मनोज पांडे* कैक्टस हँस रहे हैं – एक वर्षों से बरबस बरसती गर्म रेत,टीला बनाते-बिगाड़ते अंधड़ोंऔर सूखा उगलती रातों के बादआज यहां टपक रही हैं बूँदेंजलती ज़मीन पर.
पूनम जैन* राम तो बसते हैं हर कण में, हर मन मेंवो हो श्रमिक, किसान या दलित हर जन मेंजहां इनका श्रम है, वहीं राम का मन्दिर हैइस धरती,...
ओंकार केडिया* मैं सरहद के इस ओर से देखता हूँ उस ओर की हरियाली, कंटीली तारें नहीं रोक पातीं मेरी लालची नज़रों को.
ज्योति शर्मा* काली मैना (ससुराल से वापस आने के बाद एक बेटी कीअपनी माँ से बातचीत ) संस्कारों की पोटली इतनी भारीकि उसको ढोते-ढोते मैंने...
इस वैबसाइट पर कविता के पाठक अजंता देव की कविताएं पहले भी पढ़ चुके हैं। वह अपनी कविताओं में आजकल विविध प्रयोग कर रही हैं। कभी हम उनसे इन प्रयोगों के बारे में एक लेख अलग...
बारिश बारिश से बारिश, आज ज़रा जम के बरसना, उन काँपती बूढ़ी हथेलियों में थोड़ी देर के लिए ठहर जाना, बहुत...
डा. शैलेन्द्र त्रिपाठी* 1. समझो तो समझ लो इशारा ना करेंगेरोकर अपनी बात दोबारा न करेंगे।
पारुल हर्ष बंसल* एक चुटकी सिंदूर  एक चुटकी सिंदूर,  जिसकी क्रय वापसी है अति दुर्लभ। आ गिरी दामन में...
अमरदीप* सिर्फ धूप पहनना सुनो आज तुम धूप पहनना सिर्फ धूप सजा लेना अपनी माँग में!
पूनम जैन* कल बिहार विधानसभा चुनाव की तिथियों की घोषणा होते ही एकबारगी फिर याद ताज़ा हो आई उन प्रवासी मज़दूरों की जिन्हें कुछ माह पहले अचानक ही अपने घरों को लौटने को...

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