लोहिया के राम और आज का फैसला

आज की बात

कुछ चीजों से बचा नहीं जा सकता। जैसे आपने ऐसी वैबसाइट बनाई है जिस पर आप आए दिन किसी ना किसी राजनीतिक-सामाजिक मुद्दे पर टिप्पणी करते रहते हैं तो आज अयोध्या मुद्दे पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर लिखने से कैसे बच सकते हैं? मालूम है कि कोई कुछ नहीं कहेगा – एक-आध दोस्त उत्साह बढ़ाने को कह सकते हैं कि अरे, हम तो तुम्हारी टिप्पणी पढ़ना चाहते थे और जवाब में मुस्करा कर आप कुछ भी कह सकते हैं।  लेकिन फिर भी लगा कि नहीं, कभी खुद से तो भी पूछना पड़ता है। कभी खुद ने खुद से पूछा कि क्यों भाई, क्या हुआ था उस रोज़ नौ नवंबर 2019 को जो एक भी शब्द नहीं लिखा तो फिर अपने से भी झूठ नहीं बोला जाएगा और शर्मिंदगी होगी।

झूठ तो हो सकता है कि आज भी बोलना पड़े या यूं कहिए कि हो सकता है कि पूरा सच ना बोला जाये – क्या ज़रूरी है कि इस 700-800 शब्दों के आलेख में पूरी तरह सच बोला जाये लेकिन जब कभी आने वाले बरसों में इसे डायरी की तरह पढ़ेंगे तो मन में साफ होगा कि क्या सच लिखा था और इसमें कहाँ कहाँ सच लिखने से कन्नी काट गए। चार दशक पहले जब हम जवानी की दहलीज पर दस्तक दे रहे तो डायरी लिखते थे – तब यही होता था। कहीं तो सच लिख देते थे और कहीं सच से कन्नी काट जाते थे। मज़ा आता था उन पन्नों को पढ़कर – ‘था’ इसलिए कहा कि उन डायरियों को अब फाड़ दिया – परिवारों में भी कितनी तरह के डरों के बीच जीते हैं हम! 

इस लंबी भूमिका का कारण शायद यही हो कि मन का एक हिस्सा मुख्य मुद्दे पर आना ही नहीं चाह रहा हो। मन जानता है कि उसे इतना भर कहने में भी डर है कि यार कहीं कुछ गलत हो रहा लगता है। कहाँ से आए ये कहने की हिम्मत – कोई भी तो नहीं कह रहा – शायद इसलिए भी नहीं कह रहा कि सब पर ये ज़िम्मेवारी है कि उन्हें शांति बनाए रखनी है। ठीक है भाई बनाए रखो शांति पर क्या आँसू निकलना कमजोरी की निशानी होगा? ठीक है भाई, कोई यहाँ रोना भी नहीं लेकिन क्या इतना हो पाएगा कि हम खाली सोच सकें। सोचने पर तो कोई बंदिश नहीं ना?

वैसे सोचना क्या? सोचने से तो और भी अजीब लगता है। वैसे इतने सारे लोगों से अलग क्यों लग रहा है हमें? एक प्रेक्टिसिंग हिन्दू के तौर पर मुझे तो बहुत खुश होना चाहिए कि राम लला को मंदिर मिल गया – मेरे सभी दोस्तों को तो नहीं मालूम लेकिन काफी लोग जानते हैं कि पिछले कम से कम 20 वर्षों से मैं कभी-कभार मंदिर जाने के अतिरिक्त घर पर भी दस-बीस मिनट पूजा को देता हूँ। नियमित ना सही लेकिन फिर भी काफी नियमित। सियाराम के अनन्य भक्त हनुमान मुझे विशेष प्रिय हैं। फिर भी मैं खुश क्यों नहीं हो पा रहा कि राम लला को मंदिर मिल गया?

कोई स्पष्ट कारण तो मेरे दिमाग में नहीं आ रहा – फिर एक ही कारण हो सकता है कि मेरे मन में राम की जो छवि है, उसमें इस तरह की छीना-झपटी की कोई जगह नहीं है। हमारे कम्युनिस्ट मित्र और हमारे दलित एक्टिविस्ट मित्र अपने लेखों में या अपनी बातचीत में राम की कमियों की चर्चा गाहे-बगाहे करते रहते हैं लेकिन यकीन मानिए, अपने को तो राम सत्य, धर्म और न्याय का पर्याय लगते हैं। गांधी जो मंदिर जाने में तो ज़्यादा विश्वास नहीं रखते थे (खास तौर पर अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, जब वह ये मानते थे कि यदि अछूतों को मंदिर जाने का अधिकार नहीं होगा तो वह भी मंदिर नहीं जाएंगे) लेकिन फिर भी राम को  तो वह बहुत मानते थे। उनके रामराज्य की परिकल्पना के बारे में मैंने ज़्यादा नहीं पढ़ा लेकिन डॉ राम मनोहर लोहिया का एक लेख ‘राम, कृष्ण और शिव’ बचपन में पढ़ा था जिसकी छाप अभी भी बनी है। 

