3. भारत औद्योगिक पुनर्जागरण में विफल क्यों रहा?

अरविंद सक्सेना*

हिन्दी रूपांतर: राजेंद्र भट्ट**

संघ लोक सेवा आयोग के पूर्व-अध्यक्ष श्री अरविंद सक्सेना के पाँच  लेखों की श्रंखला कोविद-19 के परिप्रेक्ष्य में स्वतन्त्रता के बाद से हमारे चुने हुए मार्ग, हमारी राष्ट्रीय नीतियों, प्राथमिकताओं, कार्यशैली और सामाजिक नैतिकता का एक वरिष्ठ ब्यूरोक्रेट की ईमानदार नज़र  से लेखा-जोखा है। पहले लेख में उन्होंने हमारे श्रमिकों की बदहाली, सामाजिक न्याय की पूरी तरह अनदेखी और उसके प्रति हमारे संभ्रांत सुविधा-सम्पन्न  समाज की आपराधिक उदासीनता की चर्चा की है।

दूसरे लेख में, नेताओं और संस्थाओं  द्वारा, अपनी ज़िम्मेदारी से बचते हुए, निहित स्वार्थों के प्रतिनिधियों को ही ‘विशेषज्ञ’ और ‘कंसल्टेंट’ बना कर राष्ट्रीय नीति-निर्धारण – यहाँ तक कि सामरिक नीतियों के निर्धारण के काम भी सोंपे जाने के खतरों से आगाह किया गया है। लेखक ने, जीडीपी जैसे विकास के बरगलाने वाले सूचकांकों की तरफ भी आगाह किया है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि सच्चे विकास और पुख्ता आर्थिक प्रगति  के लिए, कामगार की  वेतन-सुविधाओं में कटौती कर, यहाँ तक कि उसकी छंटनी कर – केवल मालिक का मुनाफा और उच्च-मध्य वर्ग की सुख-सुविधा बढ़ाने का रास्ता समाज के लिए आत्मघाती है। लेखक का मानना है कि ‘भारत’ को सशक्त बनाए बिना, ‘इंडिया’ की चमक कायम नहीं रह सकती।  

लेखों की इस शृंखला में, लेखक संवेदनशील क्षेत्रों के अपने अनुभव के आधार पर बेहद महत्वपूर्ण  ‘डेटा’ की चोरी और दुरुपयोग, संस्थागत भ्रष्टाचार, उभरते और सिस्टम के लाडले सर्विस सेक्टर के हाथों वास्तविक उत्पादन में लगे कामगारों की तबाही के खतरों की तरफ आगाह किया गया है। आपराधिक सिंडिकेटों के बढ़ते दबदबे और उनकी लूट का खामियाजा आम उपभोक्ता के सिर मंडने  के खतरों को भी लेखक की पैनी नज़र ने देखा है।

श्री सक्सेना ने इस तथ्य की तरफ ध्यान दिलाया है कि पिछले कई दशकों से हम टेक्नोलोजी में कुछ भी मौलिक नहीं कर रहे हैं, आईटी क्षेत्र के ‘कोडर’ और ‘एप्स’ बनाने वाले रह गए हैं। अब हम मशीन शॉप पर ठोस काम करने वाले इंजीनियर को तरजीह नहीं दे रहे हैं।

लेखक का मानना है कि सही राह चुनते हुए, हमें शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे क्षेत्रों को सबसे ज्यादा तरजीह देनी होगी। इनका नियमन और निर्देशन सीधे सरकारों के हाथ में  देना होगा।  मुनाफे की जगह पर,  रोजगार और कामगारों के अच्छे वेतनों  को तरजीह देनी होगी। हमें अपनी प्राथमिकताएँ  बदलनी होंगी। कोविद ने हमें यह चेतावनी दी है कि हमें जन के विकास का, खुशहाली का  मार्ग चुनना होगा। हमें विद्वानों-विशेषज्ञों को मैनेजरों पर तरजीह देनी होगी। 

और अंत में, हमें याद रखना होगा कि परिवर्तन कोई अचानक होने वाली घटना नहीं है। यह एक सतत प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया पर अभी से चलते रहने से हम मानवता के हित वाले परिवर्तन तक पहुँच सकेंगे। वरना अचानक ‘घटना’ के तौर पर होने वाला परिवर्तन घातक हो सकता है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया के विविध आयामों पर लेखक के विचार, उनका ‘विजन’ मूलतः महात्मा गांधी का ही ‘विजन’ है – हर वंचित जन की आँखों से आँसू पोंछने का और पूरे समाज को सशक्त बनाने का ‘विजन।‘   

3. भारत औद्योगिक पुनर्जागरण में विफल क्यों रहा?

