अजंता देव की चार नयी कविताएं – 6

अजंता देव

हिन्दी कविता जगत की सुपरिचित कवि अजंता देव को पिछले दिनों राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से विशिष्ट साहित्यकार पुरस्कार के लिए चुना गया है। इस वेब-पत्रिका की ओर से जब हमने उन्हें बधाई के लिए फोन किया तो साथ ही अनुरोध कर दिया कि वह अपनी कुछ नई कविताएं भेजें। हम अनुगृहीत हैं कि उन्होंने हमारा अनुरोध स्वीकार कर लिया और ये कुछ बहुत ही बेहतरीन रचनाएँ हमें भेज दीं। वैसे नए पाठकों को बता दें कि अजंता देव इस वेब-पत्रिका पर पहले भी कई बार प्रकाशित हो चुकी हैं। राग दिल्ली में उनकी पूर्व-प्रकाशित रचनाओं के कुछ लिंक आप नीचे उनके परिचय में देख सकते हैं।

1. नहीं कुछ पुराना

पुरानी फ़ोटो मत दिखाओ

कि जैसे अब भी 

मत कहो घुंघराले बालों की शान में कुछ भी

सुन्दर नयन और सुतवां जिस्म के बारे में चुप रहो

पुराने कपड़ों और छवियों को बक्से में बंद रखो

इन्हें देख कर खोए हुए प्रेम सा दुख होता है 

मुझे देखने दो आईना

एक-एक झुर्री को नापने दो

होंठ फीके सही

हँसने के कितने कारण मिलते हैं रोज़

मुझे हँसने दो किसी एक वजह से

मेरा चेहरा कितना भी बदले अब बिगड़ नहीं सकता

जैसे खोए हुए प्रेम की जगह

मिला हुआ प्रेम ।

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2. छिपा उत्स

छिपा कर बचाया मैने वह सब
जो अगले पल ही नष्ट हो जाता
नहीं बताया वह नाम
वह पता
मैने कभी नहीं बताया अपना इरादा
जो बहुत हिंसक है
उसे छिपा दिया अध्यात्म में
घृणा को प्रेम में
दुख को उत्सव में छिपाने की कला में माहिर हूं
मैने अपना डर छिपाया शेखी में
लालच को छिपा दिया सफलता में
रोग शोक को छिपा गई अट्टहास में
सच को छिपा रखा है अच्छे और बुरे में
मेरे हथियार छुपे हैं दो पंक्तियों के बीच
जो तुम्हें खाली जगह से लगेंगे
और तुम पन्ने पलटते रहोगे।

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3. सब्र

जाओ  पहाड़ के पास
सब्र सीखने
सब्र नहीं होता मां में
वह पीछे पीछे भागती है बच्चे के
उसे अपना शिशु लगता है छोटा
कब बड़ा होगा मसलती है हाथ
धरती
अधीर है
घास उगा डालती है रात भर वर्षा के बाद
सवेरे बादल भरे आकाश के नीचे हरा ही हरा
दंग रह जाते हैं हम कल तो कुछ भी नहीं था
फूल से बेसब्र कौन
कल की कली बात की बात में फूल बन कर तैयार
फिर  जल्दी से झर जाना
कवि लाख कहे सबुरी सबुरी
कितना कुरलाता है अपनी उपेक्षा से
कलम उठाए रहता है डंक की तरह
जल की बेसब्री लहरों में
अग्नि की लपटों में
हवा की गति में
ध्वनि के कम्पन में बेसब्री
सिर्फ़ पहाड़ सब्र से खड़ा रहता है युगों तक
और जब नहीं सहा जाता
गिर पड़ता है पूरा
सब्र के साथ नष्ट होता हुआ।

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4. दावा

                    
चाकू ठीक से गड़ गया हो सीने में आतताई के
देखना कहीं इसी क्षण दया न आ जाए दिल में
देखना कि सिर्फ़ तड़पता न छोड़ आओ
सुनना  कि वह जो आवाज़ थी वह अंतिम हिचकी  थी
विद्रोह कहीं विद्रूप न बन जाए
यह देखना भी काम है तुम्हारा मेरे लड़ाकों
एक भी पत्ता बाक़ी रहे तो पेड़ को जीवित समझो
एक पैसा भी नहीं चुकाया तो कर्ज़ बाक़ी है मेरे दोस्त
एक सांस भी जीवन है
एक पल भी समय है
एक चिंगारी भी अग्नि है
अन्न है एक बीज भी
एक मित्र
एक शत्रु
एक प्रेम
क्या पूरा नहीं लगता
एक  आख़िरी पल में ही अक्सर पराजित होता है दुर्धर्ष योद्धा
देखना कि वह पल तुम्हारा न हो
कील पर एक अंतिम प्रहार ही हथौड़ी की जीत है मेरे कारीगर
आओ और अंत पर दावा करो जीवन का।
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अजन्ता देव लगभग चालीस वर्षों से लगातार लिख रहीं हैं। पिछले दिनों राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर सेविशिष्ट साहित्यकार पुरस्कार के लिए चुना गया है। उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – राख का किला, एक नगरवधू की आत्मकथा, घोड़े की आँख में आँसू और बेतरतीब। इस वेब पत्रिका में उनकी कविताएं आप यहाँ,यहाँ, यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं। मरुभूमि पर एक कविता शृंखला यहाँ पढ़ सकते हैं। उनका एक उपन्यास अंश भी हमारी वेब में पत्रिका में यहाँ उपलब्ध है।

Image by Stefan Keller from Pixabay

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