकर अपनी सीमाएं तय कर ली हैं, आपसी अविश्वास और रक्षा बजट घटा कर अपने लोगों को ज्यादा से ज्यादा दे पा रहे हैं।

जी हां, विश्वयुद्धों के बाद की विकसित पूंजीवादी देशों की स्थिरता का राज इसी ‘वेल्फेयर’ शासन में छिपा है। वहाँ भी पूंजीपति मुनाफा कमाते हैं, जिससे उन्हें और अच्छा करने को प्रोत्साहन मिलता है। लेकिन वे, अपने समाजों के ‘मुदित’ और उनके परिवारों को हताशा, अपमान और गुस्से के गर्त में नहीं ढकेलते। ‘मुदितों’ का सम्मान बनाए रखते हुए, उनके समाज, अपनी राष्ट्रीय आय में से उनकी मदद करते हैं; बेरोजगारों को भत्ता (डोल्स) देते हैं; सुनिश्चित करते हैं कि कोई भूखा, निर्वस्त्र, बिना छत के न रहे। यह सब उन्हें दुत्कार कर नहीं, पूरे सम्मान से दिया जाता है। ‘मानवीय गरिमा’ उनके लिए मात्र शब्द नहीं, व्यवहार है,अनिवार्य जीवन मूल्य है। वहाँ का मध्य और उच्च वर्ग पूरी संवेदना के साथ भारत से भी ऊंची दरों पर आय कर देता है और यह घृणामय दंभ नहीं पालता कि समाज के कम-अक्ल ‘मक्कारों’ की रोजी-रोटी और ‘मजे करने’ के लिए उनके जैसे श्रेष्ठ डीएनए वाले मेहनती-प्रतिभावानों को टैक्स देना पड़ रहा है। वो जल्दबाज़ी में भूल जाते हैं कि उनका इन्कम टैक्स कुल राजस्व का 17-18 प्रतिशत ही होता है, उसमें भी मध्य वर्ग इन्कम टैक्स की रकम के हिसाब से बहुत निचले पायदान पर है। बाकी सारे टैक्स, अभावों के बावजूद ‘मुदितों’ को भी देने पड़ते हैं। और हाँ, प्रायः सभी सभ्य-मानवीय देश प्राथमिक और सेकेन्डरी शिक्षा मुफ्त उपलब्ध कराते हैं। उनके ज़्यादातर स्कूल सरकारी ही होते हैं और वही बेहतर भी होते हैं। इसलिए वहाँ समाज के सभी वर्गों के बच्चे प्राइमरी और सेकेन्डरी शिक्षा इन्हीं सरकारी स्कूलों में एक साथ लेते हैं।

अच्छे समाजों/देशों में बच्चों को स्कूल में पौष्टिक भोजन भी दिया जाता है – और इसमें सरकारी-खैराती का कोई टैग नहीं लगा होता है। सभी वर्गों के बच्चों के लिए एक जैसे स्कूल, एक जैसी व्यवस्था, आगे बढ्ने और सामाजिक न्याय और अवसरों का सभी बच्चों के लिए एक जैसा ‘लेवल प्लेईंग फील्ड।‘ अगर हमें वाकई एक टिकाऊ, प्रगतिशील समाज बनाना है, अगर हमें दबे हुए गुस्से, हताशा वाला बीमार समाज नहीं चाहिए जो कभी भी फट सकता है, तो हमें भी यही राह अपनानी पढ़ेगी।