पिछले चार दशकों में हमारी आर्थिक प्रगति का बड़ा हिस्सा सर्विस सेक्टर, उसमें भी मुख्यतः आईटी सेक्टर का रहा है। कुछ बड़ी कंपनियों को छोड़ कर, ज़्यादातर आईटी स्टार्टअप कई तरह की सेवाएँ जुटा देते वाले प्लेटफॉर्म मात्र हैं, जो कुछ भी उत्पादन  नहीं करते। वे दावा तो सस्ती दरों पर सेवा देने और व्यवस्था की कार्यकुशलता बढ़ाने का करते हैं, लेकिन सच यह है कि वे श्रमिकों की आमदनी घटाते हैं और उन्हें अमानवीय, निर्मम स्थितियों में काम करने को मजबूर करते हैं। दूसरी ओर, वे वास्तविक, ठोस आर्थिक गतिविधियों में लगे  यानि ज़रूरी ‘वस्तुओं’ का उत्पादन करने वाले उद्यमों के उत्पादों  की  कीमतें गिरा कर उनका मुनाफा कम करते हैं। सवाल है – ये सस्ती चीजें किनके लिए हैं? क्या ये उन लोगों के लिए हैं जो ज्यादा पैसे दे सकने में समर्थ हैं, भले ही इन चीजों को सस्ता बनाने के लिए गरीब श्रमिकों को वाजिब पगार नहीं दी जाए  और उन्हें खराब, गंदे माहौल में काम करना पड़े? जबकि ज्यादा पैसा दिए जाने  की ज़रूरत तो इन गरीबों को है ताकि वे ज़रूरत भर की ज्यादा ख़रीदारी कर सकें और इस तरह अर्थव्यवस्था को ताकत दे सकें। गरीब के लिए थोड़ा खुले हाथ से खर्च कर देना हमेशा अच्छा होता है। इससे ज्यादा रोजगार पैदा होते हैं और हमारे कामगारों की जीने की स्थितियाँ बेहतर होती हैं।

      क्या आप जानते हैं कि बैंकिंग सेक्टर में धोखाधड़ी का खामियाजा कौन भुगतता है?  कर्मचारियों की संख्या में कटौती कर के वित्तीय संस्थाएं तो अपने कारोबार की लागत घटा लेती हैं, लेकिन धोखाधड़ी होने पर इसका नुकसान ग्राहकों के सिर थोप दिया जाता है, उनसे बड़ी दरों पर प्रोसेसिंग फीस ली जाती है और उनकी जमा रकम पर ब्याज दरें घटा दी जाती हैं। एक बार फिर, हम उन लोगों को और अधिक धन दिला रहे हैं जिनके पास पहले ही खूब पैसा है, दूसरी ओर उन गरीबों का पैसा छीना जा रहा है जिनकी नौकरियां, टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के बहाने,छीन ली गईं हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि आपराधिक प्रवृत्ति वाले नए उद्यमियों  की पौध पनपी है जो संवेदनशील डेटा और जानकारियों का  अनैतिक तरीके से इस्तेमाल कर और बेच कर अंधाधुंध मुनाफा कमा रहे हैं। अमेरिका में कई कंपनियाँ ऐसे संस्थानों को हजारों डॉलर दे रही हैं जो चोरी-धोखाधड़ी के पैसों का पता लगाती हैं और उसे ठिकाने लगा देती हैं। अत्यंत जटिल क्लाउड सर्विसेस और सुरक्षा की नई-नई चुनौतियों के दौर में सुरक्षा  तंत्र ज्यादा  मुश्किल  होते जा रहे  हैं। विभिन्न देशों की सरकारों तक को बहुत बड़ी रक़मों का दांव लगाने वाले सुनियोजित आपराधिक सिंडीकेटों के खतरों से जूझना पड़ रहा है। व्यवस्थाओं  की कमजोरियों में सेंध लगा कर नए एल्गोरिथ्म तैयार करने में ये अपराधी बड़ी रकम खर्च करते  हैं जिनसे पासवर्ड और ओटीपी का पता लगा कर बड़ी धोखाधड़ी की जाती हैं।

      ऐसे  देश में जहां  जीडीपी  का मुश्किल से 3% शिक्षा पर खर्च किया जाता है, हमारे शिक्षा विभाग  स्मार्टबोर्ड, टेबलेट और स्मार्टफोन खरीद रहे हैं। लेकिन शिक्षकों को वेतन देने को इन विभागों के पास पैसे नहीं हैं। फिर हमें बच्चों को पढ़ाने के लिए ट्यूटरिंग एप क्यों चाहिए? पढ़ाई के अलग-अलग तरीकों वाली व्यवस्था में, शिक्षा अब समाज के वंचित-अभावग्रस्त  वर्गों को ऊपर उठाने का साधन तो रह नहीं गई है। सच्ची  शिक्षा तो शिक्षक और विद्यार्थी के बीच सीधे संपर्क-संवाद से ही दी जा सकती है और हम मूर्खता से इन एप्स के मायाजाल में पड़े हैं जो बच्चों को स्कूली और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तो तैयार कर सकते है, लेकिन बेहतर जीवन के लिए उन्हें समर्थ नहीं बना सकते।

