‘न्याय’ लागू करना क्यों मुश्किल, राहुल पप्पू तो नहीं लगते, मार्क टली के चुनाव-प्रणाली पर सवालिया निशान और क्षेत्रीय भाषाओं के उपन्यासों के अनुवाद की पहल

अखबारों से – 5

रविवार, 5 मई को अखबारों के कुछ लेखों का सार और हमारा मत

आसान नहीं ‘न्याय’ की राह

स्वाति नारायण (एक सामाजिक कार्यकर्ता) का बिज़नेस स्टैंडर्ड अखबार में एक लेख आया है जिसमें उन्होने ये निष्कर्ष निकाला है कि कांग्रेस् पार्टी की बहुचर्चित स्कीम न्यूनतम आय योजना (न्याय) में यदि कुछ आधारभूत बदलाव नहीं किए गए तो उससे वांछित परिणाम पाना काफी मुश्किल होगा। स्वाति की सबसे पहली आपत्ति ये है कि न्याय केवल 20% सबसे गरीब परिवारों के लिए है।

दूसरे वो इसकी तुलना नरेगा से करती हैं और उदाहरण देते हुए बताती हैं कि इस योजना के तहत एक गरीब बिहारी परिवार को बिना रत्ती भर भी काम किए वर्ष में 72,000 रुपए मिल जाएँगे जो कि उसे नरेगा के तहत मिलने वाले पैसे का सीधा चार गुना होगा। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि इस योजना का गणित कैसे लगाया गया और क्या ये करना संभव भी होगा। संभवत: स्वाति भी ज्यां द्रां की तरह योजना के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि वह भी कहती हैं कि यदि ‘न्याय’ केवल पांचवा हिस्सा तक ही सीमित रहा तो कांग्रेस के लिए ये वोट पाने में भी मददगार होगा, इसमें संदेह है।

स्वाति ज़ोर देकर कहती हैं कि यदि ‘न्याय’ को सबके लिए लागू ना किया गया तो गरीब लोग बिचौलियों के शिकार होंगे और उनको पाना अधिकार लेना मुश्किल हो जाएगा, चाहे उनसे संबंधित डाटा कितना भी अच्छा और वैज्ञानिक क्यों ना हो।

साथ ही स्वाति कहती हैं कि जब बेरोजगारी इतनी बढ़ चुकी है तो ये बहुत ज़रूरी हो जाता है कि शहरों में भी नरेगा की भाँति कोई रोजगार सुरक्षा योजना लाई जाए। हाल ही में सत्ता आई कांग्रेस की मध्यप्रदेश सरकार भी त्रिपुरा और केरला की तर्ज़ पर शहरी बेरोजगारों के लिए योजना लाई जानी चाहिए।

हमारा मत: लेख पढ़कर अंदाज़ होता है कि स्वाति ‘न्याय’ को गरीबी मिटाने के लिए काफी नहीं मानती और वह इसके वर्तमान स्वरूप से कहीं ज़्यादा लोकोपकारी योजना चाहती हैं। एक बिज़नेस पेपर में ऐसा लेख पढ़कर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता होती है। इतना जोड़ना चाहेंगे कि अब हमने जो आर्थिक मोडेल अपनाया है, उसके चलते देश में रोज़गार बहुत बढ़ें, इसकी संभावना बहुत ज़्यादा नहीं है। ऐसे में देर-सवेर ये आवश्यक हो जाएगा कि हमें ‘न्याय’ जैसी योजनाएँ सभी वर्गों के लिए लानी पड़ें क्योंकि यदि रोज़गार नहीं होगा तो लोगों को आधारभूत गुज़ारे के लिए कुछ तो देना ही होगा न।

क्या आनुपातिक प्रतिनिधितत्व के आधार पर चुनाव होने चाहियेँ?

