धर्म बचाने के नाम पर गोलबंद हो रहे हैं लोग

आखिरी पन्ना

आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के अप्रैल 2022 अंक के लिए लिखा गया।

पिछले दिनों इस स्तंभकार को लगने लगा है कि जिस तरह आत्मा अजर-अमर होती है और कभी नहीं मरती, उसी तरह एक लेखक की लिखने की इच्छा भी कभी नहीं मरती। आप यकीन करें कि जब इस स्तंभकार ने यह तय किया था कि अब वह आखिरी पन्ना नहीं लिखेगा तो उसे दूर-दूर तक ऐसा नहीं लग रहा था कि एक दिन वो खुद ही जोशी-दंपत्ति के पास लौटेगा और कहेगा कि मुझे फिर से आखिरी पन्ना लिखना है – फिर से! जोशी-दंपत्ति का एक सीक्रेट बता दूँ कि अगर आप इन्हें कह दें कि आपको नहीं लिखना तो ये चुप रह जाते हैं – आकाश जोशी भी और दीपा जी भी! इतना तक भी नहीं पूछते कि क्यों नहीं लिखना भाई – क्या बात हुई! हर बार की तरह इस बार भी जब ये स्तंभकार वापिस लौटा और अपना स्तम्भ वापिस मांगा तो इन्होंने उसी शांत भाव से कहा, ‘हाँ भेजिये ना लेकिन ज़रा जल्दी – पूरा अंक तैयार है, आप लिख रहे हैं तो इसलिए रुके हैं।’ मुझे ऐसा लगा कि शायद मुझसे ज़्यादा इन्हें मालूम था कि मैं कब वापिस आने वाला हूँ!

आखिरी पन्ना में कुछ है, कुछ ऐसा कि जो इस स्तंभकार को बार-बार आपके पास वापिस भेज देता है। यूं तो इस नाचीज़ को उत्तरांचल पत्रिका के अलावा भी इक्का-दुक्का मंच उपलब्ध हैं और उनमें से एक-आध तो सांसरिक रूप में ज़्यादा जाने वाले हो सकते हैं किन्तु जो आनंद मुझे आखिरी पन्ना लिखने में आता है, वह अन्यत्र आसानी से उपलब्ध नहीं है। यहाँ का खुलापन, अभिव्यक्ति की सचमुच की स्वतन्त्रता और बेलाग अपनी बात कहने की आज़ादी मुझे सिर्फ यहीं उपलब्ध है, इसीलिए आपका यह पंछी इसी जहाज़ पर लौट आता है (जैसे उड़ी जहाज को पंछी, पुनि जहाज पर आवे)।

इतना लंबा ब्रेक लेने का या ना लिखने का कारण जोशी-दंपत्ति चाहे ना पूछना चाहें (और फिर हम भी उन्हें क्यों बताएं) लेकिन क्या हम अपने पाठकों को बिना बताए रह सकते हैं? बिलकुल नहीं! अरे पाठकों से यही जो ‘कनेक्ट’ है, यहां उनके साथ जो सब शेयर करने की छूट है, उसी के चलते तो यह इतना मुश्किल हो जाता है कि हम आखिरी पन्ना स्तम्भ से लंबे समय तक नाता तोड़ रखें! तो फिर इस बार ऐसा क्या हुआ कि हमने इतना लम्बा ब्रेक ले लिया? सच कहें तो हमें खुद भी ज़्यादा नहीं मालूम लेकिन अगर मनोवैज्ञानिक टूल्ज़ से पड़ताल करें तो इसकी अलग-अलग संभावित वजहों में सबसे ज़्यादा सही लगने वाली वजह एक ‘ठहराव’ लगती है – एक ठहराव जो मानसिक तनाव पैदा करता है. आप कह सकते हैं कि अगर ऐसी कोई समस्या है तो किसी स्पेशलिस्ट से मिलिए जो मानसिक तनाव से निपटने के कारगर तरीके बताये लेकिन यकीन मानिये कि अपनों से शेयर करना भी इलाज का ही हिस्सा होता है और इस मामले में पाठकों से ज़्यादा अपना कौन हो सकता है?

