जातीय जनगणना : भाजपा के लिए आसान नहीं है अनदेखी

राजकेश्वर सिंह*

राजनीतिक दलों ने इन दिनों चल रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ ही अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की भी जमीन तैयार करनी शुरू कर दी है। वैसे तो साल दर साल महंगाई, बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था जैसे तमाम मुद्दे चर्चा में रहते ही हैं, लेकिन चुनावों में उन पर बहुत बहस नहीं होती और उसमें कुछ दूसरे ही मुद्दे हावी हो जाते हैं। बीते चुनावों पर गौर करेंगे तो इसकी तमाम नजीरें भी मिल जाएंगी।

इस बार भी कुछ ऐसा ही होता दिख रहा है, जब भाजपा के खिलाफ बना विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन जातीय जनगणना व पिछड़ों से जुड़े मुद्दों को धार देने में लगा है। राज्य विधानसभाओं के चुनावों में भी वह इसे बड़े ज़ोर-शोर से उठा रहा है। उसमें भी कांग्रेस तो दो कदम और आगे है। विपक्ष की पूरी कोशिश भाजपा को भी इस पिच पर लाने की है, जबकि भाजपा हिंदुत्व और राम मंदिर के बहाने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की दिशा में ज्यादा सक्रिय है। बावजूद इसके जो राजनीतिक परिस्थितियां बन रही हैं, उसमें नहीं लगता कि भाजपा जातीय जनगणना व पिछड़ों के मुद्दों को बहुत दिनों तक नजरंदाज कर पाएगी।

भाजपा वैसे तो खुले तौर पर जाति-पांति, धर्म-संप्रदाय और अगड़े-पिछड़े के नाम पर राजनीति नहीं करने की दुहाई देती है। उसकी नजर में सभी वर्गों में गरीब होते हैं और गरीबों की कोई जाति नहीं होती। इस तर्क के साथ वह जातीय जनगणना के सवाल पर कन्नी काटती दिखती है, लेकिन इस सबके बावजूद चुनावी राजनीति में उसे भी जातियों के असर का पूरा अहसास है और उनके वोट हासिल करने के लिए उसने अपनी सारी ताकत झोंक रखी है।

जैसा कि इस स्तंभकार ने अपने पिछले लेख में उल्लेख किया था कि देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में, जहाँ भाजपा खूब मजबूत स्थिति में है, वहाँ  भी अगले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर वह पूरे प्रदेश में जगह-जगह दलित सम्मेलन कर रही है। पार्टी के प्रदेश स्तर के बड़े नेता ही नहीं, खुद मुख्यमंत्री उन सम्मेलनों को संबोधित कर रहे हैं और वह यह गिना रहे हैं कि उनकी सरकार दलितों कि लिए किस तरह प्रतिबद्ध होकर काम कर रही है।

इसके साथ ही भाजपा जातीय जनगणना कि मुद्दे पर अभी भले ही चुप्पी साधे हो, लेकिन उसके खतरे को लेकर वह कम आशंकित भी नहीं है। तभी तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा व केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले प्रदेश व केंद्र सरकार में पिछड़े वर्ग के मंत्रियों व सांसदों के साथ बैठक कर जातीय जनगणना मुद्दे की काट तलाशने में जुट गए हैं।

पार्टी की इन तैयारियों की वजह साफ है कि भाजपा आज जिस बुलंदी पर है, उसमें पिछड़ों का बहुत बड़ा हाथ है। वह इस बात को नजरंदाज कैसे कर सकती है कि उसे 2009 के लोकसभा चुनाव में पिछड़ों का 22 फीसद और कांग्रेस को 24 फीसद वोट मिले थे, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में उसी भाजपा को ओबीसी का 34 फीसद वोट मिल गया, जबकि 2019 में तो यह और बढ़कर 44 फीसद तक पहुंच गया। ऐसे में वह यह खतरा मोल नहीं ले सकती कि 2024 में पिछड़े वर्ग के मतदाता उससे छिटक जाएं, वह भी तब, जब मौजूदा विपक्ष 2014 व 2019 की तुलना में ज्यादा एकजुट व मजबूत हुआ है।

