जन-नीति: अंतिम जन के हक में

अरविंद सक्सेना*

हिन्दी रूपांतर: राजेंद्र भट्ट**             

 “तुम्हें एक जंतर देता हूँ। जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे, तो यह कसौटी आज़माओ:

जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है?

तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है।“  

                                                           -महात्मा गांधी

हर आँख से आँसू पोंछने के बापू के सपने से हम कितनी दूर हो गए हैं? सरकारी लॉकडाउनों के बीच रोजगार और रोजी-रोटी गवां कर अपने गाँवों को लौट रहे  हजारों-हजार नाउम्मीद, बेसहारा और पस्तहाल  श्रमिकों को देख कर क्या हमने यह सोचा? उन आँखों में पहले से  सूख चुके आँसू थे, उन बेजुबानों की कराहें पहले ही सुन्न हो चुकी  थीं। लेकिन भौतिक प्रगति की अंधी दौड़ में शामिल हमारे ‘एसपिरेशनल क्लासेज’ उनकी अनदेखी करते रहे। सड़कों और रेल-पटरियों पर बदहवास चलते विपन्न परिवारों को देखने से यह तो साफ हो गया कि पिछली अर्ध-शताब्दी से हम गलत आर्थिक नीतियों पर चल रहे हैं। 42 साल की सरकारी नौकरी के बाद मुझे लगा कि मेरे देश ने जो नीतियाँ अपनाईं, उनके लिए मैं भी ज़िम्मेदार, बल्कि शर्मिंदा हूँ। मेरे देश के  हालात  की सही परिदृश्य में पड़ताल करने का मुझ पर जो नैतिक दबाव था, उसकी परिणति इन पाँच लेखों की शृंखला में हुई जो ‘दि डेली गार्जियन’ में सितंबर-अक्तूबर, 2020 में प्रकाशित हुए।  मैंने लिखा कि किस तरह हम बिलकुल गलत राह पर चलते रहे थे और अब अपनी गलतियाँ सुधारने के लिए हमारी प्राथमिकताएँ क्या होनी चाहिए। सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने और समतामूलक  समाज बनाने के लक्ष्य की ओर हम फिर कैसे लौट सकते हैं?  

अपने सरकारी कार्यकाल के दौरान मुझे भारत और    अनेक देशों  के कुछ सबसे बुद्धिमान लोगों के साथ काम करने, और यूपीएससी जैसी शीर्ष संस्था से जुडने के अवसर मिले। इन संपर्कों-संवादों के दौरान, मुझे उन बुराइयों से तकलीफ हुई जो हमने खुद पैदा की हैं। सबसे भयावह सचाई यह थी कि लोग सतही मुद्दों पर लिख रहे थे, बहस कर रहे थे; जबकि हमारे शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार और सामाजिक न्याय से जुड़ी नीतियों की वजह से भी एक बड़ी महामारी धीरे-धीरे हमारे करीब आती जा रही थी।

चुनौती बड़ी थी पर कहीं तो शुरूआत करनी थी। मैंने सीधे-सीधे विवादास्पद मुद्दों  में नहीं उलझते हुए, ऐसे क्षेत्र चुने  जहां हमारे लोगों के सहज ज्ञान और बुद्धिमत्ता से आमूल परिवर्तन लाए जा सकते हैं। इस संवाद का सार यही है कि सामाजिक ज़िम्मेदारी का एहसास, सच्चाई, सब कुछ बटोर लेने की प्रवृत्ति नहीं होना और  ईमानदारी कमजोरी के लक्षण नहीं हैं। ये तो इंसान होने की बुनियादी शर्तें हैं। सच्चाई की राह से नज़र न हटाना ही गांधी जी का वह  जंतर है, जो हमें उस नैतिक फिसलन से बचा सकता है जिसके नतीजे हम झेल रहे हैं।     

