1857 और विष्णुभट के सरोकार

10 मई को प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की जयंती पर विशेष

राजेंद्र भट्ट

10 मई को भारत के 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की एक और जयंती होगी।  इस संघर्ष के घटना-क्रम के बारे में उसी समय के ब्रिटिश दस्तावेजों की कमी नहीं है पर उस दौर में ही लिखे गए आम भारतीयों के अनुभवों-भावनाओं को बताने वाले  ‘आँखों देखे’ प्रामाणिक विवरण बहुत ही सीमित हैं। ऐसे में, उस उथल-पुथल के दौर में, पुणे के पास से बिठूर (कानपुर) की यात्रा करने वाले विष्णुभट गोडसे की मराठी में लिखी आप-बीती ‘माझा प्रवास’  दिलचस्प स्रोत है। इस पुस्तक पर उनका नाम ‘गोडसे भटजी’ दिया गया है।

विष्णुभट ने अपनी लिखित स्मृतियों के आधार पर, प्रख्यात विद्वान चिंतामणि विनायक व्यास की प्रेरणा से,1883 में “माझा प्रवास – 1857च्या बंडाची हकीकत” (बंड यानि गदर) पुस्तक तैयार की। श्री वैद्य के संशोधन-सम्पादन वाली मराठी पुस्तक 1907 में प्रकाशित हुई, जिसके आधार पर हिन्दी में प्रख्यात लेखक अमृतलाल नागर ने 1947 में हिन्दी में  माझा प्रवास: आँखों देखा गदर  पुस्तक लिखी। श्री वैद्य ने विष्णुभट की मूल पाण्डुलिपि 1922 में पुणे की संस्था – भारत इतिहास संशोधक मण्डल को सोंप दी। इसी का लिप्यंतर 1966 में इतिहासकार दत्तो वामन पोतदार ने प्रकाशित किया। सुप्रसिद्ध विज्ञान पत्रकार गुणाकर मुले जी ने उसी पुस्तक के आधार पर प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘आजकल’ के लिए एक लेख लिखा जो हमारे इस लेख का स्रोत भी बना।*

विष्णुभट उस समय के बहुत कम व्यक्तियों में थे जो कुछ थोड़ा पढे-लिखे थे। अपने कुल और पेशे की वजह से उन्हें, ऐसे मुश्किल दौर में भी – स्वतन्त्रता-सेनानियों, दोनों पक्षों के शासकों-सामंतों और अँग्रेजी सेनानायकों से  मदद मिली। भावनाओं के ज्वार वाले इस निर्णायक समय में – सड़क से राजभवनों तक की घटनाओं तक उनकी पहुँच थी, वह चश्मदीद गवाह भी थे। उनके समय ने उन्हें मौका दिया था कि संवेदनशील दृष्टि से वह स्वतन्त्रता-संग्राम के कारणों, लोगों की दुख-तकलीफ़ों, सेनानियों की उम्मीदों-बलिदानों का, एक भारतीय की दृष्टि से सजीव विवरण प्रस्तुत कर सकें। उनका विवरण क्रांति-कालीन समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक सरोकारों का दस्तावेज़ हो सकता था।

मऊ छावनी के सैनिक विद्रोह और रानी लक्ष्मी  बाई के उदार व्यक्तित्व,वीरता और प्रबंध-कौशल के बारे में उनके द्वारा उपलब्ध जानकारी महत्वपूर्ण है। लेकिन जन-मन को उद्वेलित करने वाले और इतिहास बदल देने वाले इन प्रसंगों में उनका मन कम लगा है। इन प्रसंगों को उन्होंने बड़े निस्पृह भाव से ‘किस्सों’ की तरह बयान किया है।

अब विष्णुभट की आपबीती पर आएँ। उनके कुछ कथन, उनकी समझ-मानसिकता स्पष्ट करने के लिए यथासंभव उद्धरणों में रखे गए हैं। यात्रा और अन्य सुपरिचित ऐतिहासिक विवरणों को संक्षिप्त रखा गया है।   मेरी कुछ टिप्पणियाँ कोष्ठकों में हैं।

