जनता की जीत और कॉंग्रेस की हार

आज की बात

24 अक्तूबर की शाम को यह लिखे जाने तक महाराष्ट्र और हरियाणा की विधानसभाओं के नतीजे या रुझान आ चुके हैं। दिन भर हरियाणा को लेकर टीवी चैनल्स में ये बात चली कि क्या गैर-भाजपा विपक्ष सरकार बनाने की कोशिश कर सकता है किन्तु सूरज ढलते-ढलते यह बात भी खत्म हो गई।

भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनने की पूरी संभावना के बावजूद इन दोनों राज्यों के चुनाव-परिणामों से यह एक बार फिर स्पष्ट हो गया कि मोदी और भाजपा अजेय नहीं हैं बल्कि पीछे मुड़कर देखें तो ऐसा लगता है कि कॉंग्रेस अगर अपने पत्ते दक्षता से खेलती तो इन दोनों ही राज्यों में वह मुश्किल पैदा कर सकती थी। लेकिन कॉंग्रेस ने इन दोनों राज्यों में ऐसा चुनाव लड़ा जिसे देखकर प्रेक्षकों ने यहाँ  तक कहा कि इस बार तो कांग्रेस चुनाव लड़ने की अनिच्छुक लग रही है। जिस तरह की अनिश्चितता, अन्यमनस्कता और अनुशासनहीनता गुजरात, मध्य-प्रदेश और राजस्थान की विधानसभाओं के चुनाव के समय में देखी गई थी, इस बार ये सब उससे भी ज़्यादा था।

चुनाव-परिणामों से लग रहा है कि वह लोग सही कह रहे हैं जिनका मानना है कि कांग्रेस का नेतृत्व अब बिना लड़े ही हथियार डाल देता है। ऐसे लोग कहते हैं कि देश की इस सबसे पुरानी पार्टी की हालत ऐसी हो गई है कि इसमें नेतृत्व और कार्यकर्ता दोनों ही हार मान कर बैठे हैं लेकिन ये तो जनता ही है जो बीच-बीच में इसको टॉनिक देकर जिला देते हैं। पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ जैसे राज्यों में जनता ने कांग्रेस की सरकारें बनवाकर कर ना केवल अनिच्छुक कांग्रेस में जान डाली बल्कि एक तरह से देश में लोकतन्त्र की मशाल रोशनी फैलाती रहे, ये सुनिश्चित किया।

उसके बाद कांग्रेस लोकसभा चुनाव दम-खम के साथ लड़ने की नियत से चुनाव मैदान में उतरी तो ज़रूर और राहुल गांधी ने प्रचार भी धुआँधार किया किन्तु पार्टी की थकी-हारी मशीनरी भाजपा के  चुस्त-दुरुस्त चुनावी-प्रबंधन के सामने ढेर हो गई। बेरोज़गारी और किसानों की बदहाली – कम से कम ये दोनों मुद्दे ऐसे थे जो ग्रामीण वोटर को सीधे-सीधे छूते थे लेकिन चुनाव के थोड़ा पहले पुलवामा में सीआरपीएफ़ के जवानों की शहादत का बदला लेने के लिए भारतीय वायुसेना द्वारा पाकिस्तान में घुसकर बालाकोट एयर-स्ट्राइकस ने देश में भाजपा के पक्ष में ऐसा माहौल बनाया कि कांग्रेस फिर एक बार असहाय हो गई।

अभी पाँच महीने पहले ही लोकसभा चुनावों में बुरी तरह मुंह की खाने के बाद कांग्रेस महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के लिए बिल्कुल तैयारी-विहीन स्थिति में तो लग ही रही थी, ऊपर से रही सही कसर पूरी कर दी पार्टी छोडकर भाग जाने वाले लोगों ने। हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों जगह ही ये समस्या देखी गई किन्तु हरियाणा में तो हद हो गई जब प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके भूपिंदर सिंह हुड्डा ने और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके अशोक तंवर ने अलग-अलग प्रेस कॉन्फ्रेंस करके केंद्रीय नेतृत्व को धमकियाँ दी। ऐसे में यह स्वाभाविक ही था कि सभी राजनीतिक प्रेक्षकों ने भाजपा के लिए पहले से भी बेहतर स्थिति की भविष्यवाणियाँ कर डालीं।