ये पाँच लेख किसी एक सरकार पर टिप्पणी नहीं हैं। ये उस अनुभव और ज्ञान का सारांश है जो मैंने विभिन्न क्षेत्रों के सबसे बुद्धिमान और अनुभवी  समझे जाने वाले लोगों से संवाद के ज़रिए हासिल किया है। इन विविधतापूर्ण क्षेत्रों में राजनीति, अर्थनीति, विज्ञान, टेक्नोलॉजी, शिक्षा, सुरक्षा, वाणिज्य, उद्योग, सैन्य मामले, कृषि और सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र शामिल हैं। इन संवादों से मुझे वह सच पता चला जो वास्तव में था – बनिस्बत उसके जो सार्वजनिक रूप से सच के नाम पर बताया जा रहा था और जिस पर चर्चा की जा रही थी।  .  मैंने इन लेखों को श्री राजेंद्र भट्ट को दिखाया जो मारीशस में भारतीय उच्चायोग में मेरे कार्यकाल के दौरान संस्कृति और शिक्षा संबंधी कार्य देखते थे। मैं उन्हें हमेशा ही सिद्धांतों पर दृढ़ रहने वाले, सच का साथ देने वाले  और कुशल अधिकारी के रूप में जानता रहा हूँ। उनमें गांधीजी जैसे ही जीवन-मूल्यों पर टिके रहने की आस्था है। भाषा और साहित्य की उनकी समझ बहुत गहरी है। श्री भट्ट ने, खुद पहल करते हुए, बेहद उत्साह से इन लेखों का प्रवाहपूर्ण और आम बोल-चल की हिन्दी में रूपांतर कर दिया।  हिन्दी में ये लेख, बड़ी संख्या में जन-जन तक पहुँच सकेंगे और मुझे विश्वास है कि इनमें वे अपनी ही चिंताओं की प्रतिध्वनि सुन सकेंगे, समाधानों की रोशनी देख सकेंगे।

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कोविड-19: जागने-समझने का मौका

नैतिक संकट के दौर में निष्पक्ष बने रहने वाले लोग सबसे अंधेरे नरक में जाएंगे।

                      -दांते अलीघेरी  (1265-3121), इटली के राष्ट्रीय कवि)

कोरोनावायरस महामारी और इसके बाद कई दौर  के लॉकडाऊन ने हमें प्रवासी मजदूरों की तकलीफ से दो-चार किया और झटका  भी दिया। हमें यह अचानक झटका  क्यों लगा? हमारे शहरों में गंदी, तंग बस्तियों में रह रहे, गंदे पानी और खाने पर जी रहे लाखों-लाख लोगों की सूनी आँखें और खामोश आहें क्या हमने पहले कभी महसूस नहीं की थीं? वे निश्चित रूप से  बीमार कर देने  वाले अमानवीय हालात में  लगातार घंटों काम करते थे। बदहाली-बीमारी उनकी जिंदगी का हिस्सा थी। उनकी छोटी-छोटी कमाई पर  दूर गाँवों में उनके परिवार के लोग आस लगाए होते थे और तमाम शोषण के बावजूद वे अपनी आवाज़ दबाए रखने पर मजबूर थे क्योंकि उनके काम छोड़ देने की हालत में लाखों दूसरे बदहाल  लोग उनकी जगह लेने को तैयार बैठे थे।

हमें हमेशा ताज्जुब तभी क्यों होता है जब कोई संकट एकदम आँखों के सामने नज़र आता है? क्यों तब हमेशा हम या तो कोई बहाना बना कर नज़रें चुराने लगते हैं या किसी और को जिम्मेदार बताने लगते हैं? विश्व की प्राचीनतम सभ्यता का दावा करने वाले हम लोगों में से कोई क्यों अपने कामों के परिणाम के बारे में  पहले से आगाह  नहीं कर पाता? क्या हम नींद की नीम-बेहोशी में चलते रहते हैं, या आरामदेह ज़िंदगी के ‘एसपिरेशनल’ लक्ष्य का नशा हमें सुन्न कर देता है? विज्ञान, टेक्नोलॉजी, साहित्य, अर्थशास्त्र, सांख्यिकी, इतिहास, संस्कृति और नीतिगत अध्ययनों के जुड़े हमारे काबिल और सहृदय लोग, इस पूरे दौर में कहाँ, क्या कर रहे होते हैं?

