कहानी पन्नालाल की – बच्चों की समझदार कहानियाँ- 2

राजेन्द्र भट्ट*

राजेन्द्र भट्ट नए-नए साहित्यिक प्रयोग करते रहते हैं। उनकी प्रयोगशाला हमारी वेबपत्रिका है। अभी दो-चार रोज़ पहले उनका ऐसा ही प्रयोग “मूली लौट आई” के साथ आप देख चुके हैं। यदि आप में से कुछ लोगों ने पिछली ‘कहानी’ ना देखी हो तो हमारा आग्रह है कि उपरोक्त लिंक पर जाकर उसे देख लें और खास तौर पर उसके ऊपर दी गई भूमिका को तो अवश्य पढ़ लें, तभी संदर्भ स्पष्ट होंगे।

मूली (या ‘गाजर’) की पिछली कहानी को पढ़ कर कुछ सयाने ‘सेनाइलों’ (अंग्रेजी वाले  ‘सेनाइल’का बहुवचन) को लगा होगा कि इतनी कम गहनता वाली, सपाट कहानी सुनाकर उन्हें उल्लू बनाया गया। अरे, वो कहानी ही क्या, साहित्य ही क्या – जिसमें उलझाव, गहनार्थ, निहितार्थ न हों! जो एक तरफ उपनिषदों और दूसरी तरफ काफ्का को न छूए!

ऐसे सयानों को फिर बता दें कि ये कहानियाँ बड़ों के भ्रमित बचकानेपन की नहीं, बच्चों के बड़प्पन की हैं। बड़ों ने अपनी कहानियों, विचारों और कार्यों से कैसी तमस भरी दुनिया बना दी है! अब इसे बचा सकती हैं तो बच्चों की ताजा, मासूम, ऊर्जावान, बिना कालिख की परतों वाली कहानियाँ!   

तो आज सुनें पन्नालाल की सीधी-सरल कहानी। बल्कि पहले ही बता दूँ, पूरी याद भी नहीं है, इसलिए कुछ जोड़-घटा कर इसे और भी सपाट बना दूँगा।

हमारे बचपन में बड़ी प्यारी-प्यारी बाल-पत्रिकाएँ थीं –  आदमी को इंसान बनाने वालीं। ,इनