राजकेश्वर सिंह*
राजनीति में दो समानांतर काम हमेशा होते रहते हैं। एक सामने से, जो सबको दिखाकर किया जाता है। दूसरा काम पर्दे के पीछे चलता रहता है, जिसके नतीजे किसी खास समय पर लोगों के सामने आते हैं। जातीय और चुनावी राजनीति के मामले में भी शुरू से ही राजनीतिक दल कुछ ऐसा ही ‘खेल’ खेलते रहे हैं। इसी संदर्भ में देश में वैसे तो ऊपर से सब कुछ ठीक-ठाक ही दिख रहा है, लेकिन गौर करें तो मौजूदा दौर की राजनीति एक ‘टर्निंग-प्वाइंट’ की शक्ल भी लेती दिख रही है।
देश की राजनीति में जातियों को लेकर जैसी बहस इस समय छिड़ी है, वैसी शायद पहले कभी नहीं रही। हां, लगभग तीन दशक पहले सरकारी नौकरियों में पिछड़ों को आरक्षण के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने पर पिछड़ों और अगड़ों (सवर्णों) के सवाल पर बड़ी बहस जरूर हुई थी। विरोध में उत्तर भारत के राज्यों में बड़े आंदोलन भी हुए थे, लेकिन तब पिछड़ी जातियों का फोकस सिर्फ आरक्षण हासिल करने तक ही केंद्रित था।
महज़ तीन दशक में चीजें काफी बदल गई हैं। अब बात नौकरियों में पिछड़ों के आरक्षण की नहीं, बल्कि राजनीतिक सत्ता में समुचित हिस्सेदारी हासिल करने पर आकर टिक गई है। पिछड़े वर्ग के नेताओं ने इस बात पर खास ज़ोर देना शुरू कर दिया है कि इस बार की जनगणना में सभी जातियों की भी गिनती होनी चाहिए ताकि यह पता चल सके कि देश में किन जातियों की संख्या कितनी है? उनका तर्क है कि जब इस बारे में सटीक आंकड़े होंगे तो उसके लिहाज़ से विकास की कारगर योजनाओं को बनाने में आसानी होगी। हालांकि, यह बात जितनी सपाट दिख रही है, उतनी है नहीं। वैसे तो इस सब के पीछे सामाजिक न्याय का सवाल अहम रहता है, लेकिन राजनीतिक दलों की गणित को देखें तो उन सभी की (जिनमें पिछड़े वर्ग के भी नेता शामिल हैं) असली चिंता बड़ी आबादी वाले पिछड़े वर्ग के वोट बैंक को सहेजने के साथ ही उसके विस्तार की संभावनाएं भी तलाशना है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो स्वयं पिछड़े वर्ग के हैं, अपने साथ राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव समेत दस और राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक से मिलकर इस मांग को पुरज़ोर तरीके से उठा चुके हैं। जातीय आधार पर जनगणना की मांग करने वाले सभी नेताओं का फिलहाल तो अभी यही तर्क है कि सभी जातियों की संख्या के आंकड़े सरकार के पास होंगे तो विकास योजनाएं बेहतर तरीके से बनाई जा सकेंगी, लेकिन केंद्र की सत्ता में बैठी भाजपा और शुरू से ही सवर्ण जातियों को आगे रखकर राजनीति करने वाले दलों को यह बात बहुत पच नहीं रही है। लिहाज़ा तार्किक मांग होने के बावजूद तमाम राजनीतिक दल इस मुद्दे पर अंदरूनी तौर पर सजग (और चिंतित) होने के बावजूद बहुत तवज्जो देने से कतरा रहे हैं। कहीं न कहीं, उन्हें यह आशंका सता रही है कि यदि एक बार यह सच्चाई सामने आ गई कि देश में किस जाति, खासकर पिछड़ों और अति पिछड़ों की कितनी आबादी है तो फिर उस लिहाज से हर जगह, यहां तक कि राजनीति में भी उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने की बात अनदेखी नहीं की जा सकेगी। पिछड़े दलों के नेता भी इस हकीकत से न सिर्फ वाकिफ हैं, लेकिन वे अभी सिर्फ बेहतर विकास के तर्क के साथ ही इस मुद्दे को प्रमुखता से उठा रहे हैं।
आखिर दशकों तक यह एक स्थापित सच्चाई रही है जब दलितों और मुसलमानों को देश की सबसे पुरानी पार्टी का वोट बैंक माना जाता रहा है। फिर तीन दशक पहले देश में मंडल और मंदिर (अयोध्या में राम मंदिर) की राजनीति के जोर पकड़ने के बाद वह सिलसिला टूटा तो जरूर, लेकिन जातीय राजनीति की दूसरी ज़मीन तैयार हो गई। उसका नतीजा यह हुआ कि उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों से कांग्रेस बेदखल होती गई। या फिर उसके लगातार सरकार में रहने की बात आई-गई सी हो गई। फिर बाद के वर्षों में देखते-देखते उसकी जगह भाजपा ने ली और वह सत्ता चलाने के मामले में, वह भी वही हथकंडे अपनाने लगी जिसे कांग्रेस से दशकों तक आजमाया था।
