क्या चुनाव आयोग कायर है? मतदाता ही नए चुन लें, सीता की रसोई तथा नोटबंदी खारिज

अखबारों से – 6

इस कड़ी में आज हम करण थापर का लेख जिसमें उन्होंने चुनाव आयोग पर हमला बोला है लेंगे। फिर सीमा चिश्ती ने इंडियन एक्सप्रेस में राजनीतिक दलों की एक गैर-वाजिब मांग को रेखांकित किया है जो सिद्धांतत: लोकतान्त्रिक परम्पराओं के विरुद्ध जाती है। इसके बाद मिंट के दो लेख जिसमें पहले का विषय काफी गंभीर है जिसमें रजनी बक्शी ने धार्मिक प्रतीकों को पर्यावरण से जुड़े होने की बात कही है और ऐसा काफी कुछ है जो जटिल है लेकिन समझना ज़रूरी है। मिंट का ही दूसरा लेख उस शृंखला से है जिसमें उन्होने मोदी सरकार की विभिन्न योजनाओं की चर्चा की है। इस लेख में नोटबंदी पर चर्चा है।

क्या चुनाव आयोग कायर है?

करण थापर चुनाव आयोग द्वारा प्रधानमंत्री को आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में क्लीन चिट दिये जाने से खासे नाराज़ लग रहे हैं। प्रधानमंत्री ने वर्धा में एक रैली में कहा था – “कांग्रेस ने हिंदुओं को अपमानित करने का काम किया है…पूरे विश्व को परिवार मानने वाले हिन्दू समाज को आतंकी कह दिया…आतंकवाद हिन्दू के साथ जोड़ दिया…ये आतंकवादी हिन्दू की सजा उनको मिल चुकी है, इसलिए भाग करके जहां मेजोरिटी माइनरिटी में है वहां शरण लेने के लिए मजबूर हो गए हैं.” माना जाता है कि ऐसा कह कर प्रधानमंत्री ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा केरल के वायनाड सीट से चुनाव लड़ने की ओर इशारा किया था. 

करण थापर पूछते हैं कि जब प्रधानमंत्री ये कहते हैं कि कांग्रेस ने हिंदुओं को अपमानित करने का काम किया है तो क्या ये धर्म के आधार पर अपील करने जैसा काम नहीं हुआ?

थापर लिखते हैं कि प्रधानमंत्री ने तीन अलग अलग चुनाव क़ानूनों का उल्लंघन किया है। पहला तो मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट के सेक्शन 1.3 का उल्लंघन जिसमें ये स्पष्ट कहा गया है कि जाती या धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगे जाएंगे। दूसरा उन्होंने जनप्रतिनिधि कानून के सेक्शन 123 (3A) का उल्लंघन किया जिसमें कहा गया है कि धर्म के आधार पर नफरत फैलाना भ्रष्ट आचरण माना जाएगा। वह पूछते हैं कि क्या मोदी जी ने अपने भाषण में लगभग ऐसा ही नहीं किया?    

इन दो चुनाव संबन्धित क़ानूनों के बाद थापर आई पी सी (भारतीय दण्ड संहिता) पर आते हैं और कहते हैं कि दो समुदायों के बीच धर्म के आधार पर दुशमनी पैदा करना जो उन समुदायों के बीच सौहार्द बनाए रखने में बाधक हो, यह धारा 153(A) का उल्लंघन है।

सबसे बड़ी बात ये है, थापर लिखते हैं, कि चुनाव आयोग ने अपने इन निर्णयों तक पहुँचने की कोई प्रक्रिया नहीं बताई है और ना कोई कारण कि आखिर किस आधार पर प्रधान मंत्री जी के खिलाफ शिकायतें खारिज की गईं हैं।

अंत में करण थापर कहते हैं कि ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग कायर है और उसने प्रधान मंत्री के खिलाफ जाने की बजाय उन्हें माफ करना ज़्यादा आसान समझा। साथ ही वो कहते हैं कि मेरी दुआ है कि चुनाव आयोग मुझे गलत साबित कर दे और वह अगर ऐसा कर सका तो मैं तुरंत माफी मांग लूँगा।

