आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के अगस्त 2022 अंक के लिए लिखा गया।
इस वर्ष हम अपनी स्वतन्त्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। यों तो रस्मी तौर पर 15 अगस्त और 26 जनवरी को सरकारी स्तर पर काफी कुछ किया जाता है, सार्वजनिक छुट्टी भी होती है किन्तु व्यक्तिगत स्तर पर आम आदमी की हिस्सेदारी बढ़ाने के उद्देशय से इस बार सरकार की ओर से आग्रह है कि सभी लोग अपने घरों पर तिरंगा लहरा कर आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाएँ। सरकार का मानना है कि अभी तक तिरंगे और आम आदमी का रिश्ता बहुत औपचारिक और संस्थागत रूप में ही रहा है जबकि इस रिश्ते को व्यक्तिगत स्तर पर भी होना चाहिए ताकि हर व्यक्ति राष्ट्र-निर्माण मेँ काम में अपनी हिस्सेदारी माने।
बहरहाल, आप इस महोत्सव में कैसे हिस्सेदारी करते हैं, यह आपके उत्साह और रुचियों पर निर्भर करेगा, हम इस बार इस स्तम्भ का इस्तेमाल देश की आज़ादी के बाद की उपलब्धियों और देश के सामने बचे पड़े कामों पर एक दृष्टि डालने के लिए करेंगे।
दरअसल आज़ादी के बाद देश की प्रगति के लिए क्या हुआ और क्या-क्या अधूरा छूट गया जो नहीं छूटना चाहिए था, इस बात को सभी लोग अपने-अपने राजनीतिक चश्मे लगाकर देखते हैं। 2014 के बाद से आई मोदी सरकार की तरफ से यह आम सुनने में आता रहता है कि सत्तर साल में यह भी नहीं हुआ, वह भी नहीं हुआ लेकिन दूसरी तरफ क्या-क्या अच्छा हुआ गिनवाने वाले जब गिनवाते हैं तो वह लिस्ट भी काफी ‘इम्प्रैसिव; लगती है।
स्वतन्त्रता की 75वीं वर्षगांठ पर यह याद करना उचित ही होगा कि उस समय हमारे देश में अनुमानित औसत आयु केवल 31 वर्ष थी जबकि 2005 तक यह बढ़कर 64 वर्ष हो गई। साक्षरता की दर 1947 के 12 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 74% हो गई। लेकिन आगे के लिए काम भी साथ-साथ गिनवाने हों तो आपको बता दें कि औसत आयु 64 वर्ष हो जाने के बावजूद हम विकसित देशों से तो पीछे हैं ही, इंडोनेशिया (68 वर्ष) और चीन (72 वर्ष) जैसे देशों से भी पीछे हैं। इसी तरह साक्षरता के मामले में जहां देश ने 12% से 74% की लंबी छलांग लगाई है, वहीं यह भी याद रखना ज़रूरी है कि निरक्षर लोगों की सबसे बड़ी संख्या भारत में ही है और उसमें भी चिंताजनक बात ये है कि महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत और भी कम है।
स्वतन्त्रता के बाद देश को पंडित नेहरू के रूप में एक आधुनिक और वैज्ञानिक सोच वाले प्रधानमंत्री मिले जिन्होंने देश में आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे विश्वस्तरीय संस्थानों की स्थापना करवाई और देश में उच्च शिक्षा की नींव डाली जो आज तक देश के काम आ रही है। इसके अलावा उनको इस बात का भी श्रेय दिया जाना चाहिए कि उस समय जब भारत बिलकुल ही गरीब देशों की श्रेणी में आता था, उन्होंने देश में अंतरिक्ष और अणु ऊर्जा के संबंध में अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए संस्थान बना दिये और आज अगर हम इन क्षेत्रों में विश्व के अग्रणी देशों में शामिल हैं तो यह उस समय रखी गई मजबूत नींव के कारण ही है।
