4. नौकरशाही और मीडिया को घुन क्यों लग रहा है?

अरविंद सक्सेना*

हिन्दी रूपांतर: राजेंद्र भट्ट**

कोविद-19, और उसके बाद आए निर्मम लॉकडाउन के दौर में जब  आहत, बदहवास ‘भारत’ सड़कों-पटरियों पर निकल आया तो कुछ संवेदनशील, विवेकवान लोग ये सोचने पर विवश हुए कि स्वतंत्र कहे जाने वाले ‘इंडिया’ की नीयत और नीतियों में कुछ गंभीर खोट रह गया है। इन लोगों के लिए यह मंजर अफसोस, प्रायश्चित और आगे की राह तलाशने की प्रेरणा बना।  

ऐसे ही एक संवेदनशील ब्यूरोक्रेट संघ लोक सेवा आयोग के पूर्व-अध्यक्ष श्री अरविंद सक्सेना ने इस दौर की विभीषिका से आहात होकर  पाँच  लेखों की श्रृंखला लिखी जो कोविद-19 के परिप्रेक्ष्य में, स्वतन्त्रता के बाद से हमारे चुने हुए मार्ग, हमारी राष्ट्रीय नीतियों, प्राथमिकताओं, कार्यशैली, सामाजिक नैतिकता और विफलताओं का ईमानदार लेखा-जोखा है। इन  लेखों में उन्होंने हमारे श्रमिकों की बदहाली, सामाजिक न्याय की पूरी तरह अनदेखी और उसके प्रति संभ्रांत-सुविधासम्पन्न  समाज की आपराधिक उदासीनता की चर्चा की  है। राष्ट्रीय और सामरिक महत्व की नीतियों और ‘डेटा’ को निहित स्वार्थों के प्रतिनिधियों को ‘कंसल्टेंट’ बनाकर सौंप देने  की आपराधिक लापरवाहियों, आईटी, प्रबंधन, सेवा क्षेत्र को ठोस उत्पादन, शिक्षा, जमीनी तकनीक और सामाजिक-मानवीय क्षेत्रों के विशेषज्ञों पर तरजीह देने के खतरों  की तरफ आगाह किया है। चंद हाथों का  मुनाफा बढ़ाने की प्राथमिकता  और जीडीपी किस्म के आंकड़ों के कीमत पर आम जन के रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य  और सामाजिक न्याय की अनदेखी के विफल मॉडल की ओर उन्होंने इशारा किया है। मौलिक, उत्पादक टेक्नोलॉजी की अनदेखी कर एप्स, कोड बनाने वाली छद्म-प्रोद्योगिकी और सेवा-प्रबंधन क्षेत्र को अनावश्यक महत्व देने से भी वह चिंतित हैं।

चौथे लेख में श्री सक्सेना ने नौकरशाही से अपनी ये सदिच्छा ज़ाहिर की है कि वो कॉर्पोरेट की चेरी होने के बजाय आम जनता के हितों, छोटे-मँझोले उद्यमों, सामाजिक हितों  की संरक्षक बने क्योंकि वही उनकी संवैधानिक ज़िम्मेवारी भी है। उनका मानना है कि सरकारी क्षेत्र की तरह, निरीक्षण और ‘ऑडिट’ के कड़े मानदंडों पर निजी क्षेत्र को भी लाया जाना चाहिए। मीडिया के हलकेपन और गैर-ज़िम्मेदारी की चर्चा करते हुए, श्री सक्सेना ने कहा है कि पत्रकारों और मीडिया प्रतिष्ठानों को ‘प्रमोटरों’ का हित-साधक नहीं होना चाहिए। लोगों को सही जानकारी मिलने के हक पर ज़ोर देते हुए, वह मानते हैं  कि बुद्धिमान लोग ही सवाल उठाते हैं और सवाल उठाने के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिए।  मूर्खों को हाँकने के लिए ‘फेक न्यूज़’ का इस्तेमाल बेहद अनैतिक है। ‘फेक न्यूज़’ के पैरोकार दरअसल भाड़े के आतंक वादी जैसे हैं, जो अंततः देश-समाज को ही नष्ट कर देंगे।

