हर वोट का महत्व, मसूद अजहर, पुष्पराज की लड़ाई और बुंदेलखंड की हालत

अखबारों से – 3

कल हमने इस स्तम्भ के लिए जो लेख लिए थे, वो सभी संयोग से एक ही विषय पर थे। आज हमने जो लेख आपके लिए छांटे हैं वो सभी अलग अलग विषयों पर हैं। पहला तो है इंडियन एक्सप्रेस का लेख “Making Every Vote Count” जो देश की चुनाव-प्रक्रिया को लेकर कुछ सुझावों के साथ आया है तो दूसरा है एक विदेश सेवा के एक भूतपूर्व अधिकारी एवं राजदूत रह चुके के. सी. सिंह का लेख जिन्होंने अजहर मसूद के अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किए जाने पर टिप्पन्णी की है। फिर हिन्दू अखबार में एक प्रोफ़ाइल छपा है एक सक्रियकर्मी, लेखक और पत्रकार का जिनका नाम है पुष्पराज और जो बरसों से बिहार के गांवों में काम कर रहे हैं। अंत में हम आज हिंदुस्तान टाइम्स में बुंदेलखंड क्षेत्र के बारे में प्रकाशित एक ग्राउंड रिपोर्ट के बारे में बताएँगे जो वहाँ की स्थिति बहुत संयत ढंग से लेकिन साथ ही प्रखरता के साथ बयान करती है।  

हर वोट को महत्व कैसे मिले

लोकतन्त्र में यह बहुत अहम बात होती है कि हर आवाज़ को महत्व मिले और सबसे कमजोर आवाज़ की भी सुनवाई की व्यवस्था हो। जहां हमारे संविधान ने सबको बिना शर्त समानता का अधिकार दिया है और जिस तरह अन्य मौलिक अधिकार भी यह सुनिश्चित करते हैं कि कम से कम तकनीकी तौर पर यहाँ के आखिरी आदमी को भी वही सब अधिकार और कानूनी समाधान प्राप्त हैं जो देश के सबसे उच्च पद पर बैठे व्यक्ति को या देश के सर्वाधिक धनी व्यक्ति को भी। लेकिन जब चुनाव का समय आता है तो एकबारगी हमें लग सकता है कि लोकसभा के लिए प्रतिनिधि जिस ढंग से चुने जाते हैं, उसमें हर वोट काउंट नहीं करता और ‘फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट’ के सिद्धांत में उम्मीदवारों की भीड़ में सबसे ज़्यादा वोट पाने वाला व्यक्ति जीत जाता है। इसमें कई बार देखा जाता है कि बाकी उम्मीदवारों में बहुसंख्यक वोट बँट जाते हैं जबकि जीतने वाले व्यक्ति को कुल वोटों का तिहाई या उससे भी कम समर्थन मिला होता है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को लगभग 31% प्रतिशत वोट मिले थे और उतने भर वोटों से ही उसे 282 सीटें मिल गई थीं। दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी को 4% से भी ज़्यादा वोट मिले किन्तु लोक सभा में एक भी सीट नहीं मिली।

मध्यप्रदेश में मुख्य सचिव रह चुके लेखक आर. परशुराम का इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख में कहना है कि उपरोक्त स्थिति से निपटने का हल आनुपातिक आधार पर सीटें देना भी ना होगा क्योंकि यदि वैसा हुआ तो उससे पार्टी के नेताओं को और ज़्यादा ताकत मिल जाएगी और अभी जो चुनाव-क्षेत्र और उम्मीदवार के बीच जो कनैक्ट रहता है, वो बिलकुल खतम हो जाएगा। लेखक का कहना है कि लोकतन्त्र के लिए वो कोई अच्छी स्थिति नहीं होगी। वह याद दिलाते हैं कि दल-बदल विरोधी कानून (anti-defection law) अच्छी नियत से बना था किन्तु उसका कुप्रभाव ये हुआ कि पार्टी में बहस और असहमति की गुंजाइश पहले से भी कम हो गई।

लेखक इस संबंध में जो पहला विकल्प सुझाते हैं, वो ये है कि हम एक मिश्रित प्रणाली को अपना सकते हैं जिसमें प्रतिनिधियों का सीधा चुनाव भी हो और कुछ सदस्य आनुपातिक आधार पर चुने जाएँ जो उनकी पार्टी को मिले वोट शेयर के आधार पर होंगे। इससे सीट के साथ कनैक्ट भी बना रहेगा और वो स्थिति भी खतम हो जाएगी कि किसी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी का सातवाँ-आठवां हिस्सा वोट मिले हों लेकिन लोकसभा मे एक भी सीट ना मिले।

दूसरा विकल्प वो सुझाते हैं कि पहले और दूसरे स्थान पर आए उम्मेदवारों के बीच एक और चुनाव लेकिन फिर साथ ही वह स्वयम इस विकल्प थोड़ा अव्यवहारिक बताते हुए खारिज भी करते हैं। उनका सुझाया तीसरा विकल्प भी लागू करना मुश्किल लगता है क्योंकि उसमें वो वोटर से अपेक्षा करते हैं कि वह प्राथमिकता आधार पर तीन वोट डाले।

