सत्येन्द्र प्रकाश* इस कहानी का पहला भाग आप यहाँ  पढ़ सकते हैं। हरसिंगार होली के दिन मौलवी साहब के साइकिल को जाते हुए दूर तक देखता रहा। कचनारों की...
डॉ. शालिनी नारायणन* वैसे तो अपने आप में यह कहानी स्वतंत्र रूप से भी पढ़ी जा सकती है लेकिन यदि आप इसका पिछला भाग पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़ सकते हैं।
सत्येन्द्र प्रकाश* बीते सावन (अगस्त 2023) सैंतालीस वर्ष हो गए मनभरन काका को मृत्युलोक छोड़े हुए। उन्नीस सौ छिहत्तर, जिस वर्ष देश में आपात काल लगे एक साल हो गया था, की बात...
विद्या भूषण शब्दो! सुनो तुम यहाँ-वहाँ यूँ ही बिखर क्यों जाते हो? कभी तो बिखरी स्याही की तरह बेतरतीब से...
Vishakh Rathi* We are sitting on a beach. It's a nice breezy day, the sun is not too warm. We are having beer, or lemonade. The vast ocean spread out before us inspires...
सत्येन्द्र प्रकाश* हरसिंगार आज उदास था। बहुत उदास! कचनार के वे दो पेड़ शायद आज कट जाएँगे। ये दो कचनार उसके साथ ही तो लगाए गए थे। साथ साथ पनपे, बढ़े। साथ साथ पल्लवित...
*स्त्री बनाम पुरुष* क्या सच में ही मिला है पुरुषों को विरासत में पहाड़ सा धैर्य और पत्थर सी कठोरता? क्या सच में जानते...
कर्नल अमरदीप* इस वेबपत्रिका के लिए नए नहीं हैं। आप पहले भी उनकी कवितायें यहाँ देख सकते हैं। आज प्रकाशित की जा रही ये दोनों कवितायें सुकोमल अनुभूतियों की ...
डॉ. शालिनी नारायणन* 'एक दोपहर स्टेशन की' कहानी का यह अंतिम भाग है। यदि आप इसके पिछले भाग पढ़ना चाहें तो यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं। चाय का कप वहीं छोड़ कर...
पारुल बंसल* दुपट्टा - 1 सूर्य की किरणों की डोर बांधकर सुखाया है मैंने अपना वह दुपट्टा जिसे ओढ़ भीगी थी यौवन...

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