विष्णुभट (जन्म 1828 ई॰) मुंबई के पास रायगढ़ जिले के वरसई गाँव के (उच्च माने जाने वाले) चितपावन ब्राह्मण थे।  फरवरी 1857 में उन्हें पता चला कि ‘हिंदुस्तान’ (यानि उत्तर भारत) में ग्वालियर की राजमाता (यानि,1857 के युद्ध में ‘अंग्रेजों के मित्र सिंधिया’) बायजाबाई मथुरा में बड़ा यज्ञ करवा रही हैं, जिसमें ब्राह्मणों को अच्छी दक्षिणा मिलने की उम्मीद थी। इस अनुष्ठान के दानाध्यक्ष (पंडितों के चयन के प्रभारी) बालकृष्ण वैशम्पायन जी विष्णुभट के रिश्तेदार थे। उन्हें पत्र लिखा गया और विष्णुभट, चाचा रामभट और एक अन्य  रिश्तेदार  कर्वे ईनामदार को निमंत्रण मिल गया। ‘कुछ द्रव्य’ (यानि धन) अर्जित करने के लिए’ विष्णुभट और साथी बैलगाड़ी से यात्रा पर निकल पड़े।

महू की सैनिक छावनी से तीन दिन की दूरी पर अपने पड़ाव के दौरान, उत्तर भारत से अपने गाँव की तरफ आ रहे दो सिपाहियों से पहली बार, विष्णुभट और साथियों को सिपाही विद्रोह की सुगबुगाहट का पता चला। गाय-सुअर की चर्बी वाले कारतूसों, कलकत्ता में ‘एक ब्राह्मण सिपाही और एक चमार के बीच’ इस बारे में बहस और विद्रोह की योजना का पता चला। तीन दिन बाद, महू छावनी से एक मील की दूरी पर, उन्होंने छावनी में आगजनी, मारकाट और विद्रोहियों का कब्जे की घटनाएँ खुद देखीं।  फिर उन्हें विद्रोहियों ने पकड़ लिया और उनकी पोथियाँ देखकर अपने आश्रय में ले लिया। लेकिन ये लोग क्रांतिकारियों के साथ यात्रा करने में असहज महसूस कर रहे थे! विद्रोहियों ने उनका अनुरोध मान लिया, उनकी उज्जैन तक की यात्रा की व्यवस्था कर दी और ‘प्रत्येक को दो-दो रुपये दक्षिणा’ भी दी। मऊ के सैनिक विद्रोह का विवरण एक आँखों देखे ऐतिहासिक स्रोत के तौर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि अन्य स्रोतों-दस्तावेजों में इसका उल्लेख प्रायः नहीं है।

उज्जैन में चाचा-भतीजे को वैशम्पायन जी का संदेश मिला कि चारों ओर अशांति है, अतः यात्रा स्थगित कर दें। पाँच-छह दिन उज्जैन रह कर वे धारा नगरी (आजकल मध्यप्रदेश का धार शहर) के लिए चल दिए। वहाँ के राजा का उस दौरान निधन हुआ था और क्रिया-कर्म में बहुत सारा धन खर्च किए जाने की सूचना थी। ‘कुछ द्रव्य प्राप्त करने की आशा में’ ये लोग धारा नगरी पहुंची। वहाँ उन्होंने ‘महादान’ का भव्य समारोह देखा।  दान-दक्षिणा मिली। ‘कुछ ब्राह्मणों को द्रव्य और वस्त्रों के अलावा एक-एक दासी भी दान में दी गई।‘

इसी बीच उन्हें वैशम्पायन जी से थोड़ी शांति होने और ‘शिंदे सरकार के सिपाहियों के साथ’ आगे चले आने का संदेश मिला। पंडित-समूह चल पड़ा। ( इससे पहले, क्रांतिकारियों के संरक्षण में आने में ये लोग असहज थे।)