तो मुदित को अवसरों की सच्ची समानता देकर उसकी ‘मेरिट’ के निखरने के लिए ज़रूरी है कि प्राइमरी और सेकेन्डरी शिक्षा के पूरे इको-सिस्टम को सरकार संवेदना के साथ नियमित करे। विशेष जरूरतों वाले निजी स्कूल हों, तो भी उन्हें सरकारी पाठ्यक्रम, फीस का नियोजित ढांचा अपनाना पड़े। एक जैसी सुविधाओं वाले इन स्कूलों में सभी हैसियत के लोगों के बच्चे पढ़ें तभी इनकी लगातार निगरानी और समाधान भी हो सकेंगे। और हाँ, बच्चों को पौष्टिक भोजन भी मिले। एक सुखद खबर तमिलनाडू से आई है कि वे बच्चों को दिन के भोजन के साथ, सुबह का नाश्ता भी देंगे, ताकि घर से भूखे आए गरीब के बच्चे को अपना पहला भोजन – नाश्ता समय से मिले और वह दोपहर तक भूखे पेट न रहे। तो पूरे समाज की ‘मेरिटोक्रेसी’ सुनिश्चित करने के लिए, समाज को बचाए रखने के लिए पांडे-गुप्ता-सक्सेना साहब को अधिक उदार, विवेकशील होना पड़ेगा। हनुमान मंदिर में ऊपर से दोने फेंक कर भिखमंगों को देने की बजाय, सभ्यता और सम्मान के साथ अपने कम कमाऊ नागरिकों की मदद करनी होगी, उन्हें समझना और अपनाना होगा। तभी ‘मुदितों’ को संविधान में कही गई समता, न्याय और अवसरों की समानता मिलेगी, तभी ‘मेरिट’ की पहचान होगी। उन्हें संवेदनशील होना पड़ेगा कि रट्टे पर टिकी और समग्र ज्ञान तथा व्यावहारिक हुनर को नहीं आँकने वाली गलत शिक्षा प्रणाली ‘मेरिट’ का पैमाना नहीं हैं। जब ज्यादा सुविधाएं पाए लोग संवेदनशील होंगे, तभी समाज कम हताश, कम गुस्सैल होगा, तभी गेटेड कॉलोनी, कोठियों-प्रासादों और मामूली लोगों की बस्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगी। उन्हें समझना होगा कि ज़रूरतमन्द नागरिकों की मदद को ‘रेवड़ी’ बांटना कहना अनपढ़ या धूर्त होने की निशानी है।

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अब पांडे-गुप्ता-सक्सेना साहब की एक अन्य आशंका पर आएँ कि सरकारी स्कूलों की हालत खराब है। जर्जर स्कूल, कामचोर शिक्षक….वगैरह। तो इसका समाधान भी तभी होगा जब मेधावी इन स्कूलों में पढ़ने लगेंगे। अभी मुदित अगर सेवाराम को स्कूल की बदहाली बताएगा भी, तो बेचारे सेवाराम किस दफ्तर की दहलीज पर जाएंगे? वह तो उल्टे मुदित को ही झाड देंगे। लेकिन जब मेधावी को दिक्कतें होंगी तो वह अपने पापा-अंकल को बताएँगे। वो रसूखदार हैं, इसलिए जिम्मेदार सरकारी दफ्तर-अफसर को हिलाएँगे और वे स्कूल का नक्शा ही बदल देंगे। इसलिए, जब बहुत से मेधावी इन स्कूलों में होंगे तो ये स्कूल भी सुधरेंगे। मुदित और मेधावियों को, एक साथ अच्छे स्कूल, संवेदनशील ‘लेवल

प्लेईंग फील्ड’ मिलेंगे। अगर पुराने दिन याद करें तो पांडे-गुप्ता-सक्सेना साहब भी तो जब रामौतार, होरीलाल और किशनप्रसाद हुआ करते थे तब सेवारामों या नंदरामों के साथ एक-जैसे स्कूलों में पढ़ते थे। कम से कम बचपन के उस दौर में तो, विषमताओं-अन्यायों के बावजूद, बच्चों में निर्दोष मैत्री की ज़मीन थी। पूरे समाज का प्रतिनिधित्व होने से स्कूलों की दशा पर भी समाज की नज़र रहती थी। रामौतार, होरीलाल और किशनप्रसाद को एक प्रतिनिधि भारत की समझ-संवेदना थी। भव्य स्कूलों के जेलखानों में मेधावी को हमने उस समझ-संवेदना से वंचित कर दिया है, और मुदित को एक अंधेरे दड़बे में डाल दिया है।

मुदित-प्रसंग से जुड़े बाल और किशोर मनोविज्ञान और प्राणिविज्ञान के सवालों ने भी हमारी चेतना को झकझोरना चाहिए। 12-13 वर्ष का होनहार, चुलबुला किशोर अचानक चुप्पा-उदास क्यों हो जाता है? इसे उसके शारीरिक-मानसिक विकास पर क्या असर पड़ेगा। क्या ऐसे बीमार किशोरों से ही युवा भारत का वह ‘डेमोग्राफिक डिविडेंट’ मिलेगा, जिसके बारे में हम हाँकते रहते हैं? (हालांकि एक वर्ग को जनसंख्या बढ़ाने के लिए दुत्कारते भी रहते हैं!) एक किशोर का निजी नासूर क्या समाज के लिए नासूर नहीं बन सकता? मुदित-प्रसंग के जरिए, शिक्षा, मनोविज्ञान, प्राणिविज्ञान और समाजविज्ञान के ये सवाल हमें संवेदनशील और उदार बनाएं, और फिर यही परिवर्तन हमारी शिक्षा-प्रणाली में भी आए – तभी हम एक सही मायने में मेधावी, ‘मेरिटोरियस’ और मुदित समाज बना सकेंगे।

