बेहतर स्थिति का इंतज़ार

आखिरी पन्ना

आखिरी पन्ना’ उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के सितम्बर 2019 अंक के लिए लिखा गया।

कहने को तो यूँ काफी कुछ है लेकिन सच कहें तो कुछ उत्साह सा ही नहीं होता। छोटी-छोटी लगने वाली बातें भी इतनी बड़ी होती हैं कि उनके कारणों और निवारण के उपायों पर लिखा जाये तो पूरी पोथी लिखी जा सकती है या पूरी फिल्म बन सकती है। कहीं आम आदमी की कोई सुनवाई ना होने के किस्से हैं तो कहीं ताकतवर लोगों द्वारा महिलाओं के शोषण के मामले हैं और कहीं न्यायिक प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान लग रहे हैं।

आज जब उत्तरांचल पत्रिका के सितंबर अंक के लिए आखिरी पन्ना स्तम्भ लिखने बैठा हूँ तो सामने टेलीविज़न पर खबर आ रही थी कि पटना हाई-कोर्ट के एक माननीय न्यायाधीश ने अपने एक फैसले में यह लिख दिया है कि राज्य के भ्रष्ट अधिकारियों को न्यायालय के उच्च पदस्थ अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त है। खबर के अनुसार उनका इशारा अपने ही साथियों की ओर था। इसमें और कोई डिटेल्स नहीं थीं, शायद कल की अखबारों में कुछ हो।

“लोअर जूडिशयरी” या ज़िला स्तर के अधीनस्थ न्यायालयों में भ्रष्टाचार व्याप्त होने की समस्या पर कई भूतपूर्व जजों और अन्य उच्च-पदस्थ लोगों ने चर्चा की है लेकिन केंद्र सरकार ने इस बारे में हाथ झाड लिए हैं। वर्ष 2017 के शीतकालीन अधिवेशन में एक सवाल के जवाब में स्वयं कानून राज्य मंत्री ने ये स्वीकार किया कि सरकार के पास “लोअर जूडिशयरी” के विरुद्ध शिकायतें तो आती हैं किन्तु केंद्र सरकार के हाथ बंधे हैं। “लोअर जूडिशयरी” राज्य के उच्च न्यायालयों के अंतर्गत काम करती है और यदि किसी किस्म का कोई नियंत्रण हो सकता है तो वो राज्य सरकारों का होता है।

आज जब यह स्तम्भ लिखा जा रहा है तो इकॉनॉमिक टाइम्स में एक खबर छपी है जिसके अनुसार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने केंद्र सरकार को पत्र लिखा है कि देश भर के कई हाई-कोर्ट्स में जजों की जगहें खाली पड़ी हैं। न्याय एवं कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को लिखे अपने पत्र में उन्होंने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम जिन 43 नामों की मंजूरी दे चुका है, सरकार वो सभी स्थान तुरंत भरने चाहिए। खबर में सूत्रों के हवाले से ये भी लिखा है कि मुख्य न्यायाधीश ने ये भी कहा है कि ये ‘वेकेंसीज़’ या रिक्त पद बढ़ते जाएँगे क्योंकि हर साल पाँच-छ: जज रिटायर भी होते रहेंगे। स्वाभाविक है कि जब प्रदेशों में उच्च-न्यायालयों में इतनी जगहें खाली होंगी तो उनके लिए अधीनस्थ ज़िला न्यायालयों पर निगाह रखने का कहाँ समय होगा?

आज ही की खबरों पर चर्चा जारी रखें तो टेलीविज़न पर ही एक और खबर आ रही है जिसके अनुसार उत्तर प्रदेश में मथुरा के एक थाने में एक दंपत्ति ने अपने को इसलिए आग लगा ली कि इलाके की पुलिस कुछ दबंगों के खिलाफ उनकी शिकायत पर सुनवाई नहीं कर रही थी। दंपत्ति का आरोप था कि इलाके का इंस्पेक्टर द्बंगों के साथ मिला है और इसलिए उनकी शिकायत पर ध्यान नहीं दे रहा। बाद में स्वयम राज्य के डीजीपी ने कैमरे के सामने बताया कि यह दबंग महिला को भी परेशान कर रहे थे और इसके बावजूद इलाका पुलिस ने ध्यान नहीं दिया। दंपत्ति को गंभीर अवस्था में दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराया गया है। अब उच्चाधिकारी मामले की जांच करेंगे लेकिन पता नहीं उससे इन बेचारे पति-पत्नी की जान बच पाएगी या नहीं?