उपरोक्त लेख मुझे काफी अच्छा लगा था – तब भी और आज जब मैंने उसे खोज कर फिर निकाला तो आज भी!  शायद ऑनलाइन भी अब कहीं उपलब्ध होगा। इसी लेख की कुछ पंक्तियाँ आज ज़्यादा प्रासंगिक लगीं। इन पंक्तियों को देखिये – “राम का जीवन बिना हड़पे हुए फलने की कहानी है। (इस संदर्भ में वो याद दिलाते हैं कि उन्होने बालि के राज्य को नहीं हड़पा जबकि वह यह आसानी से कर सकते थे। लंका में भी उन्होने इसी क्रम को दोहराया)….बड़े और अच्छे शासन के लिए राम की बिना हड़पे हुए फैलाव की कहानी है…”

मुझे चिंता है कि आज कहीं मेरे राम को ना लग रहा हो कि उनके चाहने वालों ने अंजाने में ही उनके नाम पर किसी ऐसी जगह को हड़प लिया जो ठीक से पता भी नहीं कि उनकी थी कि नहीं? कहीं राम ना सोच रहे हों कि मेरे लिए कोई भव्य स्थान  ही बनाना था तो कहीं अगल-बगल बना लेते क्योंकि अगर इस स्थान को लेने से किसी का दिल दुखा तो क्या राम को बुरा नहीं लगेगा? अपने सिद्धांतों के लिए कुछ भी कुर्बानी देने को तैयार रहने वाले राम को ये कहीं अच्छा ना लग रहा हो कि उनके लिए कोई ऐसी ज़मीन ले ली गई है जिसे कुछ लोग कम से कम 470 बरस से अपनी मान रहे थे। 

डॉ लोहिया को एक बार फिर उद्धृत करूँ तो  उन्होने ये भी लिखा -“भारत की आत्मा के इतिहास के लिए ये तीन नाम – राम, कृष्ण और शिव – सबसे सच्चे  और पूरे कारवाँ में महानतम हैं।….इतने ऊंचे और अपूर्व हैं कि दूसरों के मुक़ाबले में असंभव दीखते हैं। जैसे पत्थरों और धातुओं पर इतिहास लिखा मिलता है, वैसे ही इनकी कहानियाँ लोगों के दिमागों पर अंकित हैं जो मिटाई नहीं जा सकतीं।”  तो ऐसे राम को किसी भव्य मंदिर की ज़रूरत तो नहीं थी और इसीलिए हमें लग रहा है कि ऐसे महानतम राम को कहीं आज हमने अदालतों के साथ मिलकर किसी संकोच में तो नहीं डाल दिया? 

एक बार फिर लोहिया कहते हैं – “राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है…उन्होने नियम का यथावत पालन किया जो मर्यादित पुरुष की एक बड़ी निशानी है”। तो आज कहीं कोई ऐसी मर्यादा भंग तो नहीं हुई जिससे हम सबके राम को अटपटा लगे? कौन जाने राम के मन की बात लेकिन उनके एक अर्चक के रूप में अपने को तो आज का फैसला ऐसा लग रहा है जिस पर राम को आपत्ति हो सकती थी। 

अपने को नहीं पता कि अब क्या होगा? उम्मीद करनी चाहिए कि कुछ ना कुछ चमत्कार ज़रूर होगा और हम यानि हमारा समाज अपने आप कुछ रास्ता निकाल ही लेगा। अभी तो मन थोड़ा उदास है क्योंकि ये चिंता तो है ही कि देश की जो तस्वीर हम मन में लेकर बड़े हुए हैं जिसमें सर्वधर्म समभाव जैसी बातें सबसे अहम होती थीं, उस तस्वीर में कुछ परिवर्तन आता दिख रहा है। राम जो धर्म और न्याय के प्रतीक हैं और जिन्होंने स्थापित नियमों का पालन करने के लिए साम्राज्य छोड़ दिया,  उनके नाम पर अगर कुछ ‘हड़पने’ की फीलिंग हो रही है, तो मन का विचलित होना अस्वाभाविक नहीं हैं।

राम महात्मा गांधी और लोहिया दोनों को बहुत प्रिय थे। अगर राजनीति में मुझे कोई संबल नज़र आता है तो इन्हीं दोनों में आता है। और मेरे आध्यात्मिक संसार में सिया (सीता) और राम मेरे अत्यंत प्रिय देवता हैं, मेरे आराध्य हनुमान के भी आराध्य हैं वो – स्वाभाविक है कि मुझे उनका नाम किसी विवाद में नहीं चाहिए, ऐसे विवाद में तो बिलकुल नहीं जो बिलकुल लौकिक किस्म का विवाद है….ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े का विवाद। 

विद्या भूषण अरोरा 

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