लाजवाब कम्युनिकेटर गाँधी

अरविंद मोहन*

गाँधी की पत्रकारिता बहुत बड़ा विषय है- शायद मेरे जैसे लोगों से न सम्हलने वाला। उनके एक अखबार ‘इंडियन ओपिनियन’ पर वर्षों का समय लगाकर एलिजाबेथ हाफ्मेयर ने ‘द गाँधी प्रेस’ जैसी अद्भुत किताब लिखी है।  उस तरह का काम किया जाए तब शायद गाँधी की पत्रकारिता कुछ-कुछ समझ आए।

गाँधी सम्भवत: सबसे बड़े पत्रकार थे और पत्रकारिता जिस उद्देश्य के लिए की जाती है और की जानी चाहिए उसके सबसे बड़े उदाहरण थे। लेकिन इस महामानव को पत्रकारिता करने, जिसमें पढ़ाई-लिखाई और सामग्री जुटाने से लेकर मशीन की चिंता, वितरण की सिरदर्दी और घाटे को भरने का इंतजाम करने तथा प्रतिबंध और जेल जाने का जिम्मा भी उठाने का काम था, की जरूरत क्यों पड़ी? जाहिर तौर पर अपनी बात, समाज के लिए जरूरी और उपयोगी सन्देश को उस तक पहुंचाने के लिए, समाज के लिए नुकसानदेह तंत्र के कुप्रचार और गलत बातोँ का जवाब देने के लिए।

मैंने गाँधी के एक आन्दोलन पर काम किया है और उस दौर मेँ उनके पास कोई अखबार न था। लेकिन उस आंदोलन के दौरान गाँधी का जो कम्युनिकेशन कौशल दिखा, संवाद की जो प्रतिभा दिखी, वह आज तक असरदार है। इस संबंध में मैंने जो अध्ययन और शोध किया, उसमें यह तथ्य स्पष्ट हो कर सामने आया।  महात्मा गाँधी 15 अप्रैल 1917 को चम्पारण आए थे। सात दिन बाद ही जिले के कलक्टर ने अपने वरिष्ठ जनों को चिट्ठी लिखी उसमें यह उल्लेख सबसे पहले आता है कि आज गाँधी की चर्चा जिले के हर किसी की ज़बान पर है।

गाँधी ने चम्पारण के एक सक्रिय किसान राजकुमार शुक्ल के अलावा किसी को अपने आने की सूचना नहीं दी थी और निपट अकेले उन्हीँ के संग आए थे बल्कि शुक्ल जी उनको मुश्किल से किसी तरह ‘पकड़’ कर ले आए थे। पटना ही नहीं मुजफ्फरपुर तक गाँधी के साथ अकेले शुक्ल जी ही थे। गाँधी ने उन्हीँ से अपने पूर्व परिचित आचार्य कृपलानी को तार दिलवाया था जो तब मुजफ्फरपुर मेँ अध्यापन कर रहे थे। वही गाँधी को ‘रिसीव’ करने स्टेशन तक आए थे। गाँधी मुजफ्फरपुर मेँ कमिश्नर से मिलना और उन्हें चम्पारण जाने की सूचना देना चाहते थे लेकिन कमिश्नर ने तीन दिन मिलने का समय नहीं दिया।

जब यह अनुमति नहीं मिली तो 18 अप्रैल को वह मोतिहारी चल पड़े जो चम्पारण जिले का मुख्यालय था। हालांकि इस बीच के समय का इस्तेमाल उन्होंने स्थानीय वकीलों से चम्पारण मेँ नील की खेती के कानूनी पक्ष को जानने में लगाया। मोतिहारी मेँ उनके आने की सूचना शुक्ल जी ने कई लोगों को दी थी। वे स्टेशन पर उन्हें लेने आए थे और वहाँ पहुंचते ही गाँधी सक्रिय हुए। अगले ही दिन हाथी पर सवार होकर उस गांव मेँ चल पड़े जहाँ निलहोँ का अत्याचार होने की खबर मिली थी.

