सुप्रीम कोर्ट ने यौन शोषण आरोप को ठीक से हैंडल नहीं किया

अखबारों से – 2

कल से शुरू की गई इस शृंखला में आज हम सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों की जांच के लिए बनी कमेटी पर और इस पूरे प्रकरण पर आज जो लेख आए हैं, उन में से कुछ का उल्लेख यहाँ कर रहे हैं। हमने जिन पाँच बड़े अखबारों के इस विषय पर लेख यहाँ देने के लिए छांटे हैं, उन सभी में इस बात पर ज़ोर डाला गया है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शुरू से ही सही रवैय्या नहीं अपनाया और पूरी प्रक्रिया पारदर्शिता और न्यायायिक मापदण्डों पर खरी नहीं उतरती।

‘सुप्रीम कोर्ट अपने ही पुराने फैसलों को ध्यान में रखे’:

द हिन्दू में प्रकाशित एक कमेन्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने काफी विस्तार से सुप्रीम कोर्ट के ही एक पुराने फैसले को उद्धृत किया है जिसमें कहा गया है कि जब किसी जज के खिलाफ कोई जांच चल रही हो तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि किसी किस्म का पक्षपात, पूर्वाग्रह या ‘बायस’ नहीं होना चाहिए। दुष्यंत लिखते हैं कि इस मामले में जो कमेटी नियुक्त की गई है, उसकी प्रक्रिया और उसके द्वारा अभी तक किए गए कार्य किसी भी तरह से सही और न्यायपूर्ण नहीं कहे जा सकते – (far from being fair and just).

दुष्यंत ने इस कमेटी की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की है कि उसने शिकायतकर्ता को कोई वकील रखने की अनुमति नहीं दी। वह लिखते हैं कि आज भी देश में महिलाओं की स्थिति पुरुषों से कमतर है और इसलिए आमतौर पर यौन शोषण की शिकार महिलाएं वैसा करने वाले पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा तकलीफ उठाती हैं। इस मामले में पीड़िता ने कमेटी से ज़्यादा ‘फेयरनेस्स’ की मांग की थी जो उसे मिलनी चाहिए थी। दुष्यंत लिखते हैं कि हो सकता है कि पीड़िता अक्तूबर 11 को हुई घटना को भुला देती किन्तु उसके बाद उसके और उसके परिवार वालों के खिलाफ एक के बाद एक ऐसी चीज़ें हुईं जो अपने आप में तकलीफदेह थीं और इसलिए उसने विवश होकर 19 अप्रैल को यह शिकायत दर्ज करवाई।

सुप्रीम कोर्ट के ही एक फैसले को उद्धृत करते हुए दुष्यंत लिखते हैं कि जीवन के अधिकार में ही समाहित होता है अपनी प्रतिष्ठा का अधिकार, गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार, भयरहित जीवन का अधिकार और रोजगार का अधिकार। “उम्मीद करनी चाहिए कि यह कमेटी और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश इस पूरे मामले पर पुनर्विचार कर कुछ उपचारात्मक उपाय (remedial steps) करेंगे जिससे पीड़िता को भी न्याय मिले और संबंधित जज को भी ताकि आमजन का न्यायप्रक्रिया में पुनः विश्वास जम सके,” दुष्यंत लेख के अंत में नसीहत देते हैं।

‘सुप्रीम कोर्ट को स्वयं भी पारदर्शी होना चाहिए’

हिंदुस्तान टाइम्स में शेखर गुप्ता का एक लेख है जिसमें वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को पारदर्शी प्रक्रियाएं अपनानी चाहिए। शेखर इस मामले का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने तीन बिन्दुओं पर गलती की है – पहली तो ये कि उसने असुविधाजनक सवालों का सामना करने से इंकार कर दिया, दूसरे ये कि कोर्ट जहां दूसरों को पारदर्शिता पर लेक्चर करता है, वहीं अपने मामले में कोर्ट पारदर्शिता को नहीं अपनाता। तीसरे ये कि कोर्ट में ऐसी कोई अंतर्निहित प्रणाली नहीं है जिसमें यदि कोई ऐसी स्थिति ऐसी आ जाए जैसी कि आजकल है तो उसमें कोई वरिष्ठ जन हस्तक्षेप कर सकें ताकि न्यायालय की प्रतिष्ठा या विश्वसनीयता पर कोई आंच ना आए।

शेखर गुप्ता लिखते हैं कि कितनी दुखद स्थिति है कि इस मामले के शुरु होते ही सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश स्वयम को षडयंत्रों को शिकार बताते हैं। यह आखिर कैसे हो गया कि देश का सबसे शक्तिशाली संस्थान जिस पर हम सब अपने संरक्षण और न्याय पाने के लिए निर्भर करते हैं, इतना लाचार हो गया कि कुछ षड्यंत्रकारी इसको डरा रहे हैं, शेखर लिखते हैं।

इतना ही नहीं, शेखर सुप्रीम कोर्ट को इस बात के लिए भी आड़े हाथों लेते हैं कि जहां उच्चतम न्यायालय सूचना के अधिकार (आरटीआई) का संरक्षक है, वहीं खुद के लिए इस कानून से बचता है। सुप्रीम कोर्ट के 27 में से केवल 7 जजों ने अभी तक अपनी संपत्ति के बारे में सूचना दी है। जजों की नियुक्ति के लिए  बने ‘कोलेजियम’ को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट बिलकुल पारदर्शी नहीं है और नहीं बताता कि कोई नियुक्ति क्यों हो रही है और क्यों नहीं हो रही है। शेखर यहाँ तक कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट इतना तक भी नहीं बताता कि उसने आखिर कितनी कमेटियाँ बनाई हैं और उनमें कितने सेवानिवृत्त जजों की नियुक्ति की गई है! यदि यही सूचनाएँ हमसे प्रशासन छिपाता तो हम कोर्ट जाते लेकिन अब जब कोर्ट छिपा रहा है तो हम कहाँ जाएँ?