अब आते हैं इस बात पर कि हमारी गैर-हाज़िरी में आपने किन विषयों पर अकेले ही मज़ा लिया या मंथन किया. सबसे पहले तो याद आ रहे हैं पांच राज्यों में सम्पन्न विधानसभा चुनाव और उनके परिणाम। उत्तराखंड के हमारे पाठकों ने तो चुनावों में हिस्सेदारी भी की होगी।  यूँ तो उत्तरप्रदेश में भी हमारे पाठक हैं किन्तु उत्तराखंड और दिल्ली जितने नहीं। चुनाव परिणामों पर अब हमें कोई विशेष चर्चा नहीं करनी क्योंकि यों भी बात पुरानी हो गई है और उससे भी बड़ी बात ये कि परिणाम संभावित लाइन्स पर ही रहे। उत्तराखण्ड में दोनों ही पार्टियों के दिग्गजों का चुनाव हारना ज़रूर अप्रत्याशित था लेकिन कुल मिलाकर इन नतीजों का पूर्वानुमान राजनैतिक प्रेक्षकों को था ही। पंजाब के परिणाम अलग ज़रूर थे किन्तु अप्रत्याशित नहीं क्योंकि आम आदमी पार्टी की जीत के बारे में चुनावों का आकलन करने वाले विशेषज्ञ आश्वस्त थे।  

चुनाव परिणामों और राजनीति के बारे में एक टिप्पणी का करने को मन हो रहा है और आखिरी पन्ना में भी अगर मन की पूरी बात ना की तो डिप्रेशन बढ़ जाएगा, इसलिए कहे देते हैं। दरअसल हमें ऐसा लग रहा है कि ऊपर हम जिस ‘ठहराव’ की बात कर रहे थे, वह राजनीति में भी आ गया है। कई वर्ष से स्थिति यह हो गई है कि राजनीति में अब मंडल और कमंडल का संघर्ष समाप्त हो गया है और राजनीति इस द्वैत से निकल कर केवल कमंडल के चारों ओर केंद्रित हो गई है। अब जातीय समीकरण से ज़्यादा महत्वपूर्ण धार्मिक ध्रुवीकरण हो गया है. आप कह सकते हैं कि ये तो अच्छी बात हुई कि देश की राजनीति जातियों के चंगुल से निकल गई है लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है कि अब वह धार्मिक ध्रुवीकरण पर आधारित हो गई है। अब अस्सी प्रतिशत बनाम बीस प्रतिशत की बात खुले-आम होती है। यदि जातियों का महत्त्व कम होता और शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, कानून-व्यवस्था के नाम पर वोटर अपनी ताकत दिखाता तो आपके इस स्तम्भकार को बहुत ख़ुशी होती किन्तु ऐसा नहीं हो रहा और इन चुनाव-परिणामों से लग रहा है कि देश में धार्मिक ध्रुवीकरण पूरी तरह हो चुका है – वोटर के सामने हिन्दू-मुसलमान का सवाल इस तरह दाग दिया है कि दोनों को लग रहा है कि उनका धर्म खतरे में है। हाल ही में दिल्ली पुलिस को दो समुदायों के बीच शत्रुता, नफरत और दुर्भावना को बढ़ावा देने वाले भड़काऊ भाषण देने के खिलाफ केस दर्ज करना पड़ा। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन सच यही है और लोग रोज़ी-रोटी-स्वास्थ्य-शिक्षा जैसे सवालों की बजाय धर्म बचाने के नाम पर गोलबंद हो रहे हैं। कहने को तो ये भी कहा जा सकता है कि इसमें क्या गलती है – आखिर धर्म को भी तो बचाना ही है। हाँ, लेकिन अगर हम अपने समाज को ऐसा बनाएंगे जिसमें एक सम्प्रदाय दूसरे से डर रहा होगा तो ज़ाहिर है कि उससे समाज में सामाजिक समरसता नहीं रहेगी और बेशक इसका प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा। इसलिए यदि हमारे राजनेता देश की प्रगति के बारे में गंभीर हैं तो उन्हें अब जल्द से जल्द ये सुनिश्चित करना होगा कि सारा समाज एकजुट हो कर राष्ट्र निर्माण के कार्य में जुटे और वह तभी सम्भव होगा जब हम एक दूसरे से डर कर नहीं बल्कि एक दूसरे का हाथ थाम कर चलेंगे। इस बार इतना ही। उम्मीद करनी चाहिए कि इस स्तम्भ के माध्यम से होने वाला संवाद जारी रहेगा।  

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गुलफाम

बैनर इमेज : पार्थिव कुमार

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

1 COMMENT

  1. सचमुच विचित्र है यह देश। यहां बहुसंख्यकों के धर्म को अल्पसंख्यक समुदायों से खतरा है। दरअसल जो कुछ हो रहा है उसका मकसद धर्म को बचाना नहीं, बल्कि अपने स्वार्थों के लिए भुनाना है।

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