स्वतन्त्रता के उपरांत की उपलब्धियों में एक सबसे बड़ी उपलब्धि है देश का खाद्यानों के संबंध में ना केवल आत्मनिर्भर हो जाना बल्कि 1980 के दशक के मध्य तक हम खाद्यानों के मामले में ‘सरप्लस’ हो गए थे। इसी तरह स्वतन्त्रता के उपरांत बड़े एवं भारी उद्योगों की गहरी नींव भी पंडित नेहरू ने डाली और इस प्रकार देश को भविष्य के लिए तैयार किया।
अब अगर हम अधूरे पड़े कामों की चर्चा कर लें तो वो भी कुछ कम नहीं हैं। सबसे बड़ी चिंता की बात तो ये है कि करोड़ों लोगों के गरीबी रेखा के ऊपर आ जाने के बावजूद हमारे देश में बहुत बड़ी संख्या में अभी भी ऐसे लोग हैं जो घोर गरीबी में जी रहे हैं और जिनके पास अगले कुछ दिनों का खाना आएगा कि नहीं, इसकी अनिश्चितता बनी रहती है। केंद्रीय और राज्य सरकारों द्वारा चलाये जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि आज कोई भूखा नहीं सोया होगा।
गरीबी से जल्दी मुक्ति इसलिए संभव नहीं लग रही कि देश में बेरोज़गारी का स्तर बहुत ही चिंताजनक हो चुका है और इस समय बेरोज़गारी की दर आजादी के बाद की सबसे ज़्यादा दर (सात से आठ प्रतिशत के बीच) है। अगर संख्या में बात करें तो देश में इस समय लगभग पाँच करोड़ लोगों के बेरोज़गार होने का अनुमान है। कुछ वर्ष पूर्व तक सरकार और सरकारी उपक्रम रोजगार देने का बड़ा साधन बनते थे किन्तु आधुनिकीकरण के कारण और बहुत से सरकारी उपक्रम निजी क्षेत्र को सौंप दिये जाने के कारण उसमें अब भारी कमी आई है। यहाँ तक कि सेना और रेलवे – ये दोनों सरकारी क्षेत्र के रोजगार देने के सबसे बड़े केंद्र होते थे, अब भर्ती के मामले में बहुत मंथर गति से चल रहे हैं।
यदि गरीबी और बेरोज़गारी का यही हाल रहा तो क्या सरकारों के लिए ऐसी जन-कल्याणकारी योजनाओं को बंद करना सम्भव होगा जिन्हें हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने “फ्रीबीज़” (मुफ्त का माल) कहा है और जिन पर सवालिया निशान लगाया है? प्रधानमंत्री मोदी ने भी पिछले दिनों वोटों के लिए मुफ्त की रेवड़ियाँ बांटने पर आपत्ति की है हालांकि उनके विरोधियों ने भाजपा सरकारों द्वारा दी जा रही छूटों की याद दिलाई और यह भी कहा कि उद्योगपतियों के तो सैंकड़ों-हजारों करोड़ रुपए या तो माफ कर दिए जाते हैं और या उनके द्वारा हड़पी गई रकम को अनदेखा कर दिया जाता है और गरीबों को दी गई सुविधाओं को मुफ्त की रेवड़ियाँ बताया जाता है।
बहरहाल, अगर हम संक्षेप में कहें तो कहना होगा कि जहां हमारे देश ने स्वतन्त्रता के उपरांत बहुत सारी उपलब्धियां हासिल की हैं, वहीं अभी हमारे सामने शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्धनता-उन्मूलन के क्षेत्र में बहुत बड़ी चुनौतियाँ बाकी हैं और देशवासियों को जाति और धार्मिक विवादों में अपने को उलझाने की बजाय राष्ट्र-निर्माण के काम में अपना योगदान देना चाहिए। और राष्ट्र-निर्माण का कार्य किसी एक अकेले राजनीतिक दल या किसी एक कट्टर विचारधारा के बस की बात नहीं है, उसके लिए हमें देश में सर्वानुमती का माहौल बनाना होगा और यहीं हमें गांधी की ज़रूरत पड़ेगी। इस बार इतना ही।
…….विद्या भूषण