क्या मैं टेक्नोलॉजी के खिलाफ हूँ? मैं सिर्फ  यही कहना चाहता हूँ कि हमें अपनी प्राथमिकताओं के बारे में स्पष्ट और सजग होना चाहिए। हमारी प्राथमिकता चंद लोगों के फायदे  के लिए नई टेक्नोलॉजी लाना नहीं, बल्कि  अपने लाखों लोगों के लिए रोजगार जुटाना होना चाहिए। निश्चय ही, हमें आधुनिकतम टेक्नोलॉजी को जानना-समझना चाहिए लेकिन इसका इस्तेमाल, विवेकपूर्ण तरीके से, उच्च स्तर के अनुसंधानों और नवाचारों के लिए होना चाहिए, रोजगारों की संख्या कम करने और लोगों को ज्यादा गरीब बनाने में इसका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।

जहां तक नवाचारों यानि नई, मौलिक चीजों- तकनीकों  के आविष्कार और इस्तेमाल का सवाल है, मुझे तो पहली नज़र में यही लगता है कि सभी प्रमुख आविष्कारों और खोजों का सिलसिला  – जैसे बिजली, टेलीफोनी, आंतरिक दहन इंजन, थर्मोआयोनिक वाल्व, ट्रान्जिस्टर, एलसीडी, एलईडी आदि – 1960 के दशक तक पूरा हो चुका था। इसके बाद तो बस, गणनात्मक और आंकड़े जुटाने की क्षमता बढ़ाने के लिए प्रोसेसरों की रफ्तार लगातार बढ़ाने और उन्हें सूचना तंत्र से जोड़ते चले जाने  का ही  खेल चल रहा है। नए अनुसन्धानों में समय भी ज्यादा लगता है और पैसा भी; और सरकारों ने ऐसे अनुसन्धानों पर खर्च करने से हाथ खींच लिया है – इसलिए सार्थक और बुनियादी महत्व का अनुसंधान-कार्यों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। नतीजा यह है कि मौलिक अनुसन्धानों और खोजों की बजाय, सारा ज़ोर नए-नए ‘एप्लीकेशन्स’ पर ही है।

यह  बात अब साफ समझ में आने लगी है कि ये नए-नए ‘एप्लिकेशन्स’ वाली टेक्नोलॉजी (अगर इन्हें   ‘टेक्नोलॉजी’ कहे जाने लायक मान भी लिया जाए तो ) सामाजिक  समरसता को बड़ा नुकसान पहुंचा रही हैं। अनेक देश एपल, अमेज़न और गूगल जैसी चुनिन्दा कंपनियों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हैं। चिंता की बात यह भी है कि आईटी  और सोशल नेटवर्किंग के धंधों से कोई नयापन और प्रगति नहीं हो रही है, पुराने ढर्रे के ‘स्टीरिओटाइप, अतार्किक धारणाएँ और पूर्वाग्रह टूट नहीं रहे हैं, बल्कि  और मजबूत हो रहे हैं। सूचना टेक्नोलॉजी के फैलाव से वैश्विक असमानताएँ और सामाजिक तनाव बढ़ रहे हैं तथा दुनिया परस्पर आक्रामक खेमों में बंट रही है। ये प्रौद्योगिकियाँ  इन्सानों को जोड़ने और उदार-विराट बनाने की बजाय उन्हें छोटे-छोटे खांचों में जकड़ रही हैं ताकि खांचों के छोटे दायरों में उन्हें वस्तुओं की तरह वर्गीकृत किया जा सके और फिर नियंत्रित कर शिकंजे में जकड़ा जा सके।

      यह बेहद दुखद है कि स्टार्टअप्स शुरू करने के आकांक्षी हमारे अनेक युवा और प्रतिभाशाली इंजीनियर केवल नए एप्स बनाने तक सोच पाते है। इन एप्स के ज़रिए जबर्दस्त  कार्यकुशलता हासिल करने की जो कहानियाँ गढ़ी जाती हैं, वह महज भ्रमजाल है, मृगतृष्णा है; और समाज के लिए घातक है। क्या हम ज्यादा कार्य-कुशलता के पागलपन से बाहर आकर,  मानवीय हित के पैमाने पर आँकी जाने वाली प्रौद्योगिकियाँ अपना सकते हैं,जो प्रकृति के भी अनुकूल हों? किसी टेक्नोलॉजी को आँकने की मानवीय लागत में कर्मचारियों को वाजिब वेतन, काम करने की मानवीय स्थितियाँ, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और श्रमिकों के परिवारों के लिए रहने का ठिकाना शामिल किए जाने चाहिए। साथ ही, उनके जीवन में आराम, मनोरंजन और अपने हुनर को और बेहतर बनाने के  मौके भी हों, यह भी याद रखा जाना चाहिए।