इस सारे चिंतन-मंथन के अंत में, श्री सक्सेना के निष्कर्ष हैं-

·         सबके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, स्वच्छता के कम का प्रबंध सरकार को अपने हाथ में लेना ही होगा। ये काम ‘मुनाफे के लिए’ नहीं हैं, इन्हें निजी क्षेत्र के हाथों नहीं सौंपा जा सकता।

·         विशाल ‘कोरपोरेट्स’ और ‘मोनोपोलीज’ को छोटे-मझोले उद्यमों पर हावी  नहीं होना चाहिए। व्यापक रोजगार, अच्छे वेतनों के जरिए आम जन की क्रय शक्ति बढ़ाने से ही देश का सच्चा विकास हो सकता है। यही जन-मुखी दृष्टि गांधी की ट्रस्टीशिप की दृष्टि है।  

·         सामाजिक क्षेत्र और नज़र आने  वाली उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन और ज्ञान-विज्ञान से जुड़े विशेषज्ञों  को प्रबन्धकों, आईटी, सेवा क्षेत्र के हाकिमों पर तरजीह मिलनी चाहिए।

·         और अंत में, परिवर्तन एक सतत, मानवीय  प्रक्रिया होनी चाहिए। समाज को चौंका कर, जर्जर कर देने वाला झटका नहीं होना चाहिए।

4. नौकरशाही और मीडिया को घुन क्यों लग रहा है?

राजनैतिक और कॉर्पोरेट प्रणालियाँ तो अपने उद्देश्यों में विफल हो ही गई हैं, लेकिन स्थायी सिविल सेवा के क्या हाल हैं? ब्यूरोक्रेसी (नौकरशाही)  की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह एक पारदर्शी चयन प्रणाली के जरिए आती है और देश के बेहतरीन दिमाग वाले युवा इसमें चुन कर आते हैं। नौकरशाहों को 30-35 साल का सुरक्षित कार्यकाल मिलता है, इसलिए वे लंबे समय की नीतियों और कार्यशैलियों के बारे में सोच सकते हैं। इन सभी अफसरों ने यूपीएससी का इंटरव्यू देते समय देशवासियों की सेवा करने की इच्छा जाहिर की होती है। सभी ने यह दावा किया होता हैं कि वे इसलिए सरकारी नौकरी करना चाहते हैं ताकि विकास के लाभ गरीब-वंचितों तक पहुँचाने की प्रक्रिया में हिस्सेदार बन सकें। हो सकता है कि उनमें से कुछ ने झूठ बोला हो, लेकिन  सब ने तो झूठ नहीं बोला होगा!

      नौकरशाही ही सरकार को चलती है और इसके पास क़ानूनों को लागू करने के अधिकार हैं। उनका काम महज कार्यक्रमों को लागू कराना और कायदे-क़ानूनों का पालन कराना भर नहीं है, बल्कि देश-समाज के सबसे ज्यादा कमजोर-गरीब के हितों की रक्षा करना भी उनका कर्तव्य है – उन कमजोर-गरीबों के हितो की रक्षा, जिनका देश के प्राकृतिक संसाधनों पर निश्चित रूप से बराबरी का हक है। हमारे नौकरशाहों का काम बिना सोचे-समझे ठेके पर बाहर वालों को काम सोंप देना यानि आउटसोर्सिंग भर नहीं है, सार्वजनिक संस्थाओं का निर्माण और उन्हें मजबूत बनाना भी नौकरशाहों का कर्तव्य है। विभिन्न क्षेत्रों में क्षमता बढ़ाना, छोटे-मँझोले उद्यमों के उत्पादों और सेवाओं की गुणवत्ता सुधारना, नई टेक्नोलॉजी के विकास केंद्र खोलना, छोटी औद्योगिक इकाइयों को ज्यादा कारगर बनाने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता और प्रशिक्षण के बुनियादी ढांचे को ज्यादा कुशल तथा   मजबूत बनाना – ये सारे काम भी ब्यूरोक्रेट के कार्यक्षेत्र में आते हैं। लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि मात्र कायदे-क़ानूनों के सचाई से पालन कर पाने में भी रुकावटें आ रही हैं और समझौते  किए जा रहे हैं। हमारी ब्यूरोक्रेसी को कमजोर कौन बना रहा है? मैं यहाँ प्रशासनिक और पुलिस सुधारों की बात नहीं कर रहा हूँ। यहाँ तो प्रश्न यह है कि आखिर भ्रष्टाचार का ठीकरा केवल नौकरशाही के सिर पर क्यों फोड़ा जाता रहा है? यह सच है और हम जानते हैं कि कैसे भ्रष्टाचार नौकरशाही में जनता का भरोसा कम करती है और इसे मिटाना ज़रूरी है। नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के कारगर  तरीके मौजूद हैं, ज़रूरत इच्छा-शक्ति  की है। सरकार के सभी फैसलों की संसद समीक्षा कर सकती है और नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) का संवैधानिक पद है जो सरकार के कामकाज की वैधानिक लेखा-परीक्षा(ऑडिट)  करता है। इसके अलावा सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत सरकारी दफ्तरों से सवाल पूछे जा सकते हैं, विभिन्न दफ्तर अपने बारे में स्वयं सार्वजनिक रूप से सूचनाएँ देते हैं और सरकारी फैसलों की अदालतों में न्यायिक समीक्षा हो सकती है। ये सभी भ्रष्टाचार रोकने के कारगर तरीके हैं।