हमारा मत : चुनावों के दौरान यह चर्चा हमेशा हो ही जाती है कि क्या हम अपने प्रतिनिधियों को सर्वश्रेष्ठ ढंग से ही चुन रहे हैं या उसका कोई और विकल्प भी हो सकता है। चर्चा तो खैर चलती रहनी चाहिए लेकिन यदि कभी ऐसा लगने लगे कि हम प्रणाली बदलने के करीब हैं तो हमें याद रखना होगा कि आनुपातिक आधार पर प्रतिनिधितत्व के नाम पर हम कहीं पहले से ही बढ़ चुकी व्यक्तिवाद की प्रवृत्ति को और बढ़ावा ना दे रहे हों। संभवत: इस लेख में जो मिश्रित विकल्प बताया गया है, उसे सभी पार्टियों के बीच विमर्श के लिए रखा जा सकता है लेकिन सर्वानुमती होने पर ही ऐसे किसी विचार को लागू करने की बात सोचनी चाहिए अन्यथा नहीं।

मसूद अज़हर के मामले में जीत लेकिन अभी इंतज़ार करना होगा

विदेश सेवा के एक भूतपूर्व अधिकारी एवं राजदूत रह चुके के. सी. सिंह ने एशियन एज में अपने एक लेख में कहा है कि अजहर मसूद के अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किए जाने पर अभी ये स्पष्ट नहीं हुआ कि चीन इस पर अपनी पोजीशन बदलने को राज़ी क्यों हुआ? क्या हमने उसे भविष्य के लिए कुछ वादा किया है या कोई छूट दी है? या फिर चीन ने कॉस्ट-बेनीफिट विश्लेषण करके ये फैसला किया है? हो सकता है कि चीन ने नरेंद्र मोदी को चुनाव के दौरान मजबूत स्थिति बनाने के लिए ये अवसर दिया हो ताकि यदि मोदी सरकार दुबारा बनती है तो फिर चीन भारत को “बेल्ट एंड रोड’ प्रोजेक्ट में शामिल करने के लिए राज़ी कर लेगा और या फिर चीन की भारत में क्रिटिकल सैक्टर में पूंजी निवेश के मामले में ज़्यादा टेढ़ी नज़र नहीं रखेगा – और शायद हुयावे (Huawei) जैसी कंपनियों को भी संवेदनशील क्षेत्रों में निवेश की अनुमति दे देगा – यह ऐसी कंपनियाँ हैं जिन्हें चीन की जासूसी करने के लिए अमरीका ज़िम्मेवार ठहराता है।

लेखक यह भी ध्यान दिलाते हैं कि मसूद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किए जाने की प्रक्रिया में कहीं भी ये ज़िक्र नहीं आया कि उसे कश्मीर या पुलवामा में आतंकवादी गतिविधियों के कारण इस श्रेणी में रखा जा रहा है। स्पष्ट है कि पाकिस्तान को संतुष्ट रखने के लिए ऐसा किया गया है। लेखक कहते हैं कि जब तक 19 मई को आखिरी वोट नहीं पड़ जाता, तब तक भाजपा छती ठोंक कर इसका श्रेय लेती रहेगी लेकिन असल बात ये है कि पाकिस्तान के मामले में हमें ये याद रखना होगा कि पुरानी आदतें जल्दी नहीं छूटतीं!

घुम्मकड़ सक्रियकर्मी पुष्पराज की लड़ाई जारी है

हिन्दू अखबार के वरिष्ठ संपादक वर्गीज़ के. जॉर्ज ने आज के अखबार में एक बहुत ही अच्छा प्रोफ़ाइल लिखा है जिसमें उन्होंने बिहार के बेगूसराय और पटना के बीच हमेशा सफर-रत पुष्पराज के बारे में लिखा है। वैसे वर्गीज़ ने बताया है कि पुष्पराज देश में जहां भी कोई ऐसा आंदोलन चल रहा हो जिसमें गरीब और उपेक्षित लोग अपने हक़ के लिए लड़ रहे हों तो पुष्पराज वहाँ चले जाते हैं। पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में जब आंदोलन चला तो उन्होंने वहाँ काफी समय बिताया और उसके बाद पैंगविन से उनकी किताब नंदीग्राम डायरी भी आई जो काफी चर्चित हुई।

वर्गीज़ उनके बारे में बताते हैं कि पुष्पराज नंदीग्राम के अलावा भी जाने कितने ही आंदलोनों में देश के कई हिस्सों में शामिल रहे हैं। मेधा पाटेकर के नर्मदा बचाव आंदोलन में भी उन्होने खूब रुचि ली। फिर नोएडा के पास भट्टा पारसोल गाँव में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ भी उन्होंने हिस्सेदारी की और अपनी एकता का इज़हार किया। रोहित वेमुल्ला की मौत के बाद जो विरोध में आंदोलन हुए, उनमें भी और जेएनयू के आंदलोनों में उन्होंने अपनी हिस्सेदारी की।

