‘दिल्ली जो एक शहर था’ – राजेंद्र लाल हांडा की 1950 में लिखी गई अनूठी पुस्तक

शुभम मिश्र* जिन्होंने पहले भी कई उर्दू पुस्तकों का अनुवाद किया है, हाल ही में दिल्ली पर राजेंद्र लाल हांडा द्वारा जनवरी 1951 में प्रकाशित उर्दू पुस्तक “दिल्ली जो एक शहर था” का अनुवाद किया है। इसी रोचक पुस्तक के बारे में यह लेख।

विद्या भूषण अरोड़ा

दिल्ली पर पुस्तकों की कमी नहीं जिनमें से बहुत सी नामी लेखकों की भी हैं और बड़े प्रकाशकों ने उन्हें प्रकाशित किया है। ऐसे में जनवरी 1951 में प्रकाशित  किन्हीं राजेन्द्र लाल हांडा की उर्दू पुस्तक “दिल्ली जो एक शहर था” का हिन्दी अनुवाद हाल ही में आया है जिसे श्री गुरु गोविंद सिंह ट्राइसेंटिनरी विश्वविद्यालय (SGT University) ने प्रकाशित किया है। लेखक राजेंद्र लाल हांडा के बारे में पुस्तक में अलग से कुछ नहीं लिखा गया है लेकिन उनके ब्यारौं में दो-तीन जगह उनके बारे में ज़रा सी जानकारी मिल जाती है। अनुवादक ने बताया कि पुस्तक के प्रकाशन के समय तक उनके बारे में कुछ विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं थी, अभी प्रयास चल रहा है, अगले संस्करण तक जो भी जानकारी उपलब्ध होगी, दी जाएगी। जल्द ही यह पुस्तक अमेज़न पर उपलब्ध होगी।

अनुवाद शुभम मिश्र ने किया है जो ना केवल उर्दू से हिन्दी के स्तरीय अनुवाद के क्षेत्र में अपनी जगह बना चुके हैं बल्कि वह एक ‘अर्बन प्लैनर’ हैं जो दिल्ली के ऐतिहासिक स्थानों का विभिन्न आयामों से अध्ययन कर रहे हैं। अपने काम के सिलसिले में ही उनको इस पुस्तक के बारे में पता चला और इसकी उपादेयता  देखते हुए वह इसके अनुवाद के प्रोजेक्ट से जुड़े।

पुस्तक को पढ़ने के बाद यह समझ आता है कि प्राइवेट क्षेत्र की एक यूनिवर्सिटी ने उर्दू की इस पुस्तक को हिन्दी अनुवाद के लिए क्यों चुना होगा। दरअसल यह पुस्तक अपने आप में इस मायने में अनूठी है है कि यह दिल्ली के इतिहास के ऐसे दस-ग्यारह वर्षों का आँखों देखा हाल ब्यान करती है जिन दस वर्षों में दिल्ली ने इतने परिवर्तन देखे जितने उसने अपने किसी भी दशक में नहीं देखे होंगे। आप कल्पना कीजिये वर्ष 1939 से 1950 का समय जब दिल्ली ने दूसरे विश्वयुद्ध से उत्पन्न स्थिति को देखा, भारत छोड़ो आंदोलन देखा, भारत को स्वतंत्र होते देखा, गांधी जी की हत्या देखी और विभाजन की विभीषिका को देखा जिसमें दिल्ली से लाखों लोग नए गढ़े गए बॉर्डर के दोनों और से आए और गए!

पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत जो इसे अन्य पुस्तकों से अलग बनाती है, यह है कि इसे किसी इतिहासकार ने नहीं बल्कि एक ऐसे सरकारी अफसर ने लिखा है जो सरकार के मीडिया विभाग से जुड़े थे और जिन्हें शायद सरकारी अनुभव के कारण घटनाओं के बारे में निरपेक्ष ढंग से लिखने की आदत रही होगी। चूंकि लेखक इतिहासकार नहीं थे, इसलिए यह पूरी पुस्तक एक तटस्थ पर्यवेक्षक की रोचक टिप्पणियों के संकलन के रूप में सामने आई है। एक मज़ेदार पक्ष यह है कि वर्ष 1950 में लिखी गई इन टिप्पणियों में बहुत सी ऐसी हैं जिन्हें हम आज भी हु-ब-हु दोहराते हैं जो इस तथ्य को फिर एक बार रेखांकित करता है कि बदलाव ही एकमात्र स्थायी चीज़ है (Change is the only Constant).

आज जब मुद्रा-स्फीति की दर बढ़ी हुई और महंगाई आसमान छू रही तो आपको यह पढ़कर ईर्ष्या हो सकती है कि आज से 83 वर्ष पूर्व, सन 1939 में जब लेखक दिल्ली आया तो उन्हें अच्छी क्वालिटी का दूध एक रुपए में नौ सेर मिल जाता था। पुस्तक के पहले अध्याय का शीर्षक ही यही है “जब दूध रुपए का नौ सेर था” लेकिन यह स्थिति विश्व युद्ध के शुरू होने पर तेज़ी से बदली और दिल्ली में उस समय के हिसाब से खूब महंगाई हो गई। आज जब दिल्ली के कनॉट  प्लेस इलाके का पूरे विश्व में सबसे महंगे व्यापारिक इलाकों में शुमार होता है, वहाँ लेखक के बड़े भाई ने एक कोठी 26 रुपए महीने के किराए पर ली थी। उनके लिखे पत्र का यह अंश देखिये, “दरियागंज का मकान छोड़ अब मैं नयी दिल्ली आ गया हूँ। काफी अच्छी और खुली कोठी मिल गयी है। हाँ, किराया कुछ ज़्यादा है। छब्बीस रुपए महीना ठहरा है। मेरा पता है – 13, बाराखम्बा रोड।“ इस समीक्षक ने उत्सुकता-वश 13, बाराखम्बा रोड को गूगल किया तो पता चला कि यह प्रोपर्टी कुछ कानूनी पेचीदगियों के बाद आजकल आर्य अनाथालय के पास है। कनॉट प्लेस के इस महंगे इलाके में आजकल बहुमंज़िली इमारतें बनती हैं और बताने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे भूखंडों की कीमत आजकल अरबों रुपयों में है।  

फिर अगले अध्याय “गेहूँ और कोयला एक दाम” में विश्वयुद्ध शुरू होने के दो-ढाई साल बाद अचानक हो गई महंगाई और किल्लत का वर्णन है – “चीनी एकदम बढ़कर चार आने से सात आने सेर हो गई”। इसी तरह इसी अध्याय में लेखक के एक जुगाडू किस्म के जानकार उनके लिए “आठ घंटे में आटा लेकर लौट आए। बीस सेर आटा साढ़े आठ रुपए का था।“ विश्वयुद्ध के एक और दूरगामी प्रभाव का ज़िक्र भी इसी अध्याय में आता है जब लेखक बताते हैं कि दिल्ली में सरकारी दफ्तरों की संख्या यकायक बढ्ने लगी। इस बात को कुछ इस तरह कहा, “दफ्तर दिल्ली का एक हिस्सा थे, अब दिल्ली उन दफ्तरों का हिस्सा बन गई थी।….दफ्तर बनाने वालों, वहाँ काम करने वालों की तादाद इस कदर बढ़ गई थी कि बाकी दिल्ली इस बढ़ते हुए सैलाब में डूब गई।“

दस वर्षों में महंगाई का फर्क ऊपर की दो सूचियों से स्पष्ट है – बाईं ओर की सूची वर्ष 1949 की है और दाईं ओर की सूची उससे दस वर्ष पहले 1939 की।

पुस्तक में दिल्ली के बारे में कुछ टिप्पणियाँ हैरान करने वाली हैं – वो सही हैं या नहीं, ये तो अलग बात है लेकिन चौंकाने वाली ज़रूर हैं। उदाहरण के लिए, “पढ़ने-लिखने के पेशे से दिल्ली वाले सदा ही दूर रहे। यहाँ उन दिनों चार या पाँच कॉलेज थे जिनमें कम से कम तीन-चौथाई बाहर के विद्यार्थी पढ़ते थे। मैंने एक जनाब से वजह पूछी तो…..” या फिर लेखक के नानाजी जो दिल्ली बीस साल रहे, उनकी यह टिप्पणी देखिये, “दिल्ली में हमेशा से दो किस्म के लोग रहते हैं। एक तो वे जिनको आटा-दाल बेचने की चिंता रहती है और दूसरे वे जिनका मकसद ही ये चीज़ें खरीदना और उन्हें पचाना है। इसीलिए तो दिल्ली में बड़े-बड़े होटल हैं, दफ्तर और घर हैं मगर लाइब्रेरी एक भी नहीं। दिल्ली की आबो-हवा किसी भी सांस्कृतिक दौड़-धूप के लिए अनुचित है।“ इस समीक्षक को अंदाज़ है कि उपरोक्त टिप्पणियों से सहमत होने वाले लोग आज भी मिल जाएंगे।

1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान दिल्ली का आँखों देखा हाल भी बहुत जीवंत ढंग से दिया गया है। रात्रि के कर्फ़्यू के कारण बहुत से गरीब लोगों का क्या हाल हुआ होगा, इसका अंदाज़ तब पड़ता है जब लेखक अपने धोबी को ढूँढने चूना मंडी, पहाड़ गंज पहुंचता है और पाता है कि उनका धोबी मसीता कर्फ़्यू की रात में तारों से समय का अनुमान लेकर तड़के कर्फ़्यू समाप्ति के निर्धारित समय से कुछ देर पहले बैल पर कपड़े लाद कर अपने बेटे के साथ निकला और नई दिल्ली स्टेशन के पास पहुँच कर पुलिस की गोली का शिकार हो गया। इस अध्याय में बताया गया है कि इस तरह से लगभग 150 लोग ऐसे मारे गए जबकि सरकारी रिकॉर्ड में उनका नाम कहीं नहीं आया। इसी तरह का कर्फ़्यू फिर स्वतन्त्रता मिलने के समय विभाजन के कारण हुए दंगों के समय आया जो नवंबर 1946 से अप्रैल 1947 तक रहा – यह कर्फ़्यू रात आठ बजे से सुबह छ: बजे तक रहता था।

पुस्तक में आज़ादी की रात का जिस तरह का ज़िक्र है, वैसा आप अन्यत्र नहीं पढ़ सकते क्योंकि यह एक आम लेकिन जागरूक नागरिक द्वारा लिखी गई डायरी की तरह है। फिर अगला ही अध्याय ‘कयामत का मंज़र’ दंगों से बुरी तरह प्रभावित दिल्ली पर है। नई दिल्ली, जहां कभी अंगे नहीं हुए थे, सात सितंबर को वहाँ भी दंगे भड़क गए और एक घटना के बारे में कुछ यूं लिखा गया है, “…..इस हादसे का पता लगते ही पंडित नेहरू खुद कनॉट प्लेस पहुँचे और हाथ में बेंत लिए दंगाइयों का पीछा करने लगे।“

पुस्तक में जाने कितने ही ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर आपको लगेगा कि अरे, ऐसा भी हुआ था क्या! कहीं आपको रोचक लगेगा तो कहीं कलेजा मुंह को आ जाएगा। अंतिम अध्याय “काफिले का कुछ” बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है। यदि आपकी साहित्य मे रुचि है तो आपने सआदत हसन मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ अवश्य पढ़ी होगी। इस अध्याय को पढ़ते समय आपको उस कहानी की याद ज़रूर आएगी।

पुस्तक की साज-सज्जा सोमेश कुमार ने की है और ये बहुत ही सुंदर बन पड़ी है। हर अध्याय में कुछ स्केच बनाए गए हैं और इसी तरह कहीं-कहीं महत्वपूर्ण अंशों के सुंदर ‘लिखावट’ में मोटे अक्षरों में बॉक्स बनाए गए हैं ताकि एक निगाह में भी लोग पुस्तक का जायज़ा ले सकें। अनुवाद का स्तर तो बहुत अच्छा है ही और स्तरीय अनुवाद के कारण ही पुस्तक के सभी प्रसंगों में जीवंतता बरकरार रही है चाहे वह कारुणिक प्रसंग हों या फिर वस्तुस्थिति को ब्यान करती रोचक घटनाएँ। हाँ, यह है कि जब भी कहीं आम बोलचाल की  हिंदुस्तानी की बजाय हिन्दी के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है तो वहाँ भाषा की रवानगी में हल्का सा ब्रेक लगता है लेकिन ऐसा ज़्यादा नहीं हुआ है। एक और बात जो खलती है वह यह है कि पुस्तक में अनुवादक की ओर से कोई वक्तव्य नहीं है। यदि कोई वक्तव्य होता तो उससे पुस्तक की पृष्ठभूमि, अनुवाद की आवश्यकता और ऐसे ही दूसरे जुड़े हुए सवालों के जवाब मिल जाते।

*शुभम मिश्र ने भूगोल, स्थापत्य और शहरी योजना की पढ़ाई की है। पहले दिल्ली स्थित स्कूल ऑफ़ प्लैनिंग एंड आर्किटेक्चर, और फिर नीदरलैंड्स के अंतर राष्ट्रीय भू-सूचना विज्ञान और पृथ्वी अवलोकन संस्थान में। पिछ्ले कुछ सालों से आग़ा ख़ान ट्र्स्ट फ़ॉर कल्चर, सेंटर फ़ॉर साइंस एंड एंवायर्नमेंट और कुछ अन्य संस्थाओं के साथ बतौर सलाहकार काम करते रहे हैं। उर्दू सीखने में इनकी ख़ासी रुचि रही है। इन्होंने इंतिज़ार हुसैन, शमीम हनफ़ी और शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी जैसे उर्दू के मूर्धन्य आलोचकों-कहानीकारों की कुछ रचनाओं का हिंदी में लिप्यंतर/अनुवाद भी किया है। इनमें इंतिज़ार साहब की ‘दिल्ली था जिसका नाम’ (योडा प्रेस – सेज भाषा, २०१६), शमीम साहब का शायरी संग्रह आख़िरी पहर की दस्तक‘ (सेतु, 2022), आलोचना के दो खंड ‘हमसफ़रों के दरमियान’ (राजकमल, २०१९) और ‘उर्दू कहानी: कुछ बातें कुछ तस्वीरें, प्रेमचंद से सुरेंद्र प्रकाश तक’ (राजकमल, २०२१) और फ़ारूक़ी साहब की कहानी ‘फ़ानी बाक़ी’ (समास, 2021) प्रमुख हैं। संपर्क : [email protected]

5 COMMENTS

  1. बहुत दिलचस्प। यह तो एक महत्वपूर्ण कालखंड का दस्तावेज लगता है।

  2. समीक्षा कुछ और बड़ी हो सकती थी। आज़ादी वाले दिन-रात का अगर विवरण है, तो थोड़ा quote कर सकते थे।

  3. रिव्यू अच्छा है। भेजने का शुक्रिया

  4. “दिल्ली में बड़े-बड़े होटल हैं, दफ्तर और घर हैं मगर लाइब्रेरी एक भी नहीं”.. से याद आया यह तो शायद दिल्ली का सनातन सत्य है। पश्चिम दिल्ली के एक चौराहे के पास एक खाली प्लॉट पर बोर्ड हुआ करता था “दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी” के लिए। आशा जगती थी कि अब रेलवे स्टेशन तक सफ़र नहीं करना पड़ेगा। दिन बीतते गए, आशा धूमिल होती गई। एक दिन देखा उस जगह नया बोर्ड लगा था “देसी शराब की दुकान”

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