सीबीआई प्रकरण – चिंताएँ ही चिंताएँ

संस्थाओं को कमज़ोर करने से लोकतन्त्र कमजोर होता है


सीबीआई को लेकर पिछले दिनों सोशल मीडिया पर इतना कुछ लिखा जा रहा है कि इस स्तंभकार को लगा कि मैं आखिर क्या नया कह लूँगा और इसलिए इस कीचड़ में उतरने का मन नहीं था। लेकिन आज दोपहर बाद से जब आलोक वर्मा द्वारा दिये गए त्यागपत्र को किसी पत्रकार ने ट्वीट किया तो लगा कि रेकॉर्ड के लिए ही सही, अपने मन की चिंताएँ चाहे वो और लोगों ने भी सार्वजनिक रूप से कही हों, हमें भी कह देनी चाहिए।

हमारी चिंता ये नहीं है कि राफेल प्रकरण की जांच अब नहीं हो पाएगी क्यूंकि सच कहें तो हमें ये जानकारी नहीं है कि आलोक वर्मा यदि अपने पद पर रहते तो वो जांच ऑर्डर करते ही! हमारी चिंता तो ये है कि जिस तरह सभी परम्पराओं और बारीकियों को ताक पर रख कर सरकार ने आलोक वर्मा को हटाया और जिस प्रकार से न्यायपालिका को भी अपने इस कृत्य में शामिल कर लियाए उससे ना केवल सीबीआई नामक संस्था की रही-सही विश्वसनीयता भी खतम हो रही है बल्कि भारतीय प्रशासनिक ढांचे से ही विश्वास उठ जैसा जाता है।

आलोक वर्मा जिनका आईपीएस ऑफिसर के तौर पर अब तक कार्यकाल बिलकुल दाग-रहित रहा है, अचानक इतने भ्रष्ट कैसे हो गए कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनका सशर्त पुनर्स्थापन भी एकदम रास नहीं आया। दो दिन में ही सिलेक्शन पैनल की दो मीटिंग बुला लीं गईं और नेता प्रतिपक्ष के बार बार ज़ोर देने के बावजूद कि पैनल को पहले एक बार आलोक वर्मा को सुन लेना चाहिएए प्रधानमंत्री और न्यायपालिका के प्रतिनिधि ने उनके इस अनुरोध को नकारते हुए आलोक वर्मा को सीबीआई के डायरेक्टर पद से हटा कर ही चैन सांस ली।

स्वीकार्य प्रक्रिया की धज्जियां उड़ीं

इसमें कोई संदेह नहीं कि सीबीआई की पहले भी कोई ऐसी विश्वसनीयता नहीं थी लेकिन हालिया घटनाक्रम से ये हुआ है कि पूरे देश के सामने स्वीकार्य प्रक्रिया की धज्जियां उड़ती रहीं लेकिन कोई कुछ नहीं कर सका। सबसे खतरनाक पहलू तो ये रहा कि देश की न्यायिक प्रक्रिया ना केवल इस मामले में कोई प्रभावी हस्तक्षेप नहीं कर सकी बल्कि एक तरह से अनजाने में ही सही इस पूरे मामले में अपारदर्शी ढंग से सरकार के साथ नज़र आई।

एक चिंता की बात ये है कि इस पूरे प्रकरण में जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि लोग (उनके वोटर या मतदाता) क्या सोचेंगे! स्पष्ट है कि यदि उन्हें ये चिन्ता होती तो वो लोग ऐसा करने की बजाय कोई और रास्ता अपनाते। आपके स्तंभकार की ये योग्यता नहीं कि वह इस पर कुछ निर्णायक ढंग से कह सकें कि मतदाता इस घटनाक्रम से सरकार के बारे में क्या राय बनाएँगे लेकिन अपने आप में देश के लोकतन्त्र के लिए ये शुभ लक्षण नहीं है कि सरकार में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही लोकतान्त्रिक संस्थाओं को कमज़ोर करते जाएँ और उन्हें ये भरोसा हो कि इससे उनके वोट-बैंक पर कोई असर नहीं पड़ेगा। हो सकता है कि आज इस सरकार को ये सुविधाजनक लग रहा हो और उनका हित-साधन हो रहा हो लेकिन दीर्घकाल में ना तो ये लोकतन्त्र के लिए शुभ है और ना ही उनके लिए जो आज ये कर रहे हैं।

इस पूरे प्रकरण में सबसे ज़्यादा आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि वर्तमान सरकार के प्रतिनिधि उस धारा से आते हैं जिन्होंने आपातकाल के दंश को भुगता है और जिन्हें इस बात के लिए संवेदनशीलता होनी चाहिए थी कि किसी भी लोकतन्त्र के लिए उसके संस्थानों का स्वायत्त होना कितना आवश्यक होता है। इन लोगों में ऐसी संवेदनशीलता क्यूँ नहीं है, इसकी चर्चा अगले किसी स्तम्भ में हो सकती है।

… विद्या भूषण अरोरा

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