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*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

8 COMMENTS

  1. बेहतरीन है यह पूरी सीरीज़। समस्या, उसके कारण और निवारण सब पर लेखक की दृष्टि गई है और इस पूरे मामले में आंतरिक तर्कबद्धता भी है।

    • धन्यवाद। आप स्वयं बेहद संवेदनशील हैं।

  2. मुदित – 1 पर अपनी प्रक्रिया डेने के बाद मैं बैठ गया हूँ मुदित – 2 पर अपनी प्रतिक्रिया देने हेतु | यह एक बड़ा लेख है, और इसमें कई समस्याओं को समाहित किया गया है, लेकिन मूल समस्या मुदित की ही है | पहली बात मैं आरक्षण की करूँगा | सैद्धांतिक रूप से मैं आरक्षण का विरोधी हूँ, मगर उसके दूसरे कारण है, जिनकी चर्चा मैं आगे करूँगा | अभी बात करें हम भारत में लागू आरक्षण की | हमारे संविधान-निर्माताओं ने कुछ सोच कर ही शिक्षा, सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था की होगी | मेरी सूचना के मुताबिक उन्होंने ग़रीबों के लिए आरक्षण की बात सोची था, मगर ग़रीबी को जाँचने का कोई पैमाना न होने की वजह से जाति को आधार बना लिया गया | संविधान-निर्माताओं से यह बड़ी भारी भूल हो गई, कि उन्होंने आरक्षण के लिए समय की सीमा निर्धारित नहीं की | अगर यह सीमा (बीस वर्ष/तीस वर्ष/चालीस वर्ष/ पचास वर्ष, — कुछ भी ) तय हो गई होती, तो भारत में समस्या कम होती, और सही लोगों को आरक्षण का लाभ मिल गया होता | प्रारंभ में आरक्षण का लाभ वंचित वर्ग के कुछ भाई-बहनों को अवश्य मिला होगा, मगर अब तो यह चुनाव में मत पाने का एक हथियार बनकर रह गया है | प्रश्न यह भी है, कि क्या इस आरक्षण का लाभ आज सचमुच उन लोगों को मिल रहा है, जिनके लिए यह तय था ? हक़ीक़त यह है, कि उस वर्ग में भी जो समर्थ हैं, वे ही इसका लाभ ले रहे हैं | एस. सी. और एस. टी. तक सब कुछ लगभग ठीक चल रहा था; असली समस्या ओ. बी. सी. के आरक्षण के बाद शुरू हुई | इस पर विस्तार से बाद में बात हो सकती है | अभी प्रश्न यह है, कि क्या लालू यादव और राम विलास पासवान-सरीखे समर्थ परिवार को भी आरक्षण मिलना चाहिए ? मेरी समझ से आरक्षण की व्यवस्था ने हमारे समाज को अनेक जातियों में न केवल बाँटा है, बल्कि सामाजिक न्याय करने की फ़िक्र में सामाजिक अन्याय की ओर क़दम ले लिया है | जातियों के बीच मनोवैज्ञानिक दूरी को इस आरक्षण ने बढ़ा दिया है | मूल प्रश्न है, आरक्षण की बैसाखी से समाज कब तक चलेगा ? अब मैं आरक्षण के अपने विरोध का कारण बताना चाहूँगा | लेकिन, उससे पहले, बात अमेरिका की | स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद आमेरिका के संविधान-निर्माताओं ने अश्वेतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को संविधान में लिखना चाहा | इस व्यवस्था का विरोध स्वयं अश्वेतों ने किया | उनका कहना था, कि वे ‘गोरों’ की भीख नहीं लेंगे | उन्होंने कहा – ‘वी डोन्ट वान्ट योर चैरिटी’| उन्होंने यह भी कहा, कि समाज में ऊँचे-से-ऊँचे पद तक वे अपनी मेधा से जाएँगे, आरक्षण के सहारे नहीं | आज अमेरिका का इतिहास सबको ज्ञात है | मेरा सोचना है, कि आरक्षण हमारा आत्मविश्वास घटा देता है | मेधा हमें आत्मविश्वास देती है | मैं नहीं समझता, कि मेधा पैसों की अनुगामिनी होती है | इसके अनेक उदाहरण हैं, मैं उसके विस्तार में नहीं जाना चाहूँगा | मेरा स्वप्न है, आरक्षण-विहीन समाज, मगर यह ऊँचे आदर्शों से प्रेरित है | इस व्यवस्था में साधारणतया कोई भी व्यक्ति किसी जाति को अपने से हीन नहीं समझेगा | याद कीजिए, अपने बचपन में आपने किसी से दोस्ती जाति देखकर, या पूछकर नहीं की होगी | आरक्षण हटने पर जातियों के बीच मनोविज्ञानिक दूरी भी नहीं होगी | किसी भी विकसित देश में इस प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है | सचमुच विकास करना हो, तो आरक्षण को हटाना होगा | दुख की बात यह है, कि जो दल ऐसी बात करेगा, वह चुनाव हार जाएगा | जब तक भारत की जनता आरक्षण की व्यवस्था को समाज-विरोधी नहीं मानती, तब तक ऐसा लगता है, कि यह सब ऐसे ही चलता रहेगा | आरक्षण से अधिक जरूरी है, हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन |भगवान की बनाई दुनिया में कोई जाति दूसरे से श्रेष्ठ या हीन नहीं | जिस दिन हमारे विद्यालयों मे शिक्षक और स्वीपर एक साथ टेबल पर बैठकर कैंटीन में खाना खाएँगे, उस दिन हम सामाजिक समरसता का बहुत बड़ा मुक़ाम पा लेंगे | भट्ट साहब ने अपने आलेख में कुछ बहुत अच्छे समाधानों की चर्चा विदेश में बच्चों को मिल रही सुविधाओं के संदर्भ-सहित की है | मैं उनसे सहमत हूँ | बड़े-बड़े उद्योगपति ऐसा कर सकते हैं, जहाँ विद्यालयों के बच्चों के भोजन की मुफ़्त व्यवस्था के साथ उन्हें मुफ़्त शिक्षा दी जाए | वहाँ जाति का कोई भेद-भाव नहीं हो | बिहार में वर्ष 1954 में गुरुकुल पद्धति पर आधारित एक ऐसे ही विद्यालय की स्थापना बिहार सरकार के द्वारा हुई थी, जो बिहार-विभाजन के बाद झारखंड में चला गया है | यहाँ अभिभावकों की आय के आधार पर फ़ीस ली जाती है, और ग़रीबों के लिए मुफ़्त भोजन और शिक्षा की व्यवस्था है | मैं वर्ष 1957 से वर्ष 1963 तक इसी नेतरहाट आवासीय विद्यालय का छात्र था, जब मैंने हायर सेकेंडरी की परीक्षा पास की | इतने वर्षों के बाद अपने कई साथियों की जाति मैं आज भी नहीं जानता | आपको मेरे सलाह होगी, कि एक बार आप नेतरहाट जाएँ | यह राँची शहर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर, समुद्र से लगभग चार हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर, पहाड़ियों के बीच एक पठार पर अवस्थित है |