      भ्रष्टाचार के मामूली मामले तो हमेशा से होते रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ दशकों से ऊंचे  स्तरों पर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामले बढ़े हैं। ये सारे मामले कॉर्पोरेट घरानों से जुड़े हैं और इन मामलों में चुपके-चुपके अपारदर्शी तरीकों से फैसले लिए गए हैं। ये कॉर्पोरेट मालिक-मैनेजर अपनी खर्चीली जीवन-शैली और संदेहास्पद सौदों में शेयरधारकों का पैसा बर्बाद करते हैं और अपने खरीदे ऑडिटरों से खातों को प्रामाणिक करा कर साफ बच जाते हैं। अपने व्यापारिक फैसलों की जांच ये मन-मर्जी के शेयरधारकों, वित्तीय संस्थानों और प्रमोटर्स के जरिए करवा  लेते हैं जो इन कोर्पोरेट्स के निजी लाभ वाले फैसले कर देते हैं। यह बात ध्यान देने की है कि बड़े कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार के सभी मामलों की पोल तभी खुलती है जब सरकारी अधिकारियों और सरकारी वित्तीय संस्थानों से पूछ-ताछ होती है। सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा पड़ताल के बाद ही निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार का पता चलता है। यहाँ तक कि पिछले दिनों ऐसा मामला खुल जाने से एक सरकार का पतन तक हुआ।

      इसलिए, संदेश स्पष्ट है। अगर हमें भ्रष्टाचार को जड़ से साफ करना है तो निजी क्षेत्र की भी ठीक उन्हीं तरीकों से जांच-पड़ताल होनी चाहिए, जिस तरह सार्वजनिक क्षेत्र में होती है। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों को छोड़ कर सभी मामलों की, कानूनन, खुली जांच होनी चाहिए। हमें ऐसी पारदर्शी जांच के लिए तैयार होना चाहिए।  तभी नए, सच्चे भारत का सूर्योदय संभव हो सकेगा।