क्या हम वाकई ये मानने लगे थे कि किसी इंसान को 10 हज़ार रुपए से कम पगार पर – उसकी सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, रहने के ठिकाने, शिक्षा और जीवन में बेहतरी की जरूरतों की परवाह किए बिना – काम पर रखना वाजिब है? क्या इन अभागों का, बिना किसी गिनती के, सड़कों, पटरियों और ट्रेनों में मारना ज़रूरी था ताकि, हमें – (वो भी सब को नहीं),  कुछ को- थोड़ा सदमा लग सके और और हम अपने मधुर स्वप्नलोक से बाहर आ सकें।

      हमें इस बात पर झटका क्यों लग रहा है कि चीनी एजेंसियां दस हज़ार से ज्यादा भारतीयों और भारतीय संगठनों की जानकारियों का डेटाबेस तैयार कर रही हैं, जबकि वे तो पहले से ही,  अपने (चीन के)  ‘मुफ्त में उपलब्ध’  सोशल मीडिया, गेम्स, ऑनलाइन शॉपिंग और पेमेंट एप्स के जरिए आसानी से  हमारे बारे में जानकारियाँ बटोर रहे थे? अब हमें ताज्जुब क्यों हो रहा है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल झगड़े कराने और देशों को कमजोर बनाने के लिए किया जा रहा है? हमें किसी ने अब तक क्यों नहीं बताया कि हम डिजिटल दुनिया के लायक नहीं बन रहे हैं, बल्कि हमने तो दुश्मन की अपने घर में पहुँच आसान बनाने के लिए पहले से ही अपने दरवाजे खुले छोड़ रखे हैं?

      ऐसा क्यों होता है कि जब चीन या पाकिस्तान, यहाँ तक कि नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश भी, आक्रामक और हमें नापसंद आने वाले तेवर दिखते हैं, तभी  हमें झटका लगता है और हम सैनिक, राजनयिक  – और आर्थिक मोर्चों पर भी बदहवास तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं? आखिर हम यह क्यों नहीं समझ पाते कि हमारे शत्रु हमारी अंदरूनी कमजोरियों का फायदा उठाएंगे  और हमारी राजनैतिक प्रणाली, हमारी अर्थव्यवस्था और रणनीतिक तैयारियों में कमियों पर नज़र रखेंगे? हम यह क्यों नहीं समझ पाते कि विश्व की उभरती शक्तियाँ अपने प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने और रणनीतिक और व्यापारिक हितों को सुरक्षित करने के प्रयास करते रहेंगी? अपनी रणनीतिक तैयारियां पूरी होने से पहले दुश्मन को ललकारने का क्या फायदा है? हमें तब भी झटका क्यों लगता है जब हमारे प्रतिद्वंद्वी कश्मीर, लद्दाख और यहाँ तक कि नगालेंड में भी अपने पत्ते खेल रहे हैं?

      आखिर यह सब कैसे और कब से होता रहा? हमने यह समझना कब से छोड़ दिया कि पूंजी और कच्चे माल के साथ-साथ, किसी भी उद्यम को चलाने के लिए श्रमिकों  की भी जरूरत होती है? हमने कब से इस झूठ को सच मानना शुरू कर दिया कि प्रमोटरों, निवेशकों और शेयरधारकों का तो लाभ में बुनियादी हिस्सा होता है, जबकि कामगारों के अधिकारों की अनदेखी की जा सकती है? हम यह कब से भूल गए कि प्राकृतिक और मानव संसाधन प्रमोटरों के अंधाधुंध दोहन के लिए नहीं बने हैं बल्कि उन्हें सही हाल में सुरक्षित रखना भी प्रमोटरों की ज़िम्मेदारी है? हमने इस बात को आराम से मान लेना कब से शुरू कर दिया कि, चूंकि अर्ध-कुशल और अकुशल कामगार ठेकेदारों द्वारा जुटाए जा रहे हैं, इसलिए उनकी भलाई मालिकों और व्यवस्था की ज़िम्मेदारी नहीं है? इसलिए यह मान लिया  जाता है कि  अकुशल मजदूरों को कुशल बनाने पर पैसा खर्च करने , समग्र मानवीय विकास और श्रमिकों के साथ  भागीदारी करने की क्या ज़रूरत है? क्यों नहीं मजदूर यूनियनों  को ही समाप्त कर दिया जाए! हम यह बात कैसे भूल जाते हैं कि मजदूरी और पगार कम रख कर हम अपने ही उत्पादों और सेवाओं के बाज़ार को नष्ट कर रहे हैं और यह मॉडल आखिरकार अर्थव्यवस्था को ही नष्ट कर देगा?

      हम भूल गए कि कराधान ‘संपदा का पुनर्वितरण’ नहीं है, यह सम्पदा पैदा करने में समाज के योगदान के प्रति मात्र ‘मुआवजा’ और ‘व्यय का पुनः भुगतान’ ( रिइम्बर्समेंट) है। यह स्वीकार करने की बजाय कि ज्यादा प्रत्यक्ष व्यक्तिगत कर लेना स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास जैसे सामाजिक-आर्थिक सूचकों को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक है, हमने अप्रत्यक्ष करों का अनुपात 50 प्रतिशत से भी ज्यादा कर दिया और इस तरह समाज के गरीब लोगों पर करों का बेतरतीब बोझ डाल दिया। हमारे समाज के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों ने उनके फायदे वाली इन नीतियों के गुण गाए और यह ज्ञान बघारा कि वे, मूर्ख और आलसी (!) गरीब लोगों की तुलना में, कितने असाधारण स्तर के बुद्धिमान और मेहनती  हैं। यह एकदम झूठी कहानी बुनी गई है।  पिछले 35-40 सालों से यह खतरनाक  खेल चल रहा है। हमारी सार्वजनिक नीतियों में गरीबी और अभाव, शिक्षा-प्राप्ति में असमानताओं, कुपोषण और कम उम्र में मृत्यु जैसी विपत्तियों पर फोकस किया जाना बंद हो गया। बजाय इसके, ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की गईं कि धन-संपदा कुछ हाथों में ही सिमट कर रह जाए, और लाखों-करोड़ों आम जनों की  जायज मांगों की अनदेखी कर दी जाए।

      मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ लेकिन पिछले कुछ दशकों में मैंने देखा है कि यह मॉडल फेल हो गया है। हममें से बहुत से लोगों ने कड़ी मेहनत करते हुए जूझ रहे हमारे लाखों-करोड़ों लोगों की सूनी आँखों का दर्द देखा है और समाज  के लिए अनिष्ट का संकेत देती उनकी चुप्पी में छिपा विलाप सुना है। हम बेरोजगारों की निरंतर बढ़ती संख्या का भयावह सच भी देख पा रहे हैं। इन बदहाल  लोगों की गरीबी और अभावों की दबा दी गई सिसकियाँ भी हमने सुनी हैं जो सत्ता की उदासीनता और आतंक तथा अपनी हताशा और  सब कुछ ऊपरवाले की मर्जी पर छोड़ देने वाले पस्त भाग्यवाद की वजह से कभी अपनी आवाज़ उठा नहीं पाए। ये बेरोजगार लोग अपनी बेजारी, हताशा, कुंठा – यहाँ तक कि गुस्से को भी दबाये हुए हैं। इसी पस्तहाल समाज को हमारी ‘मानवीय पूंजी’( ह्यूमन केपिटल)  और ‘युवा जनसंख्या का लाभ’ ( पॉपुपलेशन डिविडेंड) बताकर ढ़ोल पीटा जाता है। इन विकृतियों से केवल भारत नहीं जूझ रहा है। पूरी दुनिया में ये हालात देखे जा सकते हैं। ये ज्यादा बड़ी महामारी है जो कभी भी फूट सकती है। ज़रूरत है कि हम कोरोनावायरस को प्रकृति की चेतावनी समझें और अपने विकास के मॉडल को ठीक करें। याद करें कि कैसे समझदार नेताओं ने न्यूयॉर्क में 1888 के बर्फीले तूफान का मुक़ाबला करने के लिए जमीन के नीचे बिजली और आवागमन की व्यवस्थाएं कीं। किस तरह लंदन में 1832 में हैजा फैलने पर आम जनता के लिए व्यापक स्वास्थ्य व्यवस्थाएँ की गईं। कैसे शिकागो में 1871 में बड़े पैमाने  पर आग भड़क उठने के बाद, बहुमंजिला इमारतें बनाई जाने की शुरुआत हुई।

      इसलिए यही समय है कि नीतियाँ बदली जाएँ। भारत के लिए यह जागने का समय है – आज और अभी। 

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भारत पिछड़ा रहेगा तो इंडिया भी चमकदार नहीं रह सकता

        सभी वयस्कों के लिए बिना किसी भेदभाव के मताधिकार वाली हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली पुख्ता बुनियाद पर टिकी है। हमारा संविधान ऐसे समझदार लोगों ने रचा जिन्होंने अनेक वर्षों तक औपनिवेशिक शासन का दंश झेला था और जिन्होंने इस संविधान में नियंत्रणों और संतुलनों की ऐसी पक्की व्यवस्थाएँ रखीं ताकि हम बाहरी – बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि अंदर की ही ताकतों की वजह से – कहीं फिर से गुलाम न हो जाएँ। ऐसी व्यवस्था की गई कि जनता अपने प्रतिनिधि चुने जो ऐसी नीतियाँ और कायदे-कानून बनाएँ जिनसे देश के  संसाधनों का देश के सर्वांगीण विकास के लिए इस्तेमाल हो सके। हम, भारत के लोग, खुद अपने शासक बनें; हमें किसी हुजूर-जहाँपनाह की ज़रूरत न हो। हमारी संस्थाएं प्रगतिशील हों जो  देश के दूरगामी हितों को ध्यान में रख कर नीतियाँ बनाएँ, न कि किसी तात्कालिक दबाव में नीतियाँ न बनाई जाएँ। धीरे-धीरे, राजनैतिक अवसरवाद की वजह से फटाफट लाभ नज़र आने वाली नीतियाँ बनने लगीं और सार्वजनिक भलाई को एसी नीतियों को लागू करने की राह की रुकावट समझा जाने लगा। इसीलिए, पर्यावरण से जुड़ी चिंताएँ, सही प्रक्रियाओं के पालन और प्राकृतिक संसाधनों के  ईमानदारी से आबंटन के सवालों को तरक्की में बाधा  समझा जाने लगा।

