प्रेमचंद प्रसंग: गुल्ली-डंडा कहानी की समीक्षा

प्रेम चंद जयंती (31 जुलाई) पर विशेष

राजेंद्र भट्ट*

पिछले वर्ष प्रेमचंद जयंती (31 जुलाई 2020)  के अवसर पर रागदिल्ली में अपने लेख में मैंने उनकी एक कम चर्चित कहानी तावान की चर्चा की थी और इस बहाने एक गंभीर लेखक के, मात्र समीक्षकों और लेखकों से आगे जाकर,  संवेदनशील-सहृदय पाठकों तक पहुँच पाने, उन्हें  बेहतर इंसान बनाने में योगदान दे पाने और कहानी में ‘सुनाने’ योग्य ‘कथा-पन’ ला पाने जैसी चुनौतियों का उल्लेख किया था। एक वर्ष बात फिर एक बार उनकी जयंती के अवसर पर उसी चर्चा  को आगे बढ़ाते हुए, अन्य कम चर्चित कहानियों गुल्ली-डंडा और नशा पर बात करते हैं। मेरा आग्रह है कि इस लेख को सही परिप्रेक्ष्य में समझ पाने के लिए पिछले लेख पर सरसरी नज़र डाल लें।

पहले की तरह, आपसे इन दोनों कहानियों को पढ़ लेने काआग्रह भी कर रहा हूँ – लिंक ऊपर दे दिये हैं। इस पाठ से, पिछले लेख की ही तरह, यह बात पुष्ट हो रही है कि:

  • दोनों कहानियों में  वह सुनी और सुनाई जा सकने वाली सरसता, सहजता और सरलता  है जिससे यह  सहृदय-संवेदनशील पाठक को समझ में आएगी। (लेकिन जैसा पिछले लेख में कहा था कि ज़रूरी नहीं, हर व्यक्ति को अच्छा साहित्य चम्मच में मीठी दवा की तरह पिला कर समझ में आ जाए और असर करे।  ‘पैसा-स्टेटस कमाऊ’ पर संवेदना के स्तर पर छिछोरे, मानसिक बीमार – ऐसे कई वर्ग हो सकते हैं जिनके  संवेदना, सह-अनुभूति (एंपैथी) पैदा करने और बेहतर बनाने वाले साहित्य की समझ के ‘एन्टेना’ न हों और वे दोष प्रेमचंद और साहित्य पर डाल दें – इसीलिए कहानी की समझ के लिए  संवेदनशील-सहृदय होने की शर्त तो है ही।)
  • साथ ही, जैसा पिछले लेख में कहा था कि कसौटी और चुनौती यह है  मेरे ‘नॉन-ग्रेजुएट’ पर सहृदय पिता जैसे और ऐसे ही गाँव-कस्बे के लोगों को ये दोनों कहानियाँ समझ में आएंगी, उन्हें इंसान के रूप में  ज्यादा अच्छा,  ज्यादा सौम्य  बनाएँगी। ठीक वैसे ही, जैसे, अवधी समझने वाले सहृदय-संवेदनशीलों को ‘रामचरित मानस’, बिना किसी पंडित-समीक्षक की मदद से,  सरस-बेहतर बनाती है। ( नीरस पंडित-समीक्षक तो इस रसमयता की स्थिति से बेचारे सहृदय पाठक को नीचे खींच लाते हैं।) 
  • प्रेमचंद के साहित्य-अमृत को  सहृदय-संवेदनशील जन तक पहुँचने में सस्ते, ‘पल्प’ साहित्य, सतही सीरियलों-फिल्मों, ‘व्हाट्स एप’ वाली  फटाफट अहंकारी-नफरती मूर्खता के ‘जंक फूड’ से कोई खतरा-चुनौती नहीं है। ( जिसका रोना अक्सर प्रेमचंद की भाषा-शैली में संवाद कर पाने में  अक्षम कई ‘प्रबुद्ध’ लेखक-संपादक-समीक्षक रोते हैं। )

आइये, अब गुल्ली-डंडा कहानी का सार-संक्षेप देखें। बोल्ड अक्षरों में कहानी के वे हिस्से हैं, जो आगे चर्चा  में मदद करेंगे।