      जहां तक मीडिया का सवाल है, उसके गिरते स्तर के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और उसे दुहराने का कोई मतलब नहीं है। असली मुद्दा यह है कि सूचनाओं का मिलना और सवाल उठाए  जाना लोकतन्त्र का आधार है। किसी भी तथ्य को अटल सत्य केवल मूर्ख ही मान सकते हैं, बुद्धिमान लोग ही शंका और जिज्ञासा करते हैं। बुद्धिमान लोग ही किसी तथ्य के विभिन्न पक्षों के सही होने के बारे में  सवाल कर सकते हैं, मूर्खों को ही, झूठी खबरों और खोखले प्रचार (फेक न्यूज़ और प्रोपेगंडा) के जरिए  भेड़ की तरह हाँका जा सकता है। अक्सर पढे-किखे, विवेकवान लोगों को निरंकुश सत्ताएँ अपने लिए खतरा समझती हैं। अपनी तरुणाई में ही फांसी के फंदे पर झूल जाने वाले भगत सिंह जेल में लियो टोल्स्तोय, बर्ट्र्न्ड रसेल, कार्ल मार्क्स, व्लादिमीर लेनिन, अप्टोन सिंक्लेयर, फ़्रेडरिक एंजेल्स, लुई टेनिसन और रबीन्द्रनाथ टैगोर की किताबें पढ़ा करते थे। औपनिवेशिक सत्ता को   युवा भगतसिंह के  वीरतापूर्ण कार्यों से कहीं ज्यादा खतरा  उनके प्रखर विचारों से लगता था। यहीं मीडिया की भूमिका सामने आती  है। प्रोपेगंडा और फेक न्यूज़ को परंपरागत रूप से शत्रु देशों के खिलाफ छद्म युद्ध का हिस्सा माना जाता है। शत्रु देशों के आंतरिक तनावों और मतभेदों का फायदा उठा कर, वहाँ के लोगों में आपसी विरोध और भ्रम पैदा कर के, उन्हें नीचा दिखने के लिए इन तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है। अपने ही देश के लोगों के खिलाफ कभी भी फेक न्यूज़ और प्रोपेगंडा का इस्तेमाल करना उचित नहीं है। अगर कोई सत्ता अपने ही देश के लोगों के खिलाफ इन साधनों का इस्तेमाल करती है तो उसका शिकार भी अंततः वही सत्ता होती है क्योंकि वह खुद अपने झूठ पर यकीन करने लगती है और जमीनी हकीकत से उसका संपर्क टूट जाता है। अपने नागरिकों के खिलाफ फेक न्यूज़ और प्रोपेगंडा का इस्तेमाल करना ऐसा ही है, जैसे देश के अंदर गैर-कानूनी संगठनों से लड़ने के लिए भाड़े के आतंकवादी गुटों की मदद ली जाए। ये भाड़े के आतंकवादी, आखिरकार अपने आकाओं को ही नष्ट कर देते हैं।

      हमें याद रखना चाहिए कि बेहद चाटुकार और लगातार सत्ता का गुण गाने वाला मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो देता है और आखिरकार भरोसे के साथ सच बताने वाली कोई संस्था नहीं बचती। अतीत की गलत धारणाओं को जानकार लोगों के बीच खुली चर्चा से ही सही किया जा सकता है, झूठे दावों से नहीं। हमारे देश में ‘शास्त्रार्थ’ की परंपरा रही है, यानि दोनों पक्षों के विद्वान-बुद्धिमान तथ्यों और तर्क पर आधारित संवाद के जरिए अपने पक्ष की पुष्टि करते हैं। आसानी से यकीन कर लेने वाली  कम पढ़ी-लिखी जनता को झूठी बातों से बरगलाना देश के दीर्घकालीन हित में नहीं होता। देश की  तरक्की के लिए  विचारवान, समझदार समाज चाहिए, हाँकी जा सकने वाली भेड़ें नहीं।

      आज के दौर में समाचारों को प्रमोटरों के हितों के अनुरूप ढाला जा रहा है और निहित स्वार्थों द्वारा तैयार सामग्री, बिना उसके तथ्यों की सच्चाई की जरा भी  जांच किए, पाठकों-श्रोताओं को परोस दिया जा रहा है। यह सच है  कि मीडिया में अनेक बेहद  प्रतिभाशाली और पढे-लिखे लोग भी काम कर रहे हैं। इनमें से कुछ की अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताएँ और मजबूरियाँ हो सकती हैं, लेकिन इनमें से ज़्यादातर में अपने आस-पास के हालात की सच्चाई को परखने की क्षमताएं हैं। अनेक वरिष्ठ पत्रकार अपने विश्लेषणात्मक लेखों के जरिए सही राह दिखाने  की कोशिश करते रहे हैं। सत्य आत्मा को निखारता है और हमें काम को नए सिरे से, सही तरीके से करने का मौका देता है। यह ज़रूरी नहीं है कि अगर कल तक आप चाटुकारिता कर रहे थे तो आज आप किसी पर चीखने-चिल्लाने लगें। जरूरी यह है कि सार्वजनिक मंचों पर चर्चा वास्तविक मुद्दों और  परिस्थितियों से जुड़ी हो। मीडिया की प्रोफेसनल संस्थाएं अपने सदस्यों के व्यवहार को संयमित कर सकती हैं,  लेकिन समस्या का पुख्ता समाधान तो तभी होगा जब मीडिया प्रतिष्ठानों के असली मालिक कौन हैं और कौन उनकी फंडिंग कर रहा है, इस बात की कानूनन घोषणा करना अनिवार्य कर दिया जाए।  