      पिछले कई वर्षों से, नेताओं और संस्थाओं में  अपनी जिम्मेदारियों से बचने की प्रवृत्ति बढ़ी है। जाने-अनजाने निर्णय लेने का काम बाहरी निहित स्वार्थों वाले समूहों को सौंपा जाने लगा है जो निर्णय लेने वालों की मदद करके अपना दबदबा बढ़ाते जा रहे हैं। आजकल आर्थिक मुद्दों पर दलालों और निगरानी के दायरे से बाहर फर्जी ब्रोक्रेजेज़ और हेज फंड चलाने वालों से परामर्श लिए जा रहे हैं। टेक्नोलॉजी फर्मों से सीधे जुड़े  प्रोफेसनल आईटी  और साइबर सेक्यूरिटी से जुड़े मुद्दों पर सलाहकार बनाए जा रहे हैं। सभी क्षेत्रों – स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, मीडिया, आधारभूत सुविधाओं का विकास – यहाँ तक कि, मेरा तो मानना है कि  अन्य देशों के साथ सम्बन्धों, राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीतिक मामलों में भी, यही चल रहा है। किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ को सलाहकार रखना तो ठीक है; लेकिन क्या उन्हें देश की नीति तय करने का जिम्मा भी सोंपा जा सकता है? यह तो एकदम वाहियात बात है। यह सरासर ‘इनसाइड ट्रेडिंग’ और ‘हितों के टकराव ( कॉन्फ़्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट ) का मामला है। ताज्जुब है कि हम इसे बर्दाश्त कर रहे हैं। हर नीतिगत मामले के बारे में, उससे जुड़े सभी लोगों के बीच, खुले आम सलाह-मशविरा किया जाना चाहिए। हमारी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में जो सड़ांध आ गई है, वह केवल जनता की खुली आँखों के आगे फैसलों की सूरज की तेज धूप  और खुली आलोचनात्मक चर्चा की ऑक्सिजन से ही साफ हो सकती है।

      जिन आर्थिक सूचकांकों का हम इस्तेमाल करते हैं, वे गुमराह करने वाले हैं। हम सबसे ज्यादा उन्हीं  आंकड़ों का इस्तेमाल करते हैं जिनसे आय की गंभीर असमानताएँ और गरीब- अमीर के बीच की खाई कम नजर आते हैं। जीडीपी और जीएनपी के सूचकांकों का इस्तेमाल (तत्कालीन) सोवियत खेमे के देशों की उपलब्धियों को नीचा दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। उस दौर के अमेरिकी राष्ट्रपति  जॉन एफ़. केनेडी के शब्द याद कीजिए,” जीएनपी से हमारे बच्चों की सेहत, उनकी शिक्षा और उनके खेलों के आनंद की स्थिति का पता नहीं चलता। इससे हमारी कविता के सौंदर्य, और हमारे विवाह-बंधनों के पुख्ता होने, सार्वजनिक मुद्दों पर हमारी चर्चाओं की बुद्धिमत्ता और हमारे सरकारी अमले की ईमानदारी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं मिलती। इससे हमारी हाजिरजवाबी, साहस, बुद्धि, ज्ञान, करुणा और देश के प्रति हमारी निष्ठा का भी पता नहीं चलता। संक्षेप में कहें तो, जीएनपी सारे संकेतकों  की माप-तोल करता है, सिवाय उनके जो हमारे जीवन को जीने लायक बनाते हैं!”

     जानकार अब कोविद से उबरने के बाद की  ‘के-शेप्ड’ अर्थव्यवस्था का अनुमान लगा रहे हैं। इसका मतलब है कि जहां ‘इंडिया’ की तरक्की होगी, ‘भारत’ और नीचे गिरेगा। हालांकि सारे सूचकांक बताते रहेंगे कि जीडीपी बढ़ रहा है। शिखर पर कुछ के समृद्ध होने से समाज के निचले हिस्से तक भी उसके लाभ छन कर आने के ‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धांतों का क्या हुआ? धनवानों की बड़ी लहर के प्रबल होने से गरीबों की छोटी नावों का भी सफर आसान होने की ‘दि बिग वेव लिफ्टिंग दि स्माल बोट्स’ की उम्मीदों का क्या हुआ? क्या हमने आखिरकार इन मायावी बातों को दुहराना बंद दिया है और इस बात को वाजिब मान लिया है कि औद्योगिक मजदूरों, किसानों, दूसरे श्रमिकों, मझोले स्तर के डाक्टरों, इंजीनियरों और अध्यापकों का पस्तहाल होना ठीक है और धनिकों, वित्तीय करतब दिखने वाले  विशेषज्ञों, बड़े आईटी  प्रोफेसनलों और बेईमान व्यापारियों का कमाई करते हुए सीढ़ियाँ चढ़ते जाने में कोई बुराई  नहीं है?