बीते सात साल की राजनीति पर नजर डालेंगे तो ऐसी भी नजीरें मिल जाएंगी, जब भाजपा ने पूरी की पूरी कांग्रेस को ही अपने में मिलाकर उसे आत्मसात कर लिया। कई राज्यों में पुराने कांग्रेसी भाजपा के खेवनहार बने हुए हैं। लिहाजा भाजपा भी जातीय राजनीति का खेल वैसे ही खेल रही है, जैसे पहले कांग्रेस खेलती रही है। हालांकि, मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद बीते तीन दशक में पिछड़ों में जो राजनीतिक चेतना आई है, उसके चलते भाजपा और कांग्रेस के लिए जातीय राजनीति का वह पुराना खेल, खेल पाना आसान नहीं रह गया है।
शायद यही वजह है कि जब पिछड़े वर्ग के नेताओं की ओर से केंद्र पर जातीय आधार पर जनगणना कराए जाने का दबाव बनाया जा रहा है, तो उसी समय नीट की परीक्षा में केंद्र सरकार अपने कोटे में से 27 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों को देने, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की जातियों के वर्गीकरण (सूची बनाने) का अधिकार राज्य सरकारों को देने जैसे टोटके (फैसले) करती है। इतना ही नहीं, चुनावी नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर उसका जोर-शोर से प्रचार भी किया जा रहा है। यहां तक कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के दौरान उसमें 28 ओबीसी सांसदों को शामिल किए जाने का भी जबरदस्त प्रचार किया गया।
उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा का चुनाव है। राजधानी लखनऊ में जगह-जगह होर्डिंग्स लगाकर पिछड़े वर्ग के सांसदों को मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने के लिए मोदी जी का आभार भी जताया गया। यह सब अनायास नहीं है। साफ है कि सरकार की असली चिंता सामाजिक न्याय की नहीं, बल्कि पिछड़े वोट बैंक को सहेजने की है। ऐसे में पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियां एक तरह से राजनीति का केंद्र बिन्दु बन गई हैं। लिहाजा उनकी अनदेखी का तो सवाल ही नहीं, लेकिन उन वर्गों से आने वाले बड़े नेता जो चाहते हैं वह भी उसी रूप में स्वीकार कर लिया जाए, यह मुमकिन भी नहीं है।
दरअसल पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों को लेकर को राजनीति यूं ही नहीं गरमाई हुई है। देश में आखिरी बार 1931 में जातीय आधार पर जनगणना हुई थी। उसके बाद केंद्र सरकार के पास 1951 में भी इस तरह का प्रस्ताव आया था, लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उसे इस तर्क के साथ खारिज कर दिया था कि उस पर अमल से देश के सामाजिक ताने-बाने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
2011 की जनगणना के दौरान सामाजिक और आर्थिक आधार पर जातिगत आंकड़े जुटाए गए थे, लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया गया था, जबकि उसकी मांग कई बार की जा चुकी है। पिछड़ी जातियों की संख्या का वैसे तो कोई प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है, लेकिन मंडल कमीशन ने 1980 में इस वर्ग की आबादी लगभग 52 प्रतिशत होने की बात कही थी। भाजपा देश और राज्यों की राजनीति में आज जिस मुकाम पर है, उसमें पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों का भी बड़ा योगदान है और भाजपा उसे छिटकने नहीं देना चाहती। हां, भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने जातीय आधार पर जनगणना कराए जाने का भी अब तक कोई संकेत नहीं दिया है।
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*राजकेश्वर सिंह उत्तर प्रदेश के पूर्व सूचना आयुक्त एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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मेरा सुझाव है कि सबका DNA टेस्ट करा दो और देश को उसके हिसाब से बांट दो. फिर कभी जनगणना की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, DNA sequence XYZ234 गरीबी रेखा के नीचे या बैक्वर्ड पाया गया तो उस DNA के लोगों को DBT से पैसे या आरक्षण दे दो! फिर कुछ और से खेलो!