पुस्तकांश – मल्टीप्लेक्सस में पॉपकॉर्न

ओंकार केडिया*

ओंकार केडिया जो यदा-कदा आपकी इस वेब-पत्रिका में अपना योगदान देते रहते हैं, अपने दो कविता-संग्रहों के प्रकाशन के बाद अब एक व्यंग्य-संकलन को लेकर आ रहे हैं। शीघ्र-प्रकाश्य यह संकलन “मल्टीप्लेक्सस में पॉपकॉर्न” नाम से जल्द ही ऑनलाइन बिक्री के लिए उपलब्ध होगा। इस संकलन की बानगी हम उनकी अनुमति से यहाँ दे रहे हैं।

ढाई सौ रुपये का पॉपकॉर्न

ऑनलाइन टिकट ख़रीदकर हम मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखने गए। एक टिकट 300 रुपए  का था। मुझे वह ज़माना याद आया, जब हम चवन्नी ख़र्च करके अपने क़स्बे के सिनेमा हॉल में पूरी फ़िल्म देख लिया करते थे। मैंने ख़ुद को लताड़ा। कहा, तुम जैसे बूढ़ों की यही समस्या है, बचपन से निकल ही नहीं पाते। सरकार ने तो चवन्नी-अठन्नी कब की बंद कर दी, पर तुम लोग हो कि इनको बंद होने ही नहीं देते। इसीलिए तो तुम्हारे बच्चे तुमसे चिढ़ते हैं।

मैंने सोचा कि 300 रुपए ज़्यादा तो हैं,पर कोई चारा भी नहीं है। कभी-कभी न चाहते हुए भी ज़ेब ढीली करनी पड़ती है, ताकि कंजूस का ठप्पा न लगे और घर में शांति बनी रहे। सब कुछ हमारी सोच पर निर्भर करता है। 300 रुपए के टिकट की जगह 2 लाख रुपए का नेकलेस भी तो हो सकता था।

टिकट के साथ ही सूचना भी थी कि बाहर से खाने-पीने का कोई सामान अंदर नहीं ले जा सकते। मुझे बड़ा अजीब लगा। भाई, अगर सफ़ाई की इतनी चिंता है, तो कह दो कि कुछ नहीं खा सकते। अगर डायबिटीज़ है, तो भी नहीं। पानी भी नहीं पी सकते। या तो खा लो या फ़िल्म देख लो। आख़िर करवा-चौथ के दिन महिलाएं क्या करती हैं? भूख-प्यास से बेहाल होकर भी आप पूरी फ़िल्म देख लें, तो समझ लें कि फ़िल्म बहुत अच्छी है। क्रिटिक्स के भरोसे क्या रहना? बाद में पता चला कि इन लोगों का उद्देश्य सफ़ाई नहीं, कमाई है।

मुझे जाने से पहले ही चिंता शुरू हो गई कि खाएँगे क्या। पीने की तो मुझे कोई ख़ास ज़रूरत पड़ती नहीं है।  श्रीमतीजी के पर्स में भी खाने के लिए कुछ नहीं था। सिक्योरिटीवालों ने इस तरह से जांच की थी , जैसे हम कोई आतंकवादी हों। मेरे पास तो कोई पर्स था नहीं। पॉकेट में वैसे ही कुछ नहीं रहता। श्रीमतीजी के पर्स में एक इलायची थी। वह भी उन्होंने निकाल ली। अदब से बोले कि मैडम, खाने-पीने की कोई भी चीज़ अंदर ले जाना मना है। मुझे उनका व्यवहार बहुत अच्छा लगा। मेरे मन में ख़याल आया कि इन लोगों को आतंकवाद से निपटनेवाले दस्तों में शामिल क्यों नहीं कर लिया जाता। इनके रहते मजाल है कि कोई इलायची में भी बारूद भरकर ले जाय।