जैसा कि कल इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख इसी विषय पर था, आज हिंदुस्तान टाइम्स में कई दशकों से भारत में पत्रकारिता कर रहे ब्रिटेन के मार्क टली का एक लेख आया है जिसमें उन्होंने आनुपातिक आधार पर चुनावों की बात कही है। चुनावी मौसम में चुनाव-प्रक्रिया पर चर्चा कोई नई बात भी नहीं क्योंकि इन्हीं दिनों लोग नए सिरे से विभिन्न दलों द्वारा पाये गए वोटों की विस्तार से समीक्षा आदि करते हैं। मार्क ने 2014 के चुनावों का ज़िक्र करते हुए लिखा कि कुछ लोगों को लगता है मोदी लहर में जैसे मोदी को अपार जन-समर्थन मिला हो लेकिन ज़रा मुड़कर देखें तो पता चलता है कि भाजपा कुल डाले गए मतों में से केवल 31% वोट शेयर पाकर 282 सीटें पा गई। दूसरी तरफ, कांग्रेस को सिर्फ 44 सीटें ही मिलीं जबकि उसका वोट शेयर चाहे पहले से कितना कम हो लेकिन फिर भी 19% था। और बसपा को तो 4% से भी ज़्यादा वोट मिले किन्तु उसे एक भी सीट नहीं मिली।

मार्क का कहना है कि यदि आनुपातिक आधार पर वोट गिने जाते और उनके आधार पर सीट मिलती तो 2014 में भाजपा को 170 और कांग्रेस को 110 मिलतीं। हालांकि बाद में अपने ही तर्क को काटते हुए मार्क ये भी कहते हैं कि शायद यहाँ के लिए ‘फ़र्स्ट पास थे पोस्ट’ का ही सिस्टम बेहतर हैं। कल इंडियन एक्सप्रेस के लेख में, जिसकी चर्चा हमने अपने स्तम्भ में की थी, यह कहा गया था कि आनुपातिक और सीधे चुनाव – इन दोनों के मिश्रण को अपनाने से एक अच्छी प्रणाली विकसित की जा सकती है।

इसी लेख में उन्होंने यह भी कहा है कि गठबंधन सरकारों से देश को डरना नहीं चाहिए क्योंकि पिछला अनुभव बताता है कि देश के दो सबसे सफल प्रधानमंत्री जिनके आर्थिक सुधार अच्छे से हुए, नरसिंह राव और वाजपेयी – दोनों ही गठबंधन सरकारें चलाते थे।

हमारा मत: देश में चुनाव सुधारों की आवश्यकता काफी समय से महसूस की जा रही है लेकिन ये तभी किए जा सकते हैं जब देश के सभी वर्ग इन पर एक सर्वानुमती बना लें। और गठबंधन सरकारों पर हम आपको याद दिला दें कि इस वैबसाइट पर हमने भी एक लेख लिखा था “ये खिचड़ी उतनी बेस्वाद नहीं” जिसमें हमने बताया था कि भारत में भी और विदेश में भी गठबंधन सरकारें बेहतर काम करती देखी गईं हैं।  

स्वप्न दासगुप्ता के अनुमान

भाजपा समर्थक स्तरीय बुद्धिजीवियों की संख्या ज़्यादा नहीं है और स्वप्नदासगुप्ता उनमें प्रमुख हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया हर सप्ताह उनका एक लेख प्रकाशित करता है। इस बार के लेख में वह दबे स्वर से यह मानते हैं कि इस बार राहुल गांधी ने अपने को कांग्रेस के नेता के रूप में स्थापित कर लिया है और कांग्रेस इस बार 2014 की तरह नेता-विहीन पार्टी की तरह चुनाव नहीं लड़ रही। पार्टी को इस बात का श्रेय देते हुए कि वह ‘न्याय’ जैसी लोक-लुभावन योजना को सामने लाकर पहले से बेहतर लग रही है, दासगुप्ता कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी तीन समस्याओं से ग्रस्त है।

पहली तो ये कि राहुल गांधी के बेलगाम बयानों की वजह से पार्टी को बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। (हालाँकि उन्होंने ये खुलासा नहीं किया कहाँ ये शर्मिंदगी उठानी पड़ी – क्या सुप्रीम कोर्ट में?)। दूसरे वो बताते हैं कि कांग्रेस से पास कोई संगठनात्मक ढाँच ना रह जाने के कारण वह बहुत घाटे की स्थिति में हैं। उदाहरण के तौर पर वो प्रियंका गांधी का उदाहरण देते हैं कि उनके आने की जोरदार चर्चा तो हुई लेकिन उनके आने से जो लाभ मिल सकता था, वो कार्यकर्ताओं के अभाव में बिलकुल नहीं मिलेगा। तीसरी समस्या वो ये बताते हैं कि कांग्रेस कोई ठीक सा गठबंधन ही नहीं कर सकी। आज विपक्ष उसी तरह बिखरा हुआ है जैसा कि वह 1971 और 1984 में कांग्रेस के विरुद्ध बिखरा हुआ था।