5. कैसे टूटें बंधन: खुले प्रगति की राह

      आखिर निहित स्वार्थों द्वारा गढ़ी गईं और उनके द्वारा नियंत्रित संस्थाओं द्वारा लगातार मजबूत बनाई गईं बेड़ियां  कैसे तोड़ी जाएँ? हम कैसे जनता की सत्ता और अधिकार उसे वापस लौटा सकें और एक समतापूर्ण समाज बना सकें? हमारी समस्याएँ और विफलताएँ बहुत अधिक हैं, इसलिए हमें प्राथमिकताएँ तय करके आगे बढ्ना होगा। सबसे बड़ी प्राथमिकताएँ तो सबके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, रहने का ठिकाना और स्वच्छता ही होंगी। इनकी ज़िम्मेदारी तो सीधे-सीधे सरकारों को ही – अपने-अपने स्तर पर केंद्र और राज्य सरकारों को – लेनी  होगी। इन प्राथमिकताओं के लिए बजट बढ़ाना ही होगा और इन क्षेत्रों में सबके लिए ‘मुक्त व्यापार’ की वर्तमान नीति नहीं चलेगी क्योंकि ये ‘मुनाफे’ के लिए चलाए जाने वाले क्षेत्र नहीं हैं। निजी क्षेत्र इन कामों में कोई भूमिका निभा सकता है लेकिन यह भूमिका पूरी तरह सरकारों के नियंत्रण में ही हो सकती है। निस्संदेह, अनेक सच्चे लोग सही इरादों के साथ राष्ट्र-निर्माण में भागीदार बनना चाहते हैं। उन्हें इसके लिए अवसर और समुचित मान्यता अवश्य मिलने चाहिए। लेकिन हम ऐसे अवसरों का दुरुपयोग करने वालों की हरकतों से आँखें नहीं मूँद सकते। ऐसी अनदेखी समाज के लिए नुकसानदेह हो सकती है।

      इसके साथ ही हमें अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने और रोजगार के ज्यादा अवसर जुटानेपर भी ध्यान देना होगा। हमें ऐसे सार्थक और उत्पादक रोजगार सृजित करने होंगे जिन्हें करने वाले को लगे कि वह समाज के लिए कुछ योगदान कर रहा है। आज ज़रूरत ऐसे छोटे और मझौले उद्यमों को खड़ा करने की है जिनसे बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मुहैया हो सके; जिन्हें शुरू करने के लिए प्रारम्भिक रकम सरकार जुटा दे लेकिन फिर इन्हें छोटे उद्यमी या स्वयं मजदूर-कर्मचारी चलाएं। लेकिन क्या पहले ऐसे प्रयास असफल  हो गए हैं? जी, नहीं। दरअसल, ऐसे प्रयासों को पनपने ही नहीं दिया गया। व्यापारियों की ताकतवर लॉबियों को लगा कि स्वदेशी उत्पादन से ज्यादा मुनाफा सस्ती वस्तुओं का आयात कर लेने में है। कानूनी प्रावधान और व्यापार के नियम इतने कमजोर रहे कि वे छोटे उद्यमियों को संरक्षण नहीं दे सके। हमें इन मुद्दों को सरकार की सुनिर्धारित नीति के तौर पर, विश्व व्यापार संगठन (डबल्यूटीओ) आदि संस्थाओं के कायदे-कानूनों के दायरे में, उठाना होगा। निजी क्षेत्र और बड़े औद्योगिक घरानों को अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए प्रोत्साहित करना होगा लेकिन एकाधिकारों को तोड़ना ही होगा। आपको याद होगा कि किस तरह ज़ोर-शोर से यह तर्क दिया गया था कि एयरलाइंस और टेलीकॉम सेक्टरों में सरकारी एकाधिकार से  इन क्षेत्रों में तरक्की और कार्यकुशलता की रफ्तार थम गई है। हमने दोनों सेक्टर  निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिए और आज नतीजे आप सब के सामने हैं। नतीजों में बैंकों-वित्तीय संस्थानों के ऋणों की  भारी रक़में नहीं लौटाने वाले और फिर विदेश भाग जाने वाले ‘बड़े उद्यमी’ पनपे; या आपस में कीमतों के लिए गला-काट प्रतियोगिता कर, एक-दूसरे को बर्बाद कर, आखिरकार नई एकाधिकारी कंपनियाँ ( मोनोपोलीज़) पैदा हो गईं। हमें मुनाफा कमाना और मुनाफाखोरी के बीच के फर्क को बारीकी से समझना होगा  और मुनाफाखोरी को सख्त क़ानूनों के जरिए खत्म करना होगा। 