रास्ते मेँ ही उनको जिला छोड़ने  का आदेश मिला जिसे उन्होँने यह कहते हुए मानने से इंकार किया कि आप कानूनी रूप से ठीक हो सकते हैं लेकिन मेरी अंतरात्मा मुझे कह रही है कि अपने देश मेँ कहीं भी आने जाने की आजादी मुझे है। साथ ही उन्होँने यह भी कहा कि इस आदेश का उल्लंघन करने के लिए मुझे जो भी सजा मिले मैं भुगतने के लिए तैयार हूँ।

जिस दिन गाँधी का मुकदमा चला उस दिन अदालत मेँ हज़ारों रैयत मौजूद थे और शासन ने गाँधी को छोड़ दिया। गाँधी जो निपट अकेले आए थे, अब उनके साथ हजारों लोग जेल जाने को तैयार थे। गाँधी ने सबसे ज्यादा चिंता आन्दोलन को अहिंसक रखने की। नौ महीने से ज्यादा के उनके चम्पारण प्रवास मेँ कही भी हिंसा नहीं हुई – शासन की तरफ से बार-बार के उकसावे के बावजूद।  

मेरे लिए अध्ययन का यही विषय प्रमुख था कि गाँधी का सन्देश चम्पारण मेँ इस तेजी से कैसे फैला? अपनी किताब ‘प्रयोग चम्पारण’ (भारतीय ज्ञानपीठ) मेँ मैंने इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है क्योंकि वे न चम्पारण को जानते थे न उन्होंने कभी उस नील के पौधे को देखा था जिसकी खेती से परेशान किसानों को राहत देने के लिए वे गए थे। पर डेढ़ महीने बाद जब जांच आयोग बना तो गाँधी किसानों के प्रतिनिधि बनकर न सिर्फ गए बल्कि उन्होंने अपने तर्कों से सबको चित्त कर दिया और वह सब कुछ हासिल कर लिया जो पाना चाहते थे।

यह जादू हुआ कैसे और तब कैसे हुआ जानकारियाँ लेना-देना, संदेशों का आदान प्रदान, कहीं आना-जाना बहुत मुश्किल था। ‘कम्युनिकेशन’ या संचार के सारे साधनों के आदिम अवस्था मेँ होने पर भी गाँधी कैसे इतने जबरदस्त ‘कम्युनिकेटर’ साबित हुए? उन्होंने कैसे चम्पारण का हर मर्ज़ जान लिया और कैसे अपना सन्देश दिया कि सभी लोग सारे भेदभाव भूलकर उनके पीछे हो लिये और जो एक बार उनके प्रभाव मेँ आया जीवन भर के लिए उनके रंग मेँ रंग गया?

यह समझना तब और मुश्किल हो जाता है जब हम देखते हैं कि गाँधी ने तब वहाँ न तो राष्ट्रवाद का नारा बुलन्द किया, न ज़मींदारी के खिलाफ झंडा उठाया, न अंग्रेज़ी शासन से लड़ाई घोषित की, न ज़ुल्मी निलहोँ के खिलाफ कोई तीखी बात की, न अगड़ों के खिलाफ बोला, न पिछड़ो का मजाक उड़ाया, न दलितों का अपमान किया, न छुआछूत की लड़ाई लड़ी, न औरतों के सवाल को ही उठाया न हिन्दू-मुसलमान खेमेबन्दी कराई, न ज़िले का विकास करने का दावा किया न पर्यावरण बचाने का, न ज़मींदारों-महाजनोँ के रिकार्ड/बही खाते फुंकवाए जो प्रायः: हर किसान आन्दोलन की सबसे परिचित तरीका है, और न कही हिंसा होने दी।

और तो और उन्होंने अखबारों को दूर रखा, कांग्रेस को दूर रखा, दूसरे नेताओं को दूर रखा, जिले में एक पैसा चन्दा लेने की मनाही कर दी। फिर भी उनको हर वर्ग, हर इलाके, हर समाज का समर्थन मिला और उन्होंने वह सब कुछ हासिल कर लिया जिसकी चर्चा पहले की गई है। उन्होंने नील की खेती को सदा के लिए विदा करने के साथ विश्वव्यापी अंग्रेज़ी शासन को उखाडने की शुरुआत की, पश्चिमी शैतान सभ्यता का अपना विकल्प देने की शुरुआत की, हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को ज़मीन पर उतारा और एक इलाके की बार-बार हिंसक हो रही लड़ाई को शांतिपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ दिया।

यहीं से उन्होंने दलितों की, औरतों की स्थिति सुधारने की क्रांतिकारी शुरुआत की।  उन्होंने ऐसी हिन्दू-मुसलमान एकता बनाई कि फिर चम्पारण मेँ दंगे की खबर नहीं मिलती। औरतोँ को राष्ट्रीय आन्दोलन में जोड़ने और परदे से बाहर लाने का काम किया। यह काम गाँधी ने मुख्यत:  ‘कम्युनिकेशन’ के अपने तौर तरीकोँ से किया और इसके दूरगामी प्रभाव हुए – सिर्फ चम्पारण की तात्कालिक बीमारियाँ दूर करना उनका मकसद भी नहीं था। चम्पारण का सन्देश पूरे मुल्क और दुनिया को गया। सैकडोँ कार्यकर्ताओं के जीवन भर बना रहा, गाँधी और उनके काम के जरिये आगे और प्रचारित-प्रसारित हुआ।