शिखर पर बैठे एक प्रतिशत लोगों के लिए यह आरामदेह  स्थिति है कि जमीन पर पड़े हुए नब्बे प्रतिशत के दुख-दर्द के प्रति आँख-कान बंद कर लिए जाएँ। लेकिन बचे नौ प्रतिशत का क्या हाल है? ये नौ प्रतिशत उस शिक्षित मध्य वर्ग से हैं जिनसे देश की अंतरात्मा को जगाए रखने की उम्मीद थी। पिछले तीन दशकों से ये लोग भद्दे उपभोक्तावाद में भरमाए हुए हैं। इनकी कुल जनसंख्या इंग्लेंड और  फ्रांस की कुल जनसंख्या से ज्यादा है। यह जर्मनी की कुल आबादी से भी बहुत ज्यादा है।  ये  इतनी बड़ी संख्या में  है जो अपने आप में किसी अर्थव्यवस्था को चला सकते हैं। लेकिन इन्होंने सामाजिक सच्चाई से मुंह चुराना सीख लिया है। ये अपने मनोरंजनों में मस्त हैं, मजबूत पहरे वाली ‘गेटेड’ कॉलोनियों में रहते हैं और भरपूर दिखावे वाली जीवन-शैली और अघाने तक खाने-पहने के बाद भी इनके पास इतना बचता है कि ये देश के बाहर के धंधों-संपदाओं में भी पैसा लगाते  हैं। क्या आपने हमारे हवाई अड्डों पर निजी जेट विमानों की बढ़ती संख्या पर ध्यान दिया है? क्या किसी ने ‘कॉलोनाइजेशन ऑफ स्पेस” (अंतरिक्ष के औपनिवेशीकरण) का भी जिक्र किया है?

      एक जमाने में कॉर्पोरेटों के मुखिया  महान संस्थाओं के निर्माता होते थे। ( अब भी कुछ ऐसे सम्मानित व्यक्ति बचे हैं।) उनके औद्योगिक प्रयासों के पीछे एक दीर्घकालीन दृष्टि (विज़न) होती थी जो देश की सार्वजनिक नीति के अनुरूप होती थी, उसे ताकत देती थी। उन लोगों ने कंपनियाँ बनाईं; उन्हें मजबूत  बनाया-संवारा। उन्होंने कर्मचारियों के हितों का पूरा ध्यान रखा ताकि वे कंपनी के साथ अपनेपन की डोर से बंधी रहें। समग्र रूप से आगे बढ़ते इन उद्यमों में कर्मचारियों का प्रशिक्षण, शिक्षा, मनोरंजन और अन्य सुविधाएं भी उद्यमों के विकास का हिस्सा थीं। लेकिन आज ज़्यादातर प्रमोटरों का नजरिया एकदम साफ है – ज़्यादा से ज़्यादा पैसा, जल्दी से जल्दी बनाना। आज के इन उद्यमियों में न तो एक श्रेष्ठ संस्था बनाने का विजन है, न उन्हें बेईमानी से पैसा बटोर कर कंपनी को डूबा देने में कोई शर्म ही आती है। वे लोगों को बेरहमी से बर्बाद करने को कंपनियाँ खड़ी करते हैं और पैसा बटोर कर अपनी ही कंपनियों को डुबा देना बढ़िया व्यापारिक नीति समझा जाता है।