      परिस्थितियों को कुछ और स्पष्टता से समझें। उत्पादन विकास के लिए ज़रूरी है और उत्पादन में, वस्तुओं के निर्माण ( मेन्यूफैक्चरिंग), कृषि और निर्माण-उद्योग (कंस्ट्रक्सन)   के साथ-साथ शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ भी शामिल हैं। चंद लोगों ने अपने हथकंडों से इन कामों पर नियंत्रण अपने हाथों में समेत लिया है और आम जनता को इस नियंत्रण से वंचित कर दिया है। देश की जमीनी  सच्चाइयों से मुख मोड़े समाज के एक वर्ग के हित में काम करने की बजाय, हमें आम जनता की भलाई पर ध्यान देना होगा जिनकी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं की जा रही हैं।

      आम जन की ज़रूरतें क्या हैं? उन्हें भोजन चाहिए, रहने को घर चाहिए, वस्त्र चाहिए, स्वास्थ्य, शिक्षा, पीने का साफ पानी, बिजली और संपर्क की सुविधाएं चाहिए। इन सारी चीजों और सुविधाओं  को खरीदने के लिए उन्हें पैसा चाहिए। इसलिए, गरीब-अभावग्रस्त लोगों को निश्चित रूप से उत्पादन प्रक्रिया से जोड़ा जाना चाहिए ताकि उनके पास अपना जीवन-स्तर सुधारने के लिए, चीजें-सेवाएँ खरीदने के लिए अतिरिक्त आमदनी हो। हमें अपनी परियोजनाएँ तैयार करने में उनके स्तर को ध्यान में रखना होगा। हमें ऐसी तकनीकें ईजाद करनी होंगी जिन्हें गांवों के लोग अपनी जरूरतों के लिए आसानी से अपना सकें और उन्हें ऐसे शहरी उद्यमों पर निर्भर होने से बचा सके जो पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचाते ही हैं, अपने कर्मचारियों को भी मशीन का पुर्जा भर बना देते हैं और उनका शोषण करते हैं।

      समय आ गया है कि हम गांधीजी की ‘ट्रस्टीशिप’ की धारणा को फिर से समझें। हमें ई.एफ़. शुमाखेर जैसे विचारकों-अर्थशास्त्रियों के विचारों को समझना होगा। शुमाखेर ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘स्माल इस ब्युटीफूल: ए स्टडी ऑफ इकोनॉमिक्स ऐज इफ पीपुल मैटर्ड’ में उत्पादन को छोटे पैमाने पर विकेंद्रित करने और टेक्नोलॉजी को उसे इस्तेमाल करने वालों की जरूरतों के  अनुरूप  सरल बनाने पर बल दिया।

      हमारी समस्याओं का समाधान हमारे अपने विशेषज्ञों की प्रतिभा पर भरोसा करने और ऐसे पढे-लिखे लोगों को अधिकार सोंपने में है जो आम जनता की नज़र के सामने, उनकी पूरी जानकारी में नीतियाँ बनाएँ। ये नीतियाँ या तो सभा-कक्षों में खुली सार्वजनिक बैठकों, या फिर मीडिया में खुली चर्चा के बाद तय की जाएँ और फिर संसद में चर्चा के बाद इन्हें लागू किया जाए। जो विशेषज्ञ खोखले शब्द-जाल में लोगों को भरमाएं और सरल शब्दों में अपनी बात न समझा पाए, जो लोगों के सवालों से कतराएं, उन्हें विशेषज्ञ नहीं माना जा सकता। कोई भी निर्णय बंद कमरों में, चुपके-चुपके नहीं लिया जाए। जिन व्यक्तियों और संस्थाओं को अधिकार दिए गए हों, उनके काम-काज की लगातार निगरानी हो।