शेखर गुप्ता लिखते हैं कि यौन शोषण के इस मामले ने इस अंतर्विरोध को और अच्छी तरह उजागर कर दिया है कि जहां सुप्रीम कोर्ट दूसरों के लिए पारदर्शिता की मांग करता है, वहीं अपने मामले में वह पारदर्शिता से बचता है।

‘क्रॉसिंग द विशाखा बार’

काम करने के स्थान पर यौन शोषण के मामलों से निपटने के लिए बनाए गए कानून में जो मार्ग-निर्देशक सिद्धांत बनाए गए हैं, उन्हें विशाखा गाइडलाइंस के नाम से जाना जाता है। बिज़नेस स्टैंडर्ड में कनिका दत्ता ने अपने एक लेख में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं इन सिद्धांतों का पालन करता नज़र नहीं आ रहा। कनिका लिखती हैं कि वरिष्ठ अधिवक्ताओं सहित कई लोगों की आलोचना के बाद जो समिति बनाई गई वह कानून सम्मत नहीं है क्योंकि इस समिति की अध्यक्ष एक महिला होनी चाहिए थी, इसमें कम से कम एक सदस्य बाहरी होना चाहिए था और दो महिला सदस्य होनी चाहिए थीं। पीड़िता की शिकायत के बाद एक महिला जज को इसका सदस्य बना दिया गया लेकिन अभी भी कोई बाहरी सदस्य नहीं है। कनिका लिखती हैं कि सबसे अजीब चीज़ ये है कि कमेटी ने पीड़िता को सूचित किया कि ये ना तो ‘इन-हाउस’ कमेटी है और ना ही ये विशाखा गाइडलाइंस के अनुसार बनी कमेटी है बल्कि ये ‘informal proceedings’ या अनौपचारिक कार्यवाही है। तो फिर ये किस उद्देश्य से बनी है और ये मुख्य न्यायाधीश से स्वतंत्र कैसे है, कनिका पूछती हैं।

कोर्ट की अंतरात्मा की आवाज़

इस मामले को लेकर जो लेख आज छपे हैं, उनमें इंडियन एक्सप्रेस का यह विस्तृत लेख उच्चतम न्यायालय का आह्वान करता है कि मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध लगे यौन शोषण के आरोप सुप्रीम कोर्ट के लिए एक परीक्षा की घड़ी भी है और एक ऐसा मौका भी जब वह यह मिसाल रख सकता है कि इस प्रकार के मामलों में जांच कैसे होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता मीनाक्षी अरोरा और पायल चावला द्वारा लिखा गया ये लेख एक बुनियादी सवाल उठाता है कि हम औरत के तौर पर अपने बचपन से ही ये सुनने के आदी होते हैं कि अगर तुम्हारे साथ कोई सेक्सुयल्ली गलत भी करता है, तो तुम सहन करो और झेल जाओ। दूसरे ये कि अगर तुमने अपने साथ हो रहे गलत काम का विरोध किया तो हम तुम्हारे पीछे पड़ जाएंगे, तुम्हारे परिवार के पीछे पड़ जाएंगे और यहाँ तक कि तुम्हारी नौकरी के पीछे पड़ जाएंगे। अगर तुमने शिकायत करने की हिम्मत जुटा भी ली तो हम तुम्हें किनारे लगा देंगे और ये कहेंगे कि औरतों में आदत ही होती है कि वो इस तरह की झूठी शिकायतें करती हैं।

मीनाक्षी और पायल लिखती हैं कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट जो भी करेगा, उससे बहुत दूरगामी नतीजे निकलेंगे। अगर ये जांच सही प्रकार से ना की गई तो इससे misogyny को बढ़ावा मिलेगा और महिलाओं की स्थिति पर खराब असर पड़ेगा। दुनिया की सबसे शक्तिशाली कोर्ट के तौर पर सुप्रीम कोर्ट के पास ये बहुत अच्छा मौका है कि वह ये दिखाये कि एक सही जांच किस तरह से हो सकती है जिससे औरतों को गरिमापूर्ण ढंग से न्याय मिल सके।  

सुप्रीम कोर्ट को पैमाना ऊंचा रखना चाहिए

एशियन एज अखबार ने अपने संपादकीय में लिखा है कि यह बहुत खेदजनक है कि यौन-शोषण की शिकायत के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जांच की प्रक्रिया को सही ढंग से नहीं अपनाया। अखबार लिखता है कि हो सकता है कि ये आरोप बिलकुल बेबुनियाद हों लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट को न्यायसंगत प्रक्रिया अपनानी चाहिए थी।

विद्या भूषण अरोरा

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