एक तरह से चम्पारण से ही गोरी चमड़ी तथा ब्रिटिश हुकूमत का खौफ उतरना शुरू हुआ और एक बार उतरा तो उतरता ही गया। हम पाते हैं कि महात्मा ने चम्पारण मेँ कसरत करने, डंडा भांजने, परेड करने की जगह बहुत सावधानी से यही खौफ भगाने का काम किया। पूरी शांति से काम करने की रणनीति अपनाई। इस क्रम मेँ उन्होंने खुद को जान से मारने के प्रयास की खबर एकदम गायब करने से लेकर अपने हर सहयोगी के आने-जाने की सूचना स्वामीभक्त नागरिक की तरह ब्रिटिश हुक्मरानोँ को देने जैसे न जाने कितने प्रयोग किये।

उनको पुरानी कम्युनिकेशन प्रणालियों की मदद मिली पर सामने अति विकसित और ताकतवर ब्रिटिश साम्राज्य की कम्युनिकेशन प्रणाली थी जिसे गाँधी ने मात दे दी।  अंगरेजी और निलहा नेटवर्क ऐसा था कि किसके घर मेँ क्या खाना पक रहा है, किसके कटहल के पेड़ मेँ फल आए हैं, किसकी भैंस कितना दूध देती है, कब कोल्हू से गन्ना पेरना और बड़े चूल्हे से हल्दी पकाना शुरु हो रहा है जैसी हर सूचनाएँ उनके पास होती थीं क्योंकि लगान के अलावा पचास से ज्यादा तरह के टैक्स (आबवाब) इन्हीं चीज़ों पर वसूले जाते थे और इन्हीं से किसानों को नील की खेती, अपने हल और बैलगाड़ी देने के लिए दबाव बनाया जाता था।  

दूसरी ओर सारी ताकत, सारे संसाधन, सारे चुस्त चौकस लोग और जबरदस्त खुफिया व्यवस्था होने के बावजूद ब्रिटिश हुक्मरान हर कदम पर गलती करते गए – गाँधी के आने की पहली गलत सूचना से लेकर तिनकठिया प्रथा की समाप्ति पर भ्रामक सूचना देने वाला पोस्टर छपवाने तक। फिर गाँधी को लेकर अफवाह फैलाने जो का काम भी किया जो कम्युनिकेशन मेँ कमजोर पड़ने की निशानी है। और तो और सारी फौजी और खुफिया तैयारी तथा पुराने प्रशासनिक उदाहरणों के आधार पर कमिश्नर ने गाँधी को चम्पारण से बाहर करने का जो आदेश दिलवाया उसकी नीचे से लेकर ऊपर तक से आलोचना खुद साम्राज्य के लोगों ने ही की। पर गाँधी ने चालाकी या किसी प्रबन्धकीय योजना की जगह अपनी निष्ठा, सच के प्रति जबरदस्त आग्रह और भरोसा, सबसे पहले अपना उदाहरण पेश करने के नैतिक बल, अपनी कुर्बानी देने का जज़्बा और निश्चय को ही सबसे ज्यादा मददगार बनाया।

मेरे पढ़ने  और समझ मेँ तो यही आया है और उसे ही उपरोक्त किताब मेँ परोसने की कोशिश की है।  पर तीस-एक वर्षों से ज्यादा समय से मन मेँ घूम रहे ये सवाल या यह विषय मुझसे सम्हल पाया इतना पढ़ने और किताब लिखने के बाद अभी भी भरोसे से नहीं कह सकता।  इधर जब लगकर इस विषय पर अध्ययन कर रहा था तब साधनों और समय का अभाव भी रहा। स्वतंत्र पत्रकारिता कुछ स्वतंत्रता देती है पर ज्यादा मुश्किलें ही लाती है –  खासकर तब जब आप हिन्दी मेँ काम करते हों। फिर सोचते-सोचते जब मैदान मेँ उतरा तो पता चला कि वह लगभग पूरी पीढ़ी विदा हो चुकी है जिसने अपने पुरखों से सीधे गाँधी के समय के किस्से सुने थे। सौ साल की अवधि मेँ चार पीढ़ियाँ आ जाती है।