इसी से संबंधित एक खबर का ज़िक्र भी यहाँ अनुचित ना होगा। इकनॉमिक टाइम्स में अनुभूति विश्नोई ने एक एक्सक्लूसिव खबर में बताया है कि वर्धा के भाषण के मामले में प्रधान मंत्री को क्लीन चिट देने की मामले में चुनाव आयोग को सर्व-सम्मति के बजाय बहुमत के आधार पर फैसला लेना पड़ा क्योंकि तीन में से एक आयुक्त अशोक लवासा ने क्लीन चिट देने के विरुद्ध अपनी राय रखी थी। इस खबर में यह भी बताया गया है कि लवासा ने यह भी मांग की थी कि उनकी असहमति को भी रिकॉर्ड पर लिया जाये और बहुमत के फैसले के साथ उनकी असहमति को भी सार्वजनिक किया जाये किन्तु उनकी यह बात भी नहीं मानी गई।

ये नए मतदाता चुनने जैसी बात हुई!

सीमा चिश्ती ने इंडियन एक्सप्रेस में पाने लेख में इस बात पर हैरानी प्रकट की है कि मतदाताओं से धर्म के आधार पर वोट करने की मांग करके दो बिलकुल अलग तरह की विचारधाराओं वाली पार्टियों (भाजपा और राजद) ने एक ही तरह की बात की है जो लोकतन्त्र की भावना के विरुद्ध जाती है। सीमा ने एक तो प्रधान मंत्री के वर्धा वाली स्पीच का ज़िक्र किया जिसके बारे में हमने ऊपर भी चर्चा की है – इसके बारे में उनका कहना था कि प्रधानमंत्री का ऐसा कहना कि राहुल गांधी ऐसे चुनाव क्षेत्र से लड़ रहे हैं जहां बहुसंख्यक अल्पसंख्या में हैं, एक तरह से ऐसा कहना है कि मानो अल्पसंख्यकों के वोट से चुना जाना वैध ही नहीं है।

इसके उलट, सीमा लिखती हैं, बेगू सराय में लालू यादव की पार्टी राजद ने कहा कि कन्हैया ऐसी जगह से चुनाव लड़ रहे हैं जहां से राजद के मुस्लिम उम्मीदवार डॉ तनवीर अहमद भाजपा के खिलाफ लड़ रहे हैं। राजद कन्हैया के चुनाव लड़ने को धर्म-निरपेक्षता के खिलाफ बता रही है क्योंकि डॉ तनवीर अहमद मुस्लिम हैं।

सीमा याद दिलाती हैं के धर्म और जाति के आधार पर वोट मांगने को देश बहुत पहले ही रिजैक्ट कर चुका है। 1932 में जब डॉ अंबेडकर भी जाति के आधार पर अलग चुनाव क्षेत्रों की अंग्रेजों की योजना का समर्थन कर रहे थे तो गांधी जी ने अनशन करके डॉ अंबेडकर को अलग चुनाव क्षेत्रों की बजाय आरक्षित सीटों के सिद्धांत पर राज़ी किया था।

अंत में सीमा महान जर्मन कवि, नाटककार और दार्शनिक बर्तोल ब्रेख्त के उस प्रसिद्ध कथन को उद्धृत करती हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि “Would it not be easier for the government to dissolve the people and elect another?”

अयोध्या में सीता जी की रसोई

रजनी बक्शी ने मिंट अखबार में एल लंबा लेख लिखा है जिसमें अयोध्या विवाद को एक नया आयाम दिया है। उनकी प्रस्थापना है कि अयोध्या विवाद को अभी तक केवल हिन्दू-मुस्लिम के कोण से देखा गया है जबकि अयोध्या का एक पर्यावरणीय आयाम भी है जो अब तक ओझल रहा है।

