गाँधी गौ-रक्षकों से क्या कहते?

आखिरी पन्ना

आखिरी पन्ना’ उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के अक्तूबर 2019 अंक के लिए लिखा गया।

जब तक आपके हाथों में उत्तरांचल पत्रिका का यह अंक होगा, उसके आस-पास ही आप महात्मा गांधी की 150वीं जन्म-शती मनाए जाने की खबरें पढ़ रहे होंगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि हमें ये अंदाज़ है कि इन  दिनों आपने गांधी पर काफी कुछ पढ़ा-सुना होगा और आने वाले दिनों में भी ये क्रम जारी रहेगा। लेकिन इसके बावजूद इस स्तंभकार को ये ज़रूरी लग रहा है कि वह अपनी बात भी कहे – चाहे वह पहले इसी स्तम्भ में कही गई बातों का या फिर अन्यत्र किसी और द्वारा कही गई बातों का दोहराव ही क्यों ना हो!

सबसे पहली बात तो यह कही जानी चाहिए कि गांधी पर आप कुछ कहने की ज़िद्द करें और वो भी करीब 900-1000 शब्दों में तो फिर आप गंभीर नहीं हैं। इसका जवाब ये है कि आज ज़रूरत है कि गांधी के बारे में हम लगातार बात करें और जितनी हो सकें करें ताकि महात्मा सिर्फ ‘स्वच्छता’ के प्रतीक बनकर ना रह जाएँ बल्कि वो जो हैं, वो गांधी नई पीढ़ी के सामने आयें। साथ ही हम ये भी कहना चाहेंगे कि गांधी के खिलाफ जिस तरह विष उगला जाता रहा है, वो किन लोगों की प्रेरणा से होता है, उसका भी बीच-बीच में खुलासा होता रहना चाहिए ताकि नई पीढ़ी के सामने पूरी तस्वीर हो।

आज हम जब गांधी पर बात करेंगे तो अपने को केन्द्रित करने का प्रयास करेंगे सांप्रदायिकता के मुद्दे पर क्योंकि आज देश में जिस तरह का माहौल है, उसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कई तरह के हमलों के अलावा सांप्रदायिक माहौल का खराब होना बड़ा मुद्दा है।

गांधी हिंदुओं और मुसलमानों को भारत-माता की दो आँखों की तरह मानते थे। वह इसी कारण भारत विभाजन के विरोधी थे। अंतिम समय तक उन्होँने अपने इस प्रयास में कांग्रेस के नेताओं को साथ लेने की कोशिश की लेकिन ब्रिटिश हुकूमत, मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग और उनकी ज़िद्द के चलते कांग्रेस के बड़े नेता भी गांधी जी की घोर अनिच्छा के बावजूद विभाजन को राज़ी हो गए। गांधी जी ने उसी समय ये पहचान लिया था कि सांप्रदायिकता की ये जो समस्या अभी देश के भीतर है, देश के बंट जाने से हम उसका अंतर्राष्ट्रीयकरण कर रहे हैं।

गौ-रक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा मुसलमानों को पीट-पीट कर मार दिये जाने की जो घटनाएँ पिछले कुछ वर्षों में ज़्यादा बढ़ गईं हैं, देश के लिए नई नहीं हैं। गांधी जी ने अपने अखबार यंग इंडिया में 1921 में ही लिखा था – गौ-रक्षा के प्रयास में हिंसा करना तो हिन्दू धर्म को शैतानी रूप देना है”। इसी लेख में गांधी आगे लिखते हैं कि मैंने सुना है कि कई बार पशु मेलों से गाय या यहाँ तक कि बकरियाँ ला रहे मुसलमानों से उनके जानवर बल-प्रयोग द्वारा छीन लिए जाते हैं। ऐसे लोग जो हिन्दू होने का दावा करते हैं, और हिंसा और बल-प्रयोग का इस्तेमाल करते हैं, वो हिन्दू धर्म और गाय के शत्रु हैं”।

जैसा कि पहले भी हमने इस स्तम्भ में कई बार चर्चा की है कि देश में हर समय तनावपूर्ण माहौल बनाए रखने को कभी भी देश-हित में नहीं कहा जा सकता। पिछले पाँच वर्षों में सरकारी पार्टी या आरएसएस के किसी संगठन से जुड़ा कोई ना कोई पदाधिकारी ऐसा कोई ब्यान सार्वजनिक तौर पर देते ही रहते हैं जिससे गांधी जी के हत्यारे नाथुराम गोडसे का महिमा-मंडन होता है। अभी इंदौर के एक भाजपा पदाधिकारी ने ब्यान दिया कि गोडसे की पिस्तौल नीलाम कर के देख ली जाये और तब पता चल जाएगा कि गोडसे देशभक्त था या नहीं।

कुल मिलाकर ये कि भाजपा सरकार के तौर पर गांधी जी को चाहे स्वच्छता के नाम पर हड़पना चाहे और सरकारी कार्यक्रमों में गांधी का नाम आता रहे, भाजपा और आरएसएस के अनुयाइयों के मन में गांधी के लिए कोई श्रद्धा नहीं है। यदि होती तो किसी में हिम्मत नहीं हो सकती थी कि उन्हीं के बीच के लोग गोडसे की नाम की माला जपें। भोपाल से सांसद चुनी गई प्रज्ञा ठाकुर द्वारा गोडसे को देशभक्त कहे जाने पर जवाब मांगने का दिखावा किया गया किन्तु उसके बाद किसी को याद नहीं कि उस मामले पर आखिर क्या अनुशासनात्मक कार्यवाही हुई।

सच बात तो ये है कि भाजपा हिन्दू हितों के नाम पर ही 1980 की दो लोकसभा सीटों से बढ़कर आज 300 से भी ज़्यादा सीटों पर पहुँच गई और उसकी इस बात में कोई रुचि नहीं है कि देश गांधी के सर्व-धर्म-सद्भाव और धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांतों पर चले। एक और सच ये है कि आज देश में ऐसी स्थिति बन गई है कि गांधी किसी भी तरह से आपके वोट-बैंक पर असर नहीं डाल सकते बल्कि अपने छोटे-मोटे नेताओं द्वारा उनको बुरा-भला कहलवा कर आप दिग्भ्रमित हिंदुओं का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण ही कर लेते हैं।

और तो और दलित जिनके लिए गांधी ने बाद के वर्षों में इतना कड़ा स्टैंड लिया कि वह केवल ऐसे विवाह में शामिल होते थे जो अंतरजातीय होते थे और अपना विशेष आशीर्वाद तभी देते थे जब वर-वधू में एक दलित हो, आज दलित नेता भी गांधी के कड़े आलोचक हैं। आशय यह कि सवर्ण हिन्दू और दलित दोनों ही गांधी के आलोचक हैं तो वोट-बैंक पर तो गांधी की आलोचना को कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। कम्युनिस्ट भी हाल के वर्षों तक गांधी का बहुत मज़ाक उड़ाते थे लेकिन हाल के वर्षों में उन्होँने अपनी इस पोज़ीशन का पुनर्मूल्यांकन किया है और अब कई बड़े कम्युनिस्ट नेता गांधी के प्रशंसक हो गए हैं।

लेकिन इस सबके बावजूद गांधी का महत्व कम नहीं हो जाता – ये तो हम बौनों के युग में रह रहे हैं जहां क्षुद्रता (टुच्चापन) सब पर हावी है अन्यथा विश्व के बड़े बड़े नामी विचारक अब यही मानते हैं कि आने वाले वर्षों में सिर्फ भारत नहीं बल्कि पूरे विश्व को गांधी की ओर लौटना होगा।

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