जब ज़िले के पुस्तकालयों और निजी संग्रहों को छानने लगा तब यह एहसास हुआ कि पढ़ने-लिखने और पुस्तक संग्रह का यह हिसाब तो गाँधी के इस आन्दोलन के बाद ही बना है -चम्पारण ही क्या बिहार और देश मेँ राष्ट्रीय आन्दोलन ने गाँधी के चम्पारण प्रयोग के बाद ही। पर यह भी हुआ कि इसी आन्दोलन से कोई राजेन्द्र प्रसाद भी निकले जिन्होंने अपनी कई किताबों के जरिए इस आन्दोलन के हर पक्ष को सहेजा है। उनकी पहल पर ही प्रसिद्ध इतिहासकार बी. बी. मिश्र ने इस आन्दोलन से जुड़े दस्तावेजों का भारी-भरकम और अद्भुत संग्रह किया है।

गाँधी हेरिटेज जैसा विलक्षण वेबसाइट आधुनिक तकनीक और संचार के सहारे बना है पर मन भर देने लायक सामग्री देता है। सम्पूर्ण गाँधी वांगमय भी काफी मददगार संग्रह है। जाहिर तौर पर इन छपी चीज़ों के अन्दर से भी कुछ नया ढूंढना था और बाहर से भी पर जिसे जो काम सौंपा उसने खुशी-खुशी करके दिया, जिसके दरवाजे पर पहुंच गया उसने अपनी तरह से मदद मेँ कोई कसर नहीं छोड़ी। और यह अपने रिश्ते से ज्यादा उसी महात्मा का प्रताप लगा जिसके नाम मेँ अभी भी जादू बचा हुआ है।

चम्पारण प्रयोग का गाँधी का जादू सिर्फ तब और चम्पारण तक नहीं रहा। जो सरदार पटेल गाँधी से मिलने पर उनके तौर-तरीके की खिल्ली उड़ा रहे थे, चम्पारण की सफलता की खबर सुनकर कुर्सी से उछल पड़े और अपने खेड़ा किसान आन्दोलन की अगुवाई के लिए गाँधी को बुलाने लगे। चम्पारण के पड़ोस के ज़िलों, जहाँ भी नील की खेती होती थी, तो उनको रोज़ बुलावा आता था। अहमदाबाद के मिल मजदूरों का बुलावा आया। गाँधी चम्पारण से निकले तो अपने ‘अधूरे प्रयोग’ को लेकर संशय मेँ थे। लेकिन चम्पारण सत्याग्रह किसानों की मुश्किलों का निवारण करने के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन को नई पटरी पर लाने वाला बना।  गाँधी के अपने जीवन मेँ निर्णायक बदलाव वाला बना। जिस किसी को अन्याय से लड़ने के नए तरीके के बारे मेँ पता करना था वह चम्पारण से सीखने आया।

विश्व-युद्ध जैसी हिंसा से त्रस्त दुनिया मेँ गाँधी का अहिंसक सत्याग्रह नया हथियार साबित हुआ। गाँधी ने अपने उदाहरण से चम्पारण के कमजोर और बदहाल किसानों के मन से अंगरेजी सत्ता और गोरी चमडी का डर जिस तरह निकाला वह हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन का रंग-ढंग बदलने वाला तो हुआ ही, पूरी दुनिया से गोरी चमडी वालों के उपनिवेशवाद को विदा करने वाला साबित हुआ।

पश्चिमी सभ्यता तथा विकास के माडल के जबाब मेँ गान्धी ने चम्पारण मेँ स्वास्थ्य, ‘हाइजीन’, शिक्षा, ग्रामीण कौशल, खेती, बागवानी, गोशाला चलाने जैसे जो प्रयोग शुरु किए वे आज भी आकर्षण का केन्द्र हैँ। चम्पारण से निकलते हुए गाँधी को यही अफसोस रहा कि वे अपने इन प्रयोगों और उसके माध्यम से पूरी दुनिया को जो नया सन्देश देना चाहते थे वह अधूरा रहा। पर बिल्कुल नई जमीन पर हुआ यह प्रयोग जितने तरह के सन्देश जितने लोगोँ तक देने मेँ सफल रहा और आज तक असरदार है वह जानने-समझने की चीज है, खास कर ‘कम्युनिकेशन’ मेँ काम करने वाले लोगों के लिए।  

*अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार और लेखक-विचारक हैं। जनसत्ता, हिंदुस्तान, इंडिया टुडे, अमर उजाला और ए.बी.पी. न्यूज में वरिष्ठ पदों पर कार्य करने के अलावा उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। चम्पारण सत्याग्रह पर उनका विशेष अध्ययन है और उन्होँने इस विषय पर चार पुस्तकें लिखी हैं जिनमें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ‘चंपारण प्रयोग’ की चर्चा इस लेख में की गई है। इतिहास के गहन अध्येता होने के नाते आजकल वह द फ्रंट नामक यू ट्यूब चैनल पर आज़ादी की कहानियाँ सुनाते हैं।

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