औद्योगिक क्रांति के आने से अभूतपूर्व आर्थिक प्रगति हुई। दुनिया के इतिहास में यह गरीबी दूर कर सकने वाली सबसे कारगर घटना थी। दुर्भाग्य से पिछले पाँच-छह दशकों से पूंजीवाद के पैरोकारों ने इसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया है। व्यापार से जुड़े लोग सरकार से लगातार उनके पक्ष में कदम उठाने की गुहार लगाते रहते हैं। उन्हें सबसिडी चाहिए, करों में रियायत चाहिए और दूसरे प्रतियोगियों से बचाव के लिए नियम-क़ानूनों के जरिए संरक्षण भी चाहिए। क्या आपने कभी उन्हें मुक्त प्रतिस्पर्धा और मुक्त बाज़ार की वकालत करते देखा है? व्यापार के पक्षधर नज़र आते ये लोग, लगातार मुक्त  बाज़ारों के विरोधी और भ्रष्टाचार के समर्थक होते जा रहें हैं। सही मायनों में तो ये पूंजीवाद के भी विरोधी हैं। सच तो यह है कि ये निहित स्वार्थी लोग अर्थव्यवस्था को समृद्ध बनाने वालों को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते, ये तो बेईमानों के लिए संरक्षण चाहते हैं।

     हमारे कॉर्पोरेट मालिकों को याद रखना चाहिए कि प्रकृति असंतुलन को नापसंद करती है। सच्चाई हमें आगाह कर रही है कि हम अपनी राह बदलें। देश की विशाल जनसंख्या को आर्थिक विकास के दायरे से बाहर कर दिया गया है। आखिर क्यों हमारे कॉर्पोरेट अपने उद्देश्यों को इन वंचित लोगों की जरूरतों के अनुरूप नहीं बनाते? वे उन्हें काम क्यों नहीं देते? क्योंकि आम लोगों को  काम देने से ही उनके हाथों में पैसा आएगा और जब पैसा उनके हाथ में आएगा तो बाज़ार भी फलेगा-फूलेगा। क्या आपको हेनरी फोर्ड का जीवन याद है? अपनी 1926 में लिखी किताब – ‘टुडे एंड टुमोरो’ में फोर्ड ने एक चुनौती भरी बात कही है, “मालिक, कर्मचारी और खरीदार – सब एक ही हैं। अगर उद्यमी कामगारों को बेहतर वेतन देने के साथ-साथ कीमतें कम नहीं रख पाएंगे तो वे खुद को बर्बाद कर लेंगे। क्योंकि ऐसा नहीं कर पाने से वे अपने ही ग्राहक कम करेंगे। अपने कर्मचारी ही अपने सबसे अच्छे ग्राहक हैं।“ 1914 में फोर्ड ने जब आधुनिक तरीके से बड़े  पैमाने पर अपनी प्रसिद्ध टीएस मॉडल कार का उत्पादन शुरू किया तो उन्होंने अपने कर्मचारियों की तनख़्वाह दुगुनी कर दी। फोर्ड ने लिखा,”हमने अपने लोगों की खरीदने की क्षमता बढ़ा दी   और उन्होंने दूसरे लोगों की खरीदने की क्षमता बढ़ाई – और यह सिलसिला चलता रहा।“            

       यही तो बड़े दिल और खुले दिमाग वाला विजन है! 

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* वरिष्ठ सिविल सेवा अधिकारी संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष रहे हैं। करीब तीन दशकों तक भारत सरकार के रिसर्च एंड एनालिसिस विंग में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करने के बाद, 2015 में वह यूपीएससी के सदस्य और बाद में अध्यक्ष बने। दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से सिविल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने आईआईटी, दिल्ली से सिस्टम मैनेजमेंट में मास्टर्स की डिग्री हासिल की।

**राजेंद्र भट्ट भारतीय सूचना सेवा से जुड़े रहे हैं । भारत सरकार के  प्रकाशन, प्रसारण  और फिल्म माध्यमों में पत्रकारिता का उनका लंबा अनुभव रहा है। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया माध्यमों पर वह निरंतर लेख, कहानियाँ और बाल-साहित्य लिखते रहे हैं।

1 COMMENT

  1. बेहतरीन, विचारोत्तेजक लेख की श्रृंखला को बहुत लोगों तक ले जाना होगा…प्रवाहमय अनुवाद इसे और रुचिकर बनती है.

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