  3. आदरणीय नरेन्द्रनाथ पांडे जी ने इस मुद्दे पर बड़ी मेहनत और ईमानदारी से दूसरा पक्ष रखा है। उन्होंने लेख को इतना महत्व दिया आभारी हूँ।
    राजेंद्र भट्ट

  4. आज की स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर आपने बहुत अच्छा लिखा है राजेंद्र जी। मध्यम वर्ग की मानसिकता है कि मजदूरों के बच्चे पढ़ लिख गए तो सस्ती मजदूरी कौन करेगा। इसी मानसिकता के चलते सरकारी स्कूल में अध्यापकों ने पढ़ाना बंद कर दिया है क्यूं की इन स्कूलों में मजदूरों के बच्चे ही पढ़ते हैं। कॉमन स्कूल सिस्टम ही इस समस्या का एकमात्र विकल्प है जिस आपने बहुत अच्छे से रेखांकित किया है। दुनिया के सभी सभ्य समाजों में ये ही पद्धति लागू है, तथाकथित पूंजीवादी देशों में भी।

  5. धन्यवाद, सुधीर जी। आपने इस मुद्दे का एक और पक्ष सामने रखा है। यह बिलकुल सही बात है कि कॉमन स्कूल सिस्टम प्राइमरी और सेकेन्डरी शिक्षा में और विद्यार्थियों में गहराई, समाज में एंपैथी और व्यवस्था में ‘लेवल प्लेईंग फील्ड’ ला सकता है। पश्चिमी पूंजीवादी आधार वाले लोकतंत्रों ने ऐसे ‘वेल्फेयर’ उपायों से अपने समाजों की समरसता बनाए रखी है, संघर्ष टाले हैं।
    लेकिन हमारे देश के विविध रूपों, जातियों, रुतबों वाले संवेदनहीन प्रभु वर्ग ऐसा होने नहीं देंगे।

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