अवमानना के नाम पर लगे प्रतिबंध नाजायज़, सुप्रीम कोर्ट के दिल्ली से बाहर भी बेंच हों, ‘न्याय’ के रास्ते में मुश्किलें और उज्ज्वला उतनी चमकदार भी नहीं

अखबारों से – 1

आज से हम इस वैबसाइट पर एक नया प्रयास शुरू कर रहे हैं। वह यह है कि रोज़ाना के अखबारों में हमें महत्वपूर्ण लगने वाले लेखों पर अपनी राय सहित आप तक पहुंचाना। यदि संभव होगा तो उन लेखों के लिंक भी हम देंगे। आने वाले दिनों में हमारी ये योजना क्या आकार लेती है, यह अभी हमें भी नहीं मालूम लेकिन अभी तो मन में है कि जो भी अच्छा पढ़ें, उसे आप तक भी पहुंचाएं। यदि कभी संसाधन बढ़े तो वैबसाइट पर काम के लिए कोई साथी जुड़े तो हम इस प्रयास में अखबारों के साथ-साथ वेब-पोर्टल्स भी जोड़ लेंगे। देश-विदेश के वेब-पोर्टल्स ताकि जितना हो सके, आप तक पहुंचे। बहरहाल, ये सब तो सपने हैं, आप कह सकते हैं कि ख्वाब देख मगर इस कदर प्यारे ना देख! J अभी इस भूमिका को और बढ़ाने की बजाय आज के चुनींदा लेखों पर चर्चा शुरू करते हैं।

अवमानना के नाम पर लगे प्रतिबंध नाजायज़

आज अंग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स में उच्चतम न्यायालय में अपेक्षाकृत युवा अधिवक्ता गौतम भाटिया का संपादकीय पृष्ठ पर मुख्य-लेख आया है जिसमें उन्होंने ट्रायल कोर्ट्स की इस बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता जताई है कि देश भर से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं कि ये अदालतें पहली ही सुनवाई में अवमानना के नाम पर मीडिया पर ये प्रतिबंध लगा देती हैं कि वो प्रार्थी के खिलाफ कुछ भी प्रकाशित या प्रसारित ना करें। गौतम भाटिया ने बताया है कि ये अदालतें केवल कुछ न्यूज़-क्लिप्पिंग्स या कुछ लेख आदि देखकर बिना दूसरे पक्ष को सुने ही अपने अगले आदेश तक ऐसे प्रतिबंध लगा देती हैं जो संविधान-सम्मत या कानून-सम्मत नहीं होते।

गौतम के उपरोक्त निष्कर्ष का संदर्भ ये था कि चुनावी मौसम शुरू होते ही बंगलोर की एक अदालत ने वहाँ से भाजपा उम्मीदवार तेजस्वी सूर्या की प्रार्थना पर ऐसा एक-तरफा आदेश पारित किया था जिसे बाद में कर्नाटका हाई कोर्ट ने उलट दिया। इस लेख में गौतम ने बहुत आसान शब्दावली में ‘अवमानना’ के कानूनी पहलुओं के बारे में बताया है और कहा है कि जब तक ये बिलकुल ही ना लगने लगे कि सामने वाले की बातें बिलकुल बेबुनियाद और झूठी हैं, तब तक केस चलते रहना चाहिए लेकिन इस बीच अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगना चाहिये।

गौतम ने ये भी कहा कि उपरोक्त मामले में चाहे कर्नाटक हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को जल्दी ही निरस्त कर दिया लेकिन ये समस्या एक-आध मामले की नहीं है। यह सिस्टेमिक समस्या है और ऐसे उपाय किए जाने चाहिए ताकि ट्रायल कोर्ट तक कानून को सही प्रकार से लागू किया जा सके।

हमारा कमेंट: कहने की आवश्यकता नहीं कि लॉं-कमीशन,  न्यायायिक संस्थान एवं संसद सहित अन्य सभी ऐसे संस्थान जो कानून बनाने की प्रक्रिया में किसी ना किसी रूप में शामिल होते हैं, गौतम द्वारा उठाए गए इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करें ताकि अवमानना के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर रोक ना लगे।

सुप्रीम कोर्ट ‘दूर अस्त’ 