 यह कहानी ‘मैं-शैली’ में है, यानि कथाकार इसका ‘नरेटर’ और चरित्र भी है। वह इलाके के थानेदार का बेटा है और बीस साल बाद  रुतबेदार इंजीनियर होकर अपने बचपन के गाँव के डाक बंगले में टिका है। यहाँ उसे बचपन में खेला  गुल्ली-डंडा का खेल याद आता है। इसे ‘खेलों का राजा’ बताते हुए वह टिप्पणी करता है,” विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब यह है कि उनके सामान महँगे होते हैं।… हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गई है।…. अँगरेजी खेल उसी के लिए है, जिसके पास धन है।…ठीक है, गुल्ली से आँख फूट जाने का भय रहता है, तो क्या किक्रेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टाँग टूट जाने का भय नहीं रहता!”

छूआ-छूत, विषमता और दिखावे से दूर बचपन के साथ-साथ नरेटर, तब के गुल्ली-डंडा के जुनून का सरस-सजीव वर्णन करता है। कथित ‘नीची जाति’ के गरीब साथी गया को याद  करता है, जो चुस्त, निपुण और गुल्ली-डंडा का ‘चैंपियन’ है। सभी उसे अपना ‘गोइयाँ’ (अपनी ‘टीम’ का सदस्य) बनाना चाहते हैं।

एक बार नरेटर लंबे समय से पद रहा था, गया पदा रहा था। पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते हैं, पदना एक मिनट का अखरता है। कथा-लेखक बच्चा घर जाना चाहता था, पर गया अपना दांव लेने पर अड़ा हुआ था। दोनों के संवाद और ‘तर्क’ देखिए। (गया बोला)-

घर कैसे जाओगे, कोई दिल्लगी है। दाँव दिया है, दाँव लेंगे।’
अच्छा कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।’
वह तो पेट में चला गया।’
निकालो पेट से, तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?’
अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे माँगने न गया था।’
जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दाँव न दूँगा।’

मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। ….भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दाँव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पाँचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।

गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा- मेरा दाँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता।

मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली-ही नहीं, एक चाँटा जमा दिया। मैंने उसे दाँत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरन्त आँसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।

कुछ समय बाद, नरेटर के पिता का तबादला बड़े शहर में हो जाता है, जहां उसकी पढ़ाई ‘अंग्रेजी स्कूल’ में  होनी है। अब तक बराबरी वाले गाँव के मित्र उसे नत-मस्तक भाव से विदा देते हैं।

और अब काबिल इंजीनियर साहब पूछ-ताछ कर, गया को  बुलवा लेते हैं। गले लगाने को  उसकी ओर लपकना चाहते हैंपर कुछ सोचकर रह जाते हैं।

गया बताता है कि वह डिप्टी साहब का सईस ( घोड़ावान) है और मित्र का वर्तमान परिचय जानकर कहता है, ‘सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे।“

नरेटर प्रस्ताव करता है कि पुरानी यादें ताजा करते हुए, वे दोनों फिर गुल्ली-डंडा का खेल खेलें। गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था।

मैंने पूछा-तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया? सच कहना।

गया झेंपता हुआ बोला-मैं आपको याद करता हजूर, किस लायक हूँ। भाग में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था; नहीं मेरी क्या गिनती?

मैंने कुछ उदास होकर कहा- लेकिन मुझे तो बराबर, तुम्हारी याद आती थी। तुम्हारा वह डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न?…. तुम्हारे उस डंडे में जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में।‘

दोनों का खेल शुरू होता है। गया के खेल में पुरानी कशिश, चुस्ती गायब हो चुकी है। वह ’डंडा’ जमा देने वाला गया अब अपने इंजीनियर बाल-मित्र की खेल की बेईमानियां भी मान जाता है। कोई प्रतिरोध नहीं, वह निस्तेज हो चुका है। यहाँ तक कि इंजीनियर साहब को भी मजा नहीं आता।

नरेटर के इसरार पर अगले दिन, अब बड़े हो चुके पुराने ग्रामीण मित्रों का खेल रखा जाता है। यहाँ अपने बराबरी के लोगों के बीच पुराना – चपल-चुस्त, शानदार खिलाड़ी  गया जैसे वापस लौट आता है।  कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। …कहीं कल इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता।