लेकिन यहीं जनता का कमाल शुरू होता है। पता नहीं कैसे लगभग सभी अनुमानों को झुठलाते हुए दोनों प्रदेशों में मतदाताओं ने भाजपा को उम्मीद से काफी कम रखा है और सरकार बनाने और बचाए रखने के लिए उसकी अपने सहयोगी दलों पर निर्भरता बहुत बढ़ गई है। अभी तुरंत ये पता लगाना तो मुश्किल है कि इसका कारण क्या रहा होगा लेकिन ये स्पष्ट हो गया है कि धारा 370 हटाने और पाकिस्तान को सबक सिखाने के ‘नैरेटिव’ ने इस बार वैसा काम नहीं किया जैसा की अपेक्षित था। दोनों जगह जनता ने स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता दी हालांकि कुछ हद तक सही कारणों की पड़ताल के लिए किसी विश्वसनीय एजेंसी द्वारा सर्वे की आवश्यकता होगी।

किसी छोटे से राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने टेलीविजन पर एक चर्चा के दौरान यह बात बहुत पते की कही कि हरियाणा में उग्र-राष्ट्रवाद और पाकिस्तान को सबक सिखाने के नाम पर वोट लेना मुश्किल है क्योंकि वहाँ से हर परिवार से कोई ना कोई पिता-पुत्र-भाई सेना या अर्ध-सैनिक बलों में होता है। ऐसे परिवारों को आप देशभक्ति और राष्ट्रीयता के नाम पर ठग नहीं सकते।

परिणाम चाहे भाजपा के लिए उम्मीद के अनुसार नहीं रहे, ये तो है कि सरकार तो दोनों जगह भाजपा की ही बनेगी लेकिन दोनों ही राज्यों में उसको सहयोगी दलों पर निर्भर रहना होगा। अपने आप में ये बुरी बात नहीं होती क्योंकि इससे भाजपा निरंकुश नहीं होगी जैसी कि वह केंद्र में है। केंद्र में भी पार्टी का नहीं बल्कि केवल प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी सुप्रीमो और गृह मंत्री अमित शाह का सरकार और पार्टी के सभी निर्णयों पर अधिकार लगता है।

ऐसी निरंकुशता कुछ लोगों को अच्छी लग सकती है क्योंकि उनका तर्क होता है उससे त्वरित निर्णय लिए जा सकते हैं किन्तु असल में होता इसका उलट है। निरंकुश शासकों को उचित सलाह मिलनी बंद हो जाती है क्योंकि वह सलाह को कोई महत्व भी नहीं देते। कभी कभी तो व्यापक विचार-विमर्श के अभाव में हिमालय जैसी बड़ी गलतियाँ हो जाती हैं। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा की गई नोटबंदी को काफी सारे अर्थशास्त्री ऐसी ही गलती मानते हैं।

अब आगामी कुछ महीनों में दिल्ली और झारखंड विधानसभा के चुनाव होने हैं। दिल्ली के चुनावों में तो भाजपा के पास खोने को कुछ नहीं है, और इसलिए उसमें उसका सुधार ही होना है। देखना ये है कि आम आदमी पार्टी अपनी सत्ता को बचाने में कामयाब रहती है या नहीं। कांग्रेस इन दोनों राज्यों में किस श्रेणी का चुनाव लड़ती है, यह उसके नेतृत्व के लिए भी चुनौती है। हालांकि हरियाणा और महाराष्ट्र ने ये सिद्ध कर दिया है कि कांग्रेस के लिए किसी भी राज्य विधानसभा का चुनाव जीतना असंभव नहीं बशर्ते कि वो चुनाव लड़े, बिना लड़े हथियार ना डाले।

विद्या भूषण अरोरा  

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