यही शीर्षक है बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित एम जे एंटनी के उस लेख का जिसमें उन्होंने पैरवी की है इस बात की कि गर्मी की छुट्टी के दौरान बनने वाले सुप्रीम कोर्ट के vacation बेंच को गर्मियों में दक्षिण भारत के बंगलोर जैसे शहर में शिफ्ट हो जाना चाहिए। कम से कम प्रयोग के तौर पर तो ये हो होना चाहिए। एंटनी कहते हैं कि गर्मियों में इतने लंबे समय के लिए कोर्ट बंद होना भारत के ग़ुलामी के समय से चली आ रही परमपरा है जिसकी समीक्षा की ज़रूरत है।

सुप्रीम कोर्ट बेंच के इस दौरान बाहर से काम करने के तर्क पर वह कहते हैं कि अब परिस्थितियाँ बिलकुल बदल गईं हैं और पुराने तर्क को दिल्ली से बाहर काम करने के खिलाफ थे, अब बेमानी हो चुके हैं। अब देश क्या विश्व के किसी भी कोने से जज साहिबान अपनी लाएब्रेरी तक इ-माध्यम से पहुँच सकते हैं। एंटनी अपने इस लेख में यह भी बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने एक भूतपूर्व जज की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई है जो सुप्रीम कोर्ट में ‘fixers’ और ‘पावर-ब्रोकर्स’ की भूमिका की जांच करेगी। ऐसे में ये और भी ज़रूरी हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट दिल्ली से अपनी भौगौलीक दूरी बनाए ताकि ऐसी घटनाओं पर विराम लग सके।

इस लेख में यह भी बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक लॉं कमीशन द्वारा दी गई आठ रेपोर्ट्स पर और एक संसदीय समिति की रिपोर्ट पर चुप्पी साध रखी है, जिनमें यह स्पष्ट कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट को देश के अन्य भागों में भी बेंच स्थापित करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इस रुख के चलते दूर-दूर रहने वाले लोगों को न्याय की खोज में या तो ज़्यादा खर्चा करना पड़ता है और या फिर बिना सुप्रीम कोर्ट आए मन मसोस कर मिले हुए फैसले को स्वीकार करना पड़ता है।

हमारा कमेंट: देश के संघीय ढांचे को स्वस्थ ढंग से बरकरार रखने के लिए ये आवश्यक है कि देश के किसी भी भाग को ऐसा नहीं लगना चाहिए कि उनकी हिस्सेदारी कम है। यदि सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के समय विभिन्न कारणों से ये संभव नहीं था कि उसके बेंच कहीं और से भी काम कर सकें तो कम से कम अब जब ये बिलकुल मुश्किल नहीं रह गया कि जज और वकील इ-तकनीक के जरिये अपने लैपटाप से कहीं से भी अपनी पुस्तकों तक पहुँच सकते हैं तो फिर सुप्रीम कोर्ट को किसी अन्य शहर में अपने बेंच की स्थापना से कतराना नहीं चाहिए और प्रयोग के तौर पर इसकी शुरुआत ‘वेकेशन बेंच’ की दिल्ली से बाहर स्थापना द्वारा की जा सकती है।

न्याय कहीं ‘अन्याय’ ना बन जाये

मिंट अखबार में अर्थशास्त्री एवं विख्यात सक्रियकर्मी ज्यां द्रां का एक लेख (उनकी वैबसाइट Ideas for India पर उपलब्ध) आया है जिसमें उन्होने एक परिदृश्य की तरफ ध्यान खींचा है जिसके अनुसार कांग्रेस द्वारा घोषित न्यूनतम न्याय योजना (न्याय) के अंतर्गत सबसे गरीब 20% परिवार छांटने की प्रक्रिया बहुत ज़्यादा विभाजक हो सकती है।

उनका कहना है कि आज बेरोजगारी की जो हालत है, उसमें 6 हज़ार रुपया प्रति माह बहुत बड़ी रकम होती है क्योंकि इतने पैसे तो कई बार पूरे दिन मेहनत करके भी कमाने मुश्किल हो जाते हैं। ऐसे में जो परिवार इस योजना में आने से किसी भी कारण से छूट गए तो इसको वो अपने साथ अन्याय मानेंगे और देश में एक तरह की अराजक और विभाजक स्थिति बनने का खतरा हो जाएगा। लेकिन, ज्यां द्रां आगे लिखते हैं, ऐसी कोई योजना लाना बहुत आवश्यक है और इसको ठीक प्रकार से लागू करने के लिए उन्होंने कुछ टिप्स भी दी हैं। ज्यां द्रां ने यह भी कहा है कि पहले यह एक स्कीम के तौर पर लाई जा सकती है लेकिन बाद में आगे चलकर इसको भी एक कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए।