लेख के अंत में अपना अनुमान देते हुए दासगुप्ता कहते हैं कि अगर दक्षिण भारत के कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाये तो देश भर से एक सांझा धागा सब विचारों को जोड़ रहा है और धागा है मोदी की अपील का। एक मोटा मोटा अनुमान यही है है कि मोदी को समर्थन देने के नाम पर सब उत्साहित हैं। मोदी-विरोधी विचार के लोग इधर-उधर बिखरे पड़े हैं, उनका मानना है।

हमारा मत: ये स्तंभकार कोई अनुमान नहीं लगाना चाहता लेकिन मोदी जी के नाम पर दासगुप्ता जी को जो ‘ब्रॉड कॉनवरजेंस’ दिख रहा है, वह हमें अपने उत्तरप्रदेश के तीन जिलों के दौरे में नहीं दिखा। यदि कांग्रेस ने सपा-बसपा के गठबंधन को उत्तर प्रदेश में ज़्यादा नुकसान नहीं पहुंचाया तो कोई बड़ी बात नहीं कि सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही भाजपा 30-40 सीटें खो बैठे।

राहुल गांधी ‘पप्पू’ तो कतई नहीं लगते

आज इंडियन एक्स्प्रेस में राहुल गांधी का एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। रविश तिवारी और सी जी मनोज द्वारा लिया गया ये साक्षात्कार बहुत स्वत:स्फूर्त और स्वाभाविक लग रहा है और प्रधानमंत्री मोदी के उन साक्षात्कारों से बिलकुल अलग है जिनमें कोई मुश्किल सवाल नहीं पूछा जाता। कुछ सवालों के जवाब हो सकता है, राजनीतिक तौर पर उतने mature ना हों, लेकिन ऐसा जरूर लग रहा था कि वह अपने इरादों में ईमानदार हैं और जो बात कर रहे हैं मन से कर रहे हैं। हमारा इरादा यहाँ उस इंटरव्यू के सार देने का नहीं हैं। अगर आपने ना पढ़ा तो यहाँ पढ़ सकते हैं।

उपन्यासों का अनुवाद करने की पहल

हिन्दू अखबार ने मुंबई में शुरू हुई एक पहल पर लेख लिखा है जिसमें उन्होने बताया है कि कैसे ‘इंडियन नोवेल्स कलेक्टिव’ (आईएनसी) नामक ये ग्रुप भारतीय भाषाओं मे प्रकाशित उपन्यासों का अनुवाद अंग्रेज़ी में करने का बीड़ा उठा रहा है।

इस समूह ने तय किया है कि ये लगभग दो वर्ष में यानि 2020 के अंत तक लगभग 100 क्षेत्रीय भाषाओं के उपन्यासों को ‘Speaking Tiger’ से प्रकाशित करवा लेगा। इस लेख में अभी तक चुने गए उपन्यासों में हिन्दी के एक उपन्यास “पचपन खंबे लाल दीवारें” का नाम आता है। उषा प्रियम्वदा का यह उपन्यास अपने समय में बहुत चर्चित हुआ था।

हमारा मत: यह प्रयास कुछ लोगों ने अपने निजी स्तर शुरू किया है लेकिन भारत जैसे एक बहुभाषी देश में ये काम सरकारों (केंद्र और राज्य) को बड़े स्तर अपर करना चाहिए। वैसे अभी भी केंद्र सरकार से अनुदान पा रही साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएं ये काम कर रही हैं किन्तु इसे बहुत ही व्यापक स्तर पर किए जाने की ज़रूरत है। और सिर्फ हिन्दी और इंग्लिश में ही नहीं, हर भाषा के पुराने और नए साहित्य का अन्य प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए।

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