इन स्थितियों के साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण है कि भाजपा राज्य विधानसभाओं के चुनाव में अपनी पार्टी से मुख्यमंत्री का चेहरा बमुश्किल ही घोषित करती है। केंद्र में जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, पार्टी अमूमन उन्हीं के चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ती है। मौजदा विधानसभा चुनावों में भी उसने किसी राज्य में किसी को मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं घोषित किया है। मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री हैं, लेकिन पार्टी ने उनको भी मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में नहीं घोषित किया है। इस स्थिति के बावजूद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बीते दिनों तेलंगाना में चुनाव प्रचार के दौरान यह घोषणा की कि यदि वहां भाजपा सत्ता में आती है तो उनका मुख्यमंत्री पिछड़े समुदाय से ही होगा। शाह के इस बयान से भी भाजपा की स्थिति को समझा जा सकता है कि जातीय जनगणना व पिछड़ों के सवाल पर कहीं न कहीं उसकी चिंता बढ़ी हुई है और जिस तरह विपक्ष इस मुद्दे को गरमाए हुए है, वह उसकी अनदेखी नहीं कर सकती। हालांकि, मोदी मंत्रिमंडल में दो दर्जन से अधिक मंत्री पिछड़े वर्ग से ही हैं और उनमें भी 19 तो अति पिछड़े वर्ग से हैं, फिर जाति जनगणना का सवाल अपनी जगह बना हुआ है।

इस बीच, राज्य विधानसभा के चुनावों में यह मुद्दा गूंज ही रहा है, जबकि गैर भाजपा शासित कई राज्यों के मुख्यमंत्री जातीय सर्वे कराने की तरफ बढ़ चुके हैं। बिहार में तो नीतीश कुमार की सरकार जातीय सर्वे कराके उसके डेटा को सार्वजनिक कर चुकी है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा है कि यदि कांग्रेस की सरकार फिर बनी तो वे भी जातीय सर्वे कराएंगे। राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार बीते सात अक्टूबर को इसका नोटिफिकेशन कर चुकी है। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने भी ऐसा ही वादा किया है तो कर्नाटक में कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा है कि उनकी सरकार 2015 में कराए गए जातीय सर्वे के डेटा का सार्वजनिक करेगी। उधर, उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार जातीय सर्वे पूरा करा चुकी है, उसे डेटा का इंतजार है, जबकि आंध्र प्रदेश की जगन मोहन रेड्डी सरकार ने आगामी 15 नवंबर से जातीय सर्वे कराने की बात कही है। इस तरह देखा जाए तो गैर भाजपा सरकारें जातीय जनगणना के सवाल पर ज्यादा मुखर हैं, जबकि चुनावों में पिछड़ों से सबसे ज्यादा लाभान्वित होने वाली भाजपा इस मुद्दे पर लगभग खामोश है।

प्रश्न यह है कि भाजपा जातीय जनगणना के सवाल पर कब तक खामोश रह सकती है क्योंकि राजग के कुछ घटक दल ही नहीं, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में उसके दल से सरकार में उप मुख्यमंत्री भी निजी तौर पर जातीय जनगणना की हिमायत करते रहे हैं। जाहिर है भाजपा के लिए इस मुद्दे की बहुत देर तक अनदेखी करना मुश्किल होगी। या फिर, यूं कहें कि जातीय जनगणना के मुद्दे पर ‘इंडिया’ गठबंधन की ओर से तैयार की गई पिच पर उसे भी आकर खेलना ही होगा, भले ही उसमें कुछ और देर लगे और यदि ऐसा होता है तो भी शायद यह पहली बार होगा कि भाजपा विपक्ष के पिच पर जाकर खेलने को मजबूर हो। साफ है कि वह स्थिति गठबंधन के लिए फायदेमंद ही साबित होगी। भाजपा की हालिया कार्यशैली को देखें तो इसके संकेत भी मिलने ही लगे हैं।  

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* लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजकेश्वर जी अमूनन हमारी वेब पत्रिका के लिए लिखते रहते हैं। इनके पहले वाले लेखों में से कुछ  आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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