हमारा मत: जैसा कि हम अपनी वैबसाइट पर पहले भी कह चुके हैं कि देश में वर्तमान विषमता के चलते न्यूनतम आय योजना जैसी कोई योजना आना सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए आवश्यक है। साथ ही यह भी कि हमारे मध्यम वर्ग को ज़्यादा संवेदनशील होने की ज़रूरत है क्योंकि आज जब नई प्रौद्योगिकी की चलते गरीब तबके के लिए रोजगार खतम हो रहे हैं तो ऐसी कोई योजना लाना अनिवार्य जैसा हो जाता है और ऐसी स्थिति में मध्यम वर्ग ये ना सोचे कि केवल वही कर-दाता है और उसके दिये करों से ही ऐसी कल्याणकारी योजनाएँ चलती हैं। आप चाहें तो इस विषय को डील करते हमारे ये दो लेख यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

उज्ज्वला उतनी चमकदार भी नहीं

इकॉनॉमिक टाइम्स में टी के अरुण ने ‘उज्जवला नॉट सो ब्राइट’ शीर्षक से एक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने यह प्रस्थापना दी है कि उज्ज्वला राजनैतिक तौर पर ज़रूर एक कारगर योजना है जिसके तहत सात करोड़ से भी ज़्यादा घरों तक और सीधे उनकी महिलाओं तक उन्हें सशक्त करने के लिए एक सुविधा पहुंची जिससे उनका जीवन प्रभावित हुआ। लेकिन अरुण लिखते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था के नजरिये से देखें तो इस योजना के कारण एक अनावश्यक बोझ पड़ता है क्योंकि इतनी बड़ी मात्रा में घरेलू ऊर्जा के लिए गॅस प्रयोग होगी तो देश का आयात का बिल कितना बढ़ जाएगा। अरुण का कहना है कि हर घर तक स्वच्छ ईंधन पहुंचाना तो बहुत अच्छा उद्देश्य है लेकिन यह स्वच्छ ईंधन मुख्यत: बिजली के माध्यम से पहुंचाना चाहिए था ना कि आयातित तेल से। वह लिखते हैं देश में सौर ऊर्जा, जल और कोयला प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जिससे पर्याप्त विद्युत उत्पादन हो सकता है और इसलिए हमें विद्युत उत्पादन बढ़ाकर घरों में ईंधन पहुंचाना चाहिए ताकि हमारा आयात बिल ना बढ़े। विद्युत वितरण पर सुधारने पर ज़ोर देते हुए अरुण लिखते हैं कि हमारे कुल विद्युत उत्पादन का लगभग 30 से 40% ऐसा होता है जिसका बिल अदा नहीं किया जाता। इस स्थिति में भी सुधार लाना चाहिए।

हमारा मत: इसमें कोई संदेह नहीं कि पेट्रोलियम पदार्थों से बनने वाले किसी भी ईंधन के लिए हमें आयात पर निर्भर करना पड़ता है और हमारी प्राथमिकता में यह होना ही चाहिए कि हमें जहां तक हो सके, घरेलू संसाधनों से काम चलाना सीखना चाहिए। लेकिन इस लेख में टी के अरुण ने यह बात बिना किसी आंकड़ा दिये लिख दी है। उन्होने इस बात पर गौर नहीं किया कि इन सात करोड़ घरों में से एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनहोने पहला सिलेन्डर तो ले लिया है लेकिन अपना दूसरा सिलेन्डर लेने के लिए वह पैसे नहीं निकाल पाये और ऐसी स्थिति में आयात बिल पर इस कारण कोई खास असर नहीं पड़ा होगा।

साथ ही अरुण ने जो आम तौर पर बहुत संवेदनशील अंदाज़ मे लिखते हैं, इस मामले में कुछ उच्च-वर्गीय संस्कार जैसी बात कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने तेल के आयात बिल का ज़िक्र उज्जवला के संदर्भ में तो कर दिया लेकिन यह ज़िक्र नहीं किया कि मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग किस तरह कारों का बेतहाशा इस्तेमाल कर रहा है। उससे भी ज़्यादा सरकारी सेवाओं में जिसमें सेना और सश्स्त्र बल शामिल हैं, कैसे आयातित तेल इस्तेमाल किया जाता है। बहरहाल, सिद्धांतत: यह कहने में हर्ज़ नहीं कि घरेलू ऊर्जा के लिए भी पैट्रोलियम पदार्थों से बनने वाली गैस के बजाय हमारे अपने संसाधन इस्तेमाल करना बेहतर होगा।

विद्या भूषण अरोरा

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