प्रेमचंद की जयंती पर राजेन्द्र भट्ट* की श्रद्धांजलि
प्रेमचंद की प्रासंगिकता स्वत:सिद्ध है लेकिन फिर भी इस विषय पर लिखने की उस समय तत्काल ज़रूरत महसूस हुई जब पिछले दिनों हिन्दी की एक...
पूनम जैन*
कल बिहार विधानसभा चुनाव की तिथियों की घोषणा होते ही एकबारगी फिर याद ताज़ा हो आई उन प्रवासी मज़दूरों की जिन्हें कुछ माह पहले अचानक ही अपने घरों को लौटने को...
ओंकार केडिया*
एक उदास सी चिड़िया
वक़्त-बेवक्त
कभी भी आ जाती है
मुझसे मिलने,
मेरा हाल जानने!
आश्चर्य होता है कि कविता अपना रस, अपना पोषण कहाँ-कहाँ से ढूँढ निकालती है। कवि की नज़र अनछुई, अनजानी जगहों में जैसे बेखौफ घुस जाती है और लगभग एक जासूस की तरह कोने में दुबकी महत्वहीन...
विपुल मयंक*
असलम का दोस्त था इरफ़ान। पकिया। दोनों क्लास दस में थे - एक ही स्कूल में! असलम की कोठी के बग़ल में थी इरफ़ान की कोठी। दोनों कोठियों के बड़े अहाते...
ओंकार केडिया
परिंदों!
मत इतराओ इतना
और भ्रम में मत रहना
कि यह दुनिया अब
हमेशा के लिए तुम्हारी हुई!
पूनम जैन*
राम तो बसते हैं हर कण में, हर मन मेंवो हो श्रमिक, किसान या दलित हर जन मेंजहां इनका श्रम है, वहीं राम का मन्दिर हैइस धरती,...
ओंकार केडिया*
मास्क - 1
तुम्हारे मुँह और नाक पर
मास्क लगा है,
पर तुम बोल सकते हो,
ओंकार केडिया*
मुझे नहीं देखने
शहरों से गाँवों की ओर जाते
अंतहीन जत्थे,
सैकड़ों मील की यात्रा पर निकले
थकान से...
मनोज पांडे*
कैक्टस हँस रहे हैं – एक
वर्षों से बरबस बरसती गर्म रेत,टीला बनाते-बिगाड़ते अंधड़ोंऔर सूखा उगलती रातों के बादआज यहां टपक रही हैं बूँदेंजलती ज़मीन पर.