पुष्पराज ने वर्गीज़ से बात करते हुए अफसोस ज़ाहिर किया कि जन-आंदोलन और जन-सरोकारों को उठाने वाले अखबार अब नहीं के बराबर रह गए हैं। वर्गीज़ ने इस लेख में अपनी तरफ से भी ये जानकारी दी कि पटना और आस-पास से निकालने वाले जाने कितने ही छोटे छोटे अखबार बंद हो गए हैं। वर्गीज़ इस लेख के अंत में बहुत ही मार्मिक ढंग से लिखते हैं कि पुष्पराज के लिए लड़ाई और संघर्ष के मुद्दे तो कम नहीं हुए हैं लेकिन ऐसे मंचों की कमी पड़ रही है जहां से उन संघर्षों के बारे में सार्थक ढंग से आवाज़ उठाई जा सके।

बुंदेलखंड में लोग युद्ध नहीं पानी के बारे में सोचते हैं

चुनाव के मौसम में ये परंपरा जैसी है कि केंद्र में राजनीति कवर करने वाले पत्रकार दिल्ली छोडकर ग्राउंड-रिपोर्टिंग या ज़मीनी रिपोर्टिंग के लिए देश के कुछ हिस्सों में या यूं कहें कि हिन्दी पट्टी के राज्यों और गुजरात आदि जैसे राज्यों में जाते हैं। इससे उनका आगे के लिए एक नज़रिया (perspective) भी बनता है और फील्ड-रिपोर्टिंग करने से राजनीति समझने में मदद मिलती है। इस बार के चुनावों में भी कई अखबारों में ऐसी रिपोर्ट्स देखने को मिली हैं जिनसे वहाँ के वोटर का मूड पता चलता है।

ऐसी ही रिपोर्टों में एक आज हिंदुस्तान टाइम्स में देखने को मिली जो इस सीज़न की अब तक आईं श्रेष्ठ रिपोर्ट्स में से है। स्मृति काक रामचंद्रन द्वारा इस रिपोर्ट की खासियत ये है कि यह बुंदेलखंड क्षेत्र का सारा दर्द उकेर कर ले आती है लेकिन बिना ‘ओब्जेक्टिविटी’ खोये – यदि एक न्यूज़-रिपोर्ट अपनी सीमाएं तोड़े बिना ‘क्लासिकल’ शैली में लिखी जाने के बावजूद पाठक को भावुक कर दे तो समझिए कि वो वाकई असरदार है।

इसी रिपोर्ट में से एक बानगी देखिये – सागर ज़िले के बेलाग्राम में 800 घरों के लिए सिर्फ एक कुंआ है। पानी की इतनी कमी है कि पास का स्कूल तो गर्मियों में बंद ही रहता है। अध्यापक कहाँ से पानी का इंतजाम करें और छोटे छोटे बच्चे बिना पानी के कैसे रहें। इस गाँव के साथ बहुत सारे वायदों में एक था कि बिला बांध के बन जाने के बाद उनके गाँव तक नल का पानी आएगा लेकिन अभी तो वो बस एक हसीन सपना ही है।

इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि लोगों की ये आम शिकायत थी कि उन्हें उज्ज्वला योजना के अंतर्गत मुफ्त सिलेन्डर नहीं मिला। उन्होने बताया कि पहली बार भी उन्हें रेगुलेटर के लिए 1200 रुपए देने पड़े, फिर सिलेन्डर रि-फ़िल के वक़्त 600 से 700 रुपए! गैस का इस्तेमाल कभी-कभार ही होता है, ईंधन के तौर पर लकड़ियों का जलावन ही अभी भी काम में आता है।

इसके अलावा ज़्यादातर ग्रामीणों ने यह भी बताया कि डायरेक्ट कैश ट्रान्सफर के लिए जो खाते खोले गए थे, उन तक उनकी कोई पहुँच नहीं है। अन्य योजनाओं में प्रधानमंत्री आवास योजना की भी चर्चा ग्रामीणों ने की। उनका कहना था कि योजना गाँव तक पहुंची ज़रूर थी लेकिन अधिकारी योजना का लाभ देने के लिए रिश्वत की मांग करते हैं।

इस रिपोर्ट के अंत में बहुत ही अच्छे से राम शंकर नाम के स्थानीय व्यापारी को उद्धृत करते हुए लिखा गया है – “भाजपा के सब नेता पाकिस्तान के बात कर रहे हैं। ठीक है, मोदी जी ने (पाकिस्तान के संदर्भ में) बहुत अच्छा काम किया है और उन्हें एक बार और आना चाहिए लेकिन कोई हमें ये तो बताए कि हमें पीने के लिए पानी कब तक मिलेगा? सिंचाई के लिए छोड़िए, कम से कम पीने का पानी तो मिलना चाहिए”।

….विद्या भूषण अरोरा

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