खेल के बीच एक युवक ने कुछ धांधली  की तो तमतमाये  गया के तेवर देख कर युवक डर गया।

खेल खत्म हुआ।  नरेटर का निष्कर्ष था- कल गया ने मेरे साथ …केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा।… वह खेल न रहा था, मुझे खिला रहा था, मेरा मन रख रहा था।यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गई है। मैं अब उसका… अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।

आइये, इस कहानी पर चर्चा करें – प्राध्यापकीय समीक्षा की टकसाली भारी-भरकम शब्दावली के साथ नहीं, जिसका शायद उद्देश्य ही यह पक्का करना होता है कि किसी ऐरे-गैरे साधारण पाठक को कहानी के ‘गूढ’ अर्थ, बिना समीक्षक की मदद के समझ न आ जाएँ – बल्कि समीक्षक का समझाना भी इतना कठिन हो कि उसके बाद भी बेचारा पाठक जान ले कि उसकी छोटी बुद्धि में साहित्य समझने की तमीज नहीं है। जैसे कर्मकांडी पंडित यह सुनिश्चित करता है कि उसका ‘पाठ’ सीधे-साधे  जजमान की समझ में न आए, और उसकी श्रेष्ठता बनी रहे। 

फिलहाल हम तो आम लेकिन सहृदय पाठक की भाषा में ही उन अर्थों को तलाशने की कोशिश करेंगे जो इस कहानी के लिखे जाने के इतने साल बाद, आज भी हमें सहज ही नज़र आ रहे हैं।

पहली बात, यह कहानी उन ‘भले और भोले’ ‘कुलीन-जहीनों’ को अगर बचपन में वर्णमाला के साथ पढ़ा दी जाती तो वे  ‘नीची’ जातियों के ‘अयोग्यों’ के  पढ़ाई-नौकरी में आरक्षण की वजह से  ‘मेरिट’ के प्रति भारी अन्याय और समाज को हो रहे  नुकसान से दुखी नहीं रहते। ‘मेरिट’ या प्रतिभा  क्या है? क्या प्रतिभा गया की उस चपलता, समझ और एकाग्रता में प्रकट नहीं होती जो उसे गुल्ली का ‘चैम्पियन’ और हमारे नरेटर को  अपेक्षाकृत फिसड्डी बनाती है? क्या ‘मेरिट’   अभिभावक के पद-पैसे-जाति की बैशाखियों के सहारे ही आगे निकलती है, और इन पद-पैसे-जाति की विषमताओं के हथियार, गया जैसे प्रतिभावानों को एकलव्य बनाते रहते हैं? गया का कथन कि ‘सरकार तो पहले से ही ज़हीन थे’ दरअसल इसके उल्टे तथ्य को बताता है कि पहले से ज़हीन तो गया था, जिसे अगर वो सब मिला होता जो नरेटर को मिला, तो वह ज्यादा आगे निकला होता।

क्या चंद किताबों को, सुविधा की बैशाखियों के सहारे पढ़-लिख कर, एक खास पैटर्न के प्रश्नों का तीन घंटों में उत्तर दे पाने  तक प्रतिभा को संकरा किया जाना उचित है, या प्रतिभा व्यक्तित्व की पूरी समग्रता में आँकी जानी चाहिए, जिसमें तमाम मानवीय गुणों, विवेक के साथ-साथ गया जैसी चपलता, एकाग्रता, निडरता  और सामाजिकता भी शामिल हैं?

इस ‘मेरिट’ में गया की औकात के बाहर के ‘अंग्रेजी’ खेल भी हैं, जो बिना खर्च वाले, आम जन के ‘गुल्ली-डंडा’ को भी ( ‘आंख फोडने वाले खेल’ जैसे  कुतर्कों से) गँवारू बना देते हैं  और गया को प्रतियोगिता से बाहर कर देते हैं।

जाहिर है, ‘प्रतिभा’ के इन स्वीकृत मानदंडों में – शिक्षा, ‘कोटा’ शहर वाली महंगी कोचिंग का ‘कोटा’, फिर ‘डोनेशन’ वाले कॉलेज में, मेहनत से केवल पढ़ाई पर ध्यान लगाने, और फिर जान-पहचान – ऐसे तमाम धन-सत्ता के  ‘आरक्षण’ हैं;  जिनके  दम पर गया से मैदान में ‘पद’ चुके   नरेटर आगे निकल जाते हैं।