अंदर जाकर सबसे पहले ध्यान से देखा कि कौन सी चीज़ कितने की है। पॉपकॉर्न 250 रुपए का था । दो-तीन बार रेट लिस्ट पढ़ने के बाद भी 250 से कम का कुछ नहीं मिला। धक्का-सा लगा। पॉपकॉर्न का रेट पढ़कर तो बहुत दुःख हुआ। हम तो आजकल की मँहगाई में भी 20 रुपए से ज़्यादा के पॉपकॉर्न कभी नहीं ख़रीदते। इतना पॉपकॉर्न आ जाता है कि पड़ोसियों को भी चखा दें।

मैंने सोचा कि जो लोग अपने दो-तीन छोटे बच्चों के साथ आए हैं, उनका क्या होगा। शुक्र है कि हमारा बच्चा बड़ा हो गया और हमारे साथ नहीं आया ।मुझे किसी शायर की ये पंक्तियां याद आईं –

‘मैंने बच्चों को बातों में लगा रखा है,

काश इतने में गुज़र जाए खिलौनेवाला.’

मकई और पॉपकॉर्न में फर्क

मैंने इंटरवल में फ़ूड स्टॉल पर जाकर कहा, ‘भैया, एक पैकेट मकई दे दो।’ स्टॉलवाले ने मुझे घूरकर देखा। बोला, ‘मकई नहीं है।’ सामने मशीन में मकई भरी पड़ी थी। कुछ दाने तो इतने सारे क़द्रदानों को देखकर ख़ुशी के मारे उछल भी रहे थे। स्टॉलवाला बड़ी बेशर्मी से झूठ बोल रहा था। 

यह तो मैं जानता था कि मल्टीप्लेक्स वाले बाहर से कुछ भी अंदर ले जाने नहीं देते, पर यह नहीं जानता था कि अंदर भी उन्हीं को सामान बेचते हैं, जिन्हें वे बेचना चाहते हैं। मुझे समझ में नहीं आया कि इस भेदभाव का आधार क्या है। आईने में अपना चेहरा मुझे ठीक-ठाक ही लगता है। अब तो  मैंने अपना वज़न भी कम कर लिया है। कपड़े भी ठीक-ठाक पहन रखे थे। मकई के लिए हिंदी में पूछा था, पर कोई बदतमीज़ी नहीं की थी। उधार भी नहीं मांग रहा था। न ही कोई मोल-भाव कर रहा था, जबकि मैं मोल-भाव किए बिना तो सुई भी नहीं ख़रीदता।  मकई की भी कोई कमी नहीं थी। पूरी मशीन भरी पड़ी थी। फिर मुझे मकई बेचने में उसे क्या दिक़्क़त थी?

मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने स्टॉल वाले से कहा कि भाई, सामने तो इतनी सारी रखी है। मना क्यों कर रहे हो? वह हँसने लगा। बोला, यह तो पॉपकॉर्न है। मकई कहेंगे, तो कौन समझेगा? फिर उसने धीरे से आँख मारते हुए कहा, ‘मैं तो मकई का मतलब समझ गया था, पर आपको भी तो पॉपकॉर्न का मतलब समझाना था न?  इसे आप शिक्षा के प्रचार-प्रसार में हमारा योगदान समझ लीजिए।’

मैंने  पूछा, ‘मकई ढाई सौ की क्यों? क्या पैदावार कम हो गई है या निर्यात बढ़ गया है?’ यहाँ भी स्टॉलवाले ने मुझे रौशनी दिखाई। बोला, ‘अगर मकई होती, तो दस रुपए में मिल जाती। पॉपकॉर्न है, इसलिए ढाई सौ रुपए का है।’ 

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*ओंकार केडिया पूर्व सिविल सेवा अधिकारी हैं। भारत सरकार में उच्च पदों पर पदासीन रहने के बाद आजकल वह असम रियल एस्टेट एपिलेट ट्राइब्यूनल के सदस्य हैं और गुवाहाटी में रह रहे हैं। वह अपने ब्लॉग http://betterurlife.blogspot.com/और http://onkarkedia.blogspot.com/ पर वर्षों से कवितायें और ब्लॉग लिख रहे हैं। कुछ माह पूर्व इनका कविता संग्रह इंद्रधनुष आया है जो काफी चर्चित हुआ। अंग्रेजी में इनकी कविताओं का पहला संग्रह Daddy भी हाल ही में आया है।  

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

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