उधर यह लिखे जाने तक उत्तरप्रदेश की शाहजहाँपुर की उस लड़की के गायब होने की गुत्थी अभी तक उलझी हुई है क्योंकि जहां लड़की ने एक तरफ भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानन्द पर यौन शोषण का आरोप लगाया है और यह कहा है कि उसके पास प्रमाण भी हैं, वहीं स्वामी कह रहे हैं कि उन्हें पाँच करोड़ फिरौती की मांग आई है। उस लड़की के दिल्ली में किसी लड़के के साथ सीसीटीवी फुटेज में देखे जाने की बात भी पुलिस ने बताई है। हो सकता है कि जब तक आपके हाथ में ये अंक आए, सच्चाई सामने आ जाएगी लेकिन चिंता की बात तो ये हर तरफ से है।

एक और पागलपन आजकल चल रहा है जिसे रोकने में अगर हम-आप कुछ भी कर सकें तो करना चाहिए, वो मामला है बच्चा-चोरी के शक में गरीब लोगों पर भीड़ द्वारा जानलेवा हमलों का पागलपन। चंद रोज़ पहले ऐसी खबरें बिहार के कुछ क्षेत्रों से आ रही थीं लेकिन अभी दो एक दिन से तो पश्चिम उत्तरप्रदेश से ऐसे कई मामले आ रहे हैं जिनमें किसी ना किसी निर्दोष को भीड़ पकड़ कर पीट रही है। कुछ मामलों में तो जान तक चली गई है जबकि बाकी मामलों में पुलिस के बचाए जाने से पहले वो बुरी तरह से घायल हो चुके होते हैं।

उपरोक्त घटना को साधारणत: हम आखिरी पन्ना का विषय ना बनाते लेकिन हमारी चिंता ये है कि कहीं हमारा समाज हिंसा की तरफ ज़्यादा तो नहीं झुकता जा रहा? कभी तो हम गौ-रक्षक बनकर कानून अपने हाथ में लेकर लोगों की जान ले रहे हैं तो कभी बच्चा-चोरों को ढूंढ-ढूंढ कर पीटते हैं। क्या हो गया है हमें एक समाज के तौर पर?

ज़रा गहराई से देखा जाये तो हमारा समाज आजकल कितने तनावों में जी रहा है – कहीं दलित समाज दिल्ली में संत रविदास का मंदिर गिराए जाने को लेकर बुरी तरह उद्वेलित है तो कहीं मुस्लिम अपने को असुरक्षित समझ रहे हैं। कश्मीरी अपनी जगह परेशान हैं क्योंकि वहाँ अभी तक भी पाबंदियाँ जारी हैं।  हालांकि कश्मीर कोई नया मसला तो है नहीं लेकिन इस बार ये बिलकुल नई तरह से सामने आया है। हमें दुआ करनी चाहिए कि जल्दी से जल्दी हालात सामान्य हों और आम कश्मीरी अपने बाकी देशवासियों की तरह अपनी नॉर्मल जिंदगी बसर कर सके।

उधर असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) के तहत विदेशियों को चिहन्ने का काम ऐसा हो रहा है कि दो-दो पीढ़ियों से रह रहे लोगों को भी विदेशी ठहरा दिया गया है जिनमें ऐसे लोग भी सामने आ रहे हैं जो बीएसएफ़ और आर्मी में भी नौकरी करते हैं। इसके अलावा ये किसी को भी नहीं पता कि जिन लोगों को हमने विदेश ठहरा भी दिया और कैंपों में ले आए तो उनका आगे क्या होगा? बांग्लादेश ने तो ये स्पष्ट कर दिया है कि वह एक भी आदमी को वापिस नहीं लेगा क्योंकि उसका दावा है कि ये उसके नागरिक हैं ही नहीं। 31 अगस्त को एनआरसी का फ़ाइनल ड्राफ्ट जारी होना है, देखने की बात ये है कि उसके बाद होगा क्या इन लोगों का?

क्या उम्मीद करें कि अगली बार जब आखिरी पन्ना लिखा जा रहा होगा तो हम कुछ बेहतर स्थिति में होंगे?

(29 अगस्त को लिखी गई ये पोस्ट)

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