पारुल हर्ष बंसल*
एक चुटकी सिंदूर
एक चुटकी सिंदूर,
जिसकी क्रय वापसी है अति दुर्लभ।
आ गिरी दामन में...
डा. शैलेन्द्र त्रिपाठी*
1.
समझो तो समझ लो इशारा ना करेंगेरोकर अपनी बात दोबारा न करेंगे।
बारिश
बारिश से
बारिश, आज ज़रा जम के बरसना,
उन काँपती बूढ़ी हथेलियों में
थोड़ी देर के लिए ठहर जाना,
बहुत...
इस वैबसाइट पर कविता के पाठक अजंता देव की कविताएं पहले भी पढ़ चुके हैं। वह अपनी कविताओं में आजकल विविध प्रयोग कर रही हैं। कभी हम उनसे इन प्रयोगों के बारे में एक लेख अलग...
ज्योति शर्मा*
काली मैना
(ससुराल से वापस आने के बाद एक बेटी कीअपनी माँ से बातचीत )
संस्कारों की पोटली इतनी भारीकि उसको ढोते-ढोते मैंने...
ओंकार केडिया*
मैं सरहद के इस ओर से देखता हूँ
उस ओर की हरियाली,
कंटीली तारें नहीं रोक पातीं
मेरी लालची नज़रों को.
मनोज पांडे*
कैक्टस हँस रहे हैं – एक
वर्षों से बरबस बरसती गर्म रेत,टीला बनाते-बिगाड़ते अंधड़ोंऔर सूखा उगलती रातों के बादआज यहां टपक रही हैं बूँदेंजलती ज़मीन पर.
पूनम जैन*
राम तो बसते हैं हर कण में, हर मन मेंवो हो श्रमिक, किसान या दलित हर जन मेंजहां इनका श्रम है, वहीं राम का मन्दिर हैइस धरती,...
आश्चर्य होता है कि कविता अपना रस, अपना पोषण कहाँ-कहाँ से ढूँढ निकालती है। कवि की नज़र अनछुई, अनजानी जगहों में जैसे बेखौफ घुस जाती है और लगभग एक जासूस की तरह कोने में दुबकी महत्वहीन...
प्रेमचंद की जयंती पर राजेन्द्र भट्ट* की श्रद्धांजलि
प्रेमचंद की प्रासंगिकता स्वत:सिद्ध है लेकिन फिर भी इस विषय पर लिखने की उस समय तत्काल ज़रूरत महसूस हुई जब पिछले दिनों हिन्दी की एक...