स्थितियाँ बिगड़ने से यज्ञ टल गया पर ये लोग पूरे सत्कार के साथ ग्वालियर में टिकाये गए। इस बीच क्रांतिकारी तात्या टोपे द्वारा सिंधिया से जबरन वसूली का विवरण है। यहाँ से पंडित-समूह झांसी पहुंचा। झांसी में भी, रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत तांबे से विष्णुभट के ‘काका’ रामभट के पुराने परिचय की वजह से इनकी रानी से भेंट हो गई और ऐसे कठिन दौर में भी इनके ससम्मान रहने-खाने की व्यवस्था हो गई। विष्णुभट ने कानपुर, झांसी और इस क्षेत्र की 1857 के दौर की सुपरिचित घटनाओं का विस्तृत विवरण दिया है जो यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पुस्तक के एक अध्याय का नाम ही ‘झांसी वर्णन’ है जिसमें रानी की वीरता, प्रबंध-कौशल, दानी प्रवृति और अंग्रेजों के साथ लड़ाइयों और उनके वीरगति पाने के विवरण हैं।

पर एक और क्षेत्र के विस्तृत विवरण में विष्णुभट का मन रमा है – एक शास्त्री जी द्वारा एक सफाईकर्मी (उनके द्वारा एक भद्दे जातिसूचक शब्द का प्रयोग) की 14 वर्ष की कन्या के  चोरी-छिपे ‘उपभोग’ की घटना; फिर उस कन्या का  अन्य ‘लालायित’ ब्राह्मणों द्वारा भी भोग, शास्त्री जी की सलाह पर कन्या द्वारा उन सभी ब्राह्मणों के जनेऊ एक मटके में संभाल लेना और पूछ-ताछ  होने पर सभी का भेद खुल जाना। पंडितजी की शब्दावली से लगता है कि वे कामशास्त्र की पुस्तकों के अच्छे जानकार हैं। वह झांसी में कुटनियों यानि व्यभिचार कराने में सहायक महिलाओं की ख़ासी मौजूदगी बताते हैं।

रानी की पराजय के बाद झांसी में पंडित जी के बुरे दिन आए। रूखा-सूखा खाना मिला पर यहाँ भी वह एक मार्के की बात ज़रूर बताते हैं कि कैसे उन्हें एक रात एक तरुणी के साथ चिपक कर बितानी पड़ी। लक्ष्मीबाई से पूरा सम्मान मिलने और उनकी वीरता तथा कौशल से सुपरिचित होने के बावजूद, झांसी-प्रसंग पर उनकी टिप्पणी है – ‘अबला यत्र प्रबला, बालो राजा, निरक्षरी मंत्री। नहि तत्र धन आशा, जीवित आशापि दुर्लभा भवति।‘

रानी के निधन और वीर क्रांतिकारियों के बलिदानों के दुख भरे दौर के करीबी गवाह रहे विष्णुभट ब्रह्मावर्त (बिठूर) पहुंचे। बहरहाल,यहां ‘जीवन में पहली बार भागीरथी गंगा का दर्शन कर उन्हें  ऐसा आनंद हुआ जैसा जीवन में पहले कभी नहीं हुआ….जन्म सार्थक हो गया।‘

बिठूर में पता चला कि चित्रकूट में श्रीमंत नारायणराव और माधवराव पेशवा कुछ अनुष्ठान कर रहे हैं, ’द्रव्य मिलने की आशा है।‘ पंडित जी चित्रकूट पहुंचे।