लेख में वह उस तसवीर की याद दिलाती हैं जो हिन्दू संगठन राम-मंदिर के संदर्भ में प्रचारित करते हैं। इस तस्वीर में राम को धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाये दिखाया गया है और तुलसी रामायण की एक पंक्ति उद्धृत है ‘भय बिन होऊ ना प्रीति’! रजनी कहती हैं कि यह उद्धरण तो ठीक है किन्तु पूरा संदर्भ भ्रामक है। वह पाठकों को याद दिलाती हैं कि राम जो बहुत धैर्यवान और स्थितप्रज्ञ हैं, क्षण भर को आवेश में आते हैं जब वह समुद्र अर्थात प्रकृति को अपने वश में करना चाहते हैं लेकिन तभी सागर समुद्रदेव के रूप में प्रकट होकर उन्हें याद दिलाता है कि वह तो केवल प्रकृति के नियमों का पालन कर रहा होता है। यदि वह अपने को सुखा लेगा तो सारा सामुद्रिक जीवन समाप्त हो जाएगा। तो समुद्रदेव कहते हैं कि क्या राम उन्हें प्रकृति के विरुद्ध जाने को कह रहे हैं जो प्रकृति स्वयम उनकी (भगवान विष्णु जिनके श्री राम अवतार थे) बनाई हुई है?  तब राम मुस्कराते हैं और अग्निबाण वापिस ले लेते हैं और उसके बाद समुद्र को पार करने का एक अनूठा तरीका निकाला जाता है जो प्रकृति के अनुकूल होता है और सेना जिससे पार भी हो जाती है। रजनी कहती हैं कि ये सब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि ये सारा प्रयास सीता जी को स्वतंत्र करने के लिए हो रहा होता है – सीता जी जो स्वयम धरती माँ की पुत्री हैं।

इसके बाद रजनी बाबरी मस्जिद के बगल में बनी ‘सीता की रसोई’ का लंबा सा ज़िक्र करती हैं। वह रामचन्द्र गांधी की एक किताब का ज़िक्र करती हैं जिसमें उन्होने कहा है कि सीता की रसोई की भावना के अनुरूप अयोध्या को ना केवल हिन्दू-मुस्लिम की एकता के प्रतीक के तौर पर बल्कि बल्कि प्रकृति और मनुष्य के बीच के सामजस्य के प्रतीक के तौर पर भी देखा जाना चाहिए।

रजनी कहती हैं कि हिन्दू और मुस्लिम अपनी पहचान के संकट में इस कदर खोये हैं कि वो ‘अदर’ (other) या अन्य को देख ही नहीं पा रहे – वो अन्य जो उन्हीं से निकला है या ये तीनों एक ही स्रोत से निकले हैं। हमें ये आत्म-चेतना जगनी होगी कि हम जीवित मनुष्य और इस जगत के अन्य पदार्थों का स्रोत एक ही है, हम उन सबसे एकाकार हैं, तभी हमें समझ आएगी कि हम क्यों धर्म और जाति के नाम पर लड़ रहे हैं।

अयोध्या के फसाद का हल क्या होगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि हम अपने दैनंदिन जीवन में क्या चुनते हैं? क्या हम ऐसा जीवन चुनना चाहते हैं जिसमें हम उसको अपने वश में करके ही रहेंगे जो other या अन्य है और हमसे अलग दिखता है (चाहे वो अलग दिखने वाले लोग हों या इस चराचर जगत के अन्य पदार्थ) या फिर हम अपनी उस अंतशचेतना को जगाएँगे जो हमें यह आत्मबोध देगी कि जो other या अन्य है और जो हमसे भिन्न और अलग दिख रहा है (चाहे वो लोग हैं या प्रकृति के अन्य उपादान) उसे हम गले लगाएंगे, अपना लेंगे (क्योंकि हम उस उससे भिन्न नहीं हैं)। 

नोटबंदी एक असफल योजना थी

रजनी बक्शी के इस गंभीर लेख के बाद हमारा मूड नहीं है कि हम मिंट अखबार के उस दूसरे लेख की चर्चा करें जो आज हमने उपरोक्त लेखों के साथ चर्चा के लिए चुना था। मिंट ने एक लंबी सीरीज़ चलाई है जिसमें मोदी सरकार के विभिन्न फैसलों की समीक्षा की जाती है। इस लेख में नोटबंदी पर चर्चा है और इसे पूरी तरह असफल बताया गया है। अगर आपको विस्तार से पढ़ना है तो लिंक हमने दे ही दिया है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here