हमें सोचना होगा कि आखिर क्यों अमेरिकी किसान ईंधन बचाने वाले आधुनिक ट्रैक्टरों की बजाय, अब 1923 के जॉन डीर मॉडल डी इस्तेमाल करने लगे है। उन्हें ऐसी मशीनें चाहिए जिनका  रख-रखाव आसान हो और जिनके साथ मालिकाना लाइसेन्स और बार-बार भुगतान वाले सॉफ्टवेयर और महंगे स्पेयर पार्ट्स का झंझट न हो। अनेक  तेल और फार्मा कंपनियों, फास्ट फूड चेन्स, हथियार बनाने वाले कौरपोरेटों, वित्तीय संस्थानों और रेटिंग एजेंसियों के कारनामों की वजह से पर्यावरण को होने वाले नुक़सानों, जैव-विविधता का सिमटते जाने, खतरनाक तरीके से कुछ चीजों की लत पड़ जाने, कुपोषण, स्वास्थ्य के नुकसान, हिंसक विवाद, काम-काज की अमानवीय स्थितियों, वेतन-मजदूरी में कटौतियों और भारी मुनाफाखोरी की जो प्रवृतियाँ पनप रही हैं, उनके बारे में भी हम आँख मूँद कर नहीं रह सकते।

हमारे पास विश्व-स्तरीय  टेक्नोलॉजी संस्थान हैं। उन्हें हमारे औद्योगिक पुनर्जागरण का नेतृत्व करना चाहिए। लेकिन हमारे 80% टेक्नोलॉजी ग्रेजुएटों का सॉफ्टवेयर उद्योग में काम  मात्र कोडर का रह गया है। यहाँ तक कि आईटीआई संस्थानों से निकले हमारे टर्नर और फिटर भी कारखानों के शॉप फ्लोर पर काम नहीं करना चाहते। क्या इन हालात के लिए वे ही जिम्मेदार हैं? नहीं, उन्हें तब तक जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, जब तक शेयर बाज़ार के दलाल को इंजीनियर से ज्यादा पैसा मिलता हो, टाइपिंग कोड को टेक्नोलॉजी माना जाता हो और सरकारें गुज़रे जमाने के श्रम और भूमि क़ानूनों को बदलती नहीं हैं। यहाँ एक सुधार से हालात बदल सकते हैं। याद कीजिए कि कैसे बजाज ऑटो कंपनी 100 सीसी इंजन वाली मोटरसाइकिल के क्षेत्र में विश्व में अग्रणी बन गई। उन्होंने अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेजों के विद्यार्थियों को रोजगार के लिए, तमाम कंप्यूटर वाली कंपनियों से बेहतर पैकेजों की पेशकश की। उनके पास ऐसे विद्यार्थी आए जिनके मन में सच्ची इंजीनियरी के लिए जुनून था। इन युवा इंजीनियरों की मदद से बजाज ऑटो ने अनुसंधान और विकास ( आरएंडडी) की शानदार क्षमता हासिल की और आज टीवीएस,  हीरो  होंडा और बजाज ऑटो मोटरसाइकिलों के विश्व बाज़ार में अग्रणी हैं। हमने यह भी देखा कि किस तरह सुंदरम फास्टनर्स जनरल मोटर्स को हिस्से-पुर्जे सप्लाई करने वाली प्रमुख कंपनी बन गई और मुकंद स्टेनलेस स्टील बनाने वाली बड़ी कंपनी के तौर पर उभर कर आई।

सफलता की ऐसी अनेक कहानियाँ रची जा सकती हैं अगर विभिन्न क्षेत्रों के हमारे नेता सँकरे खांचों में न टिके रहें, बड़ी, समग्र तस्वीर को देखें-समझें।

और यह काम अभी करना ज़रूरी है।   

* वरिष्ठ सिविल सेवा अधिकारी संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष रहे हैं। करीब तीन दशकों तक भारत सरकार के रिसर्च एंड एनालिसिस विंग में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करने के बाद, 2015 में वह यूपीएससी के सदस्य और बाद में अध्यक्ष बने। दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से सिविल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने आईआईटी, दिल्ली से सिस्टम मैनेजमेंट में मास्टर्स की डिग्री हासिल की।

**राजेंद्र भट्ट भारतीय सूचना सेवा से जुड़े रहे हैं । भारत सरकार के  प्रकाशन, प्रसारण  और फिल्म माध्यमों में पत्रकारिता का उनका लंबा अनुभव रहा है। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया माध्यमों पर वह निरंतर लेख, कहानियाँ और बाल-साहित्य लिखते रहे हैं।

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