पर इस बीच पेशवा को ही अंग्रेजों ने कैद कर लिया। पंडित लोग  इसके बाद अयोध्या,काशी और प्रयाग गए। प्रयाग से काँवड़ में गंगाजल लिया  ताकि उसे घर ले जाकर माता-पिता को स्नान कराने का बड़ा पुण्य मिले। काँवड़ ले जाने पर खान-पान के कड़े नियमों, जिनमें नंगे पैर चलना भी शामिल था, का पालन करते हुए आगे बढ़े। चूंकि विष्णुभट शांडिल्य गोत्र के थे अतः नर्मदा तट पर शांडिल्य ऋषि के आश्रम पर भी गए। खान-पान का निषेध था, पर आँखें तो अपनी थीं। विष्णुभट बताते हैं,’यहाँ पाँच से सौ वर्ष तक की सब स्त्रियाँ नदी में उतार कर निसंकोच स्नान करती हैं… नजदीक पुरुष-मंडली हो तब भी उनके मन में कोई विकार पैदा नहीं होता… बड़ी मौज देखने को मिली….’

हालांकि, घर से निकलते समय विष्णुभट के पिता ने ‘हिंदुस्तान’ के बारे में आगाह किया था कि वहाँ ‘लोग भांग पीस कर खाते हैं और उधर की स्त्रियाँ अपने चातुर्य से पुरुष को वश में कर लेती हैं।‘ विष्णुभट ‘स्त्रियॉं के नेत्र-कटाक्षों में नहीं आने’ का वादा करके आए थे।

इसके बाद इंदौर में (अंग्रेजों के सहयोगी) होल्कर के एक सरदार द्वारा आयोजित अनुष्ठान में, उन्हें कुछ और ‘द्रव्य’ मिला।

आखिरकार, विष्णुभट घर आए – ऐसे ऐतिहासिक दौर के गवाह बनकर। पर ‘माझा प्रवास’ में उनका निष्कर्ष है – ‘द्रव्य प्राप्त करना बहुत कठिन है, मिले तब भी उसका संरक्षण कठिन है…अनेक तरह के सुख-दुख भोग कर घर लौटा तो हाथ में कोई द्रव्य नहीं…’

तो माया मिली ना राम की शैली में उन्होंने अपना निष्कर्ष तो दे दिया किन्तु ये समझ पाना सचमुच मुश्किल है कि समाज में अपनी आँखों के सामने हो रही इतनी उथल-पुथल के बावजूद विष्णुभट इतने निस्पृह कैसे बने रहे! क्या इसका कारण ये हो सकता है कि उनके मन में उस समय जिस भूखंड में ये सब हो रहा था, उससे कोई लगाव ना था। लेकिन फिर भी ये आश्चर्यजनक तो है ही कि जहां आप धार्मिक अनुष्ठानों में हो रहे दान-पुण्य का लाभ उठाने उन्हीं के शब्दों में “द्रव्य की आशा” में इतनी लंबी यात्रा बैलगाड़ी पर करके जा सकते हैं, वहाँ महिलाओं के युद्ध में उतरने की घटनाएँ आपको उद्वेलित नहीं करती (केवल उनके निर्वस्त्र पानी में उतरने से आप आहलादित होते हैं और अपने लेखन में बाकायदा ज़िक्र करते हैं)। क्या ये केवल विष्णुभट नामक व्यक्ति की ही विशेषता मानी जाये या फिर ये उस समय “द्रव्य  की आशा” वालों का युग-धर्म ही हो गया था? क्या यह विष्णुभट की कथा है या अपने ही खोल में सिमटे रहने और समय से पूरी तरह अप्रभावित जड़ता की कथा भी  है!!    

 *यह लेख हिन्दी विज्ञान-लेखन के शिखर-पुरुष, वैज्ञानिक मानसिकता के प्रसार तथा तमाम तरीकों के पाखंड के अंधेरे के विनाश के लिए समर्पित श्रद्धेय   गुणाकर मुले के आजकल (प्रकाशन विभाग, सूचना-प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार की पत्रिका)  के मई, 2007 में प्रकाशित लेख, और समय-समय पर उनसे प्राप्त ज्ञान-आशीर्वाद पर आधारित है।

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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