इस हमेशा ताजा  लगने वाली कहानी में, गया जैसों के खिलाफ एक नई बात यह हुई है कि उस दौर में, कम से कम, गया  और नरेटर एक स्कूल में पढ़ सकते थे, एक साथ, बिना किसी छूआछूत के खेल सकते थे, पर अब ‘गेटेड कॉलोनीज़’ और ‘पब्लिक स्कूलों’ की नई छूआछूत में तो गया और नरेटर की दोस्ती की कोई गुंजाइश ही नहीं है।

 जाति एक अतिरिक्त दंश है, जो किसी गरीब सवर्ण की तुलना में, गया जैसों को ज्यादा मूर्छित करता है। जीवन के न्यायपूर्ण ‘खेल’ में, जिसकी परीक्षाओं के तरीके भी दूसरों ने तय किए हैं, आरक्षण गया  और नरेटर को एक जगह खड़ा करने का, ‘लेवल प्लेईंग फील्ड’ बनाने का ऐसा तरीका है, जिसे व्यवस्था को न्यायपूर्ण और टिकाऊ बनाने के लिए हमारे समझदार पुरखों  ने बनाया। जैसा कि, कहानी में कहा गया है, कोई भी हमेशा ‘पदने’ का अभिशाप नहीं चाहता और गया को भी कभी गुस्सा आ सकता है!

गया जैसों के ‘बाप को भी नसीब न होने वाले अमरूद’ खिला कर उनकी गुलामी और विषमता को वाजिब ठहराने के तर्क की ‘करुणा’ भी हम अक्सर देखते-सुनते हैं कि इन लोगों पर उदार एहसानों के टुकड़ों का भी असर नहीं पड़ता! यह कहानी ऐसे तर्क वालों को भी समझ की  गहराई सिखाती है।  

साधनों और जाति के अभाव  कैसे गया-जैसों की खुद्दारी की आग पर मन की गुलामी और भाग्यवादी स्वीकार की राख़ डाल देते हैं – यह भी हम बदले हुए गया में देख सकते हैं। दूसरी ओर अपनी पूरी भलमनसाहत के बावजूद, जातीय संस्कार नरेटर को अपने पक्ष में अमरूद वाला तर्क होने, गया  से गले मिलने की इच्छा को दबा देने और उसे ‘टके का मजदूर’ समझने में नज़र आता है।  

प्रेमचंद की यह खूबी है कि उन्हें यह सब बताने के लिए भाषा-शैली के स्तर पर नारे-जुमले नहीं उछालने पड़ते। सबको समझ आने वाली भाषा में प्रेमचंद हर वाक्य में महीन व्यंजना-व्यंग्य की धार कायम रखते हैं, जो उनकी रचनाओं को महान बनाता है।

लेकिन इस कहानी का व्यंग्य गुस्सैल और कटुता  वाला नहीं है। प्रेमचंद का नरेटर, पूरी पारदर्शिता से अपने प्रति निर्मम है – वह खुद पर व्यंग्य करता है। उसकी मानवीय समझ, करुणा, सह-अनुभूति उसे माँजती, निर्मल करती जाती है और अंत में वह समझ जाता है कि सच्चा बड़प्पन गया में है, उसकी अफ़सरी उसे गया की मित्रता से वंचित करती है, अयोग्य और छोटा  बनाती  है। यह दूसरों पर तंज़ कसने, फतवे देने की नहीं, आत्म-आलोचना और आत्म-संघर्ष की यात्रा  है  जिससे गुजरकर, मँज कर नरेटर अधिक मानवीय और  संवेदनशील होकर निकला है।

‘आइडियोलॉजी’, किताबी समीक्षाओं के मुहावरों और समझ की रस्सी और खूँटों के दायरों में तो कई तरीकों से इस कहानी का खंडन-मंडन हो सकता है, पर साधारण-सहृदय पाठक के रूप में इस कहानी ने, नरेटर की तरह  मुझे भी माँजा है, ज्यादा समृद्ध और संवेदनशील बनाया है।

अगली चर्चा होगी – प्रेमचंद की कहानी ‘नशा’ पर।

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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं

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