      हमारे आर्थिक कार्यों से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में वेतन और काम करने की सुविधाओं के बारे में हमारी नीति के एक बड़े विरोधाभास को हमें समझना होगा। तभी हमारी बहुत सी समस्याओं का समाधान हो सकेगा। हम अपने सभी रोजगारों को दो तरह के कामों में बाँट सकते हैं – विशेषज्ञों ( स्पेसलिस्ट) वाले काम और ढर्रे के सामान्य (जनरलिस्ट) काम। इंजीनियर, डॉक्टर, शिक्षा-विशेषज्ञ, खेती-बागवानी के विशेषज्ञ, वैज्ञानिक आदि विशेषज्ञों के वर्ग में आएंगे और मैनेजर तथा प्रशासक दूसरे (सामान्य) वर्ग में आएंगे। पहले वर्ग के प्रोफेसनल अर्थव्यवस्था को चलाने वाले हैं, जबकि दूसरे सामान्य वर्ग के प्रशासकों, सचिवों, मैनेजरों का काम ऐसी सेवाएँ और बंदोबस्त प्रदान करना है, जिससे कि प्रथम वर्ग के प्रोफेसनल अपने काम सुचारु रूप से कर सकें। जब तक देश में सक्रिय और शानदार उत्पादन और निर्माण से जुड़ी   आर्थिक गतिविधियां नहीं होंगी, सेवा क्षेत्र का न कई काम होगा, न भूमिका  होगी। जब हम इस तथ्य को समझ जाएंगे और स्वीकार कर लेंगे तो हमें एहसास होगा कि हमारी वेतन प्रणाली उलटी है जहां  उत्पादन वाले कामों की तुलना में सेवा क्षेत्र के लोगों को ज्यादा वेतन और सुविधाएं मिल रही है। हमें सुनिश्चित करना होगा कि उत्पादन से जुड़े कामों के लिए सबसे ज्यादा वेतन मिले ताकि हमारे सबसे प्रतिभाशाली युवा इन कामों की तरफ आकर्षित हों। बैंकिंग, वित्त, आईटी, विधि, मीडिया, मनोरंजन,खेल और एकाउंटिंग जैसे क्षेत्रों में उत्पादन क्षेत्र से ज्यादा वेतन और सुविधाएं नहीं होनी चाहिए। जब तक हम ऐसी व्यवस्था नहीं करेंगे हमारे इंजीनियर, डॉक्टर और अन्य सुप्रशिक्षित प्रोफेसनलों की प्रतिभा ढर्रे के और प्रबंधकीय (मैनेजेरियल) कामों में बर्बाद होती रहेगी।

      और अंत में, हमें समझना होगा कि परिवर्तन एक प्रक्रिया है, अपने आप में कोई घटना नहीं है। एक स्पीड बोट को चलाने और एक बड़े समुद्री जहाज को चलाने में फर्क होता है। भारत एक बड़े जहाज जैसा ही जिसकी दिशा बदलने से पहले हमें सुनिश्चित करना होगा कि उसकी सभी प्रणालियाँ और हिस्से-पुर्जे दुरुस्त हैं और सही ताल-मेल से काम कर रहे हैं। इसका मतलब है कि किसी बड़े परिवर्तन से पहले देश की सभी संस्थाएं मजबूत और कुशल होनी चाहिए और ऐसे परिवर्तनों के प्रति  जनमत को तैयार  किया जाना चाहिए।

      किसी बड़े जहाज की दिशा स्पीड बोट की तरह अचानक बदलने  की कल्पना करें और इसके परिणामों के बारे में सोचें।

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* वरिष्ठ सिविल सेवा अधिकारी संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष रहे हैं। करीब तीन दशकों तक भारत सरकार के रिसर्च एंड एनालिसिस विंग में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करने के बाद, 2015 में वह यूपीएससी के सदस्य और बाद में अध्यक्ष बने। दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से सिविल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने आईआईटी, दिल्ली से सिस्टम मैनेजमेंट में मास्टर्स की डिग्री हासिल की।

**राजेंद्र भट्ट भारतीय सूचना सेवा से जुड़े रहे हैं । भारत सरकार के  प्रकाशन, प्रसारण  और फिल्म माध्यमों में पत्रकारिता का उनका लंबा अनुभव रहा है। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया माध्यमों पर वह निरंतर लेख, कहानियाँ और बाल-साहित्य लिखते रहे हैं।

1 COMMENT

  1. अरविंद सक्सेना जी ने वर्तमान परिस्थितियों का बेहद बेबाक और सटीक विश्लेषण किया है ।इतने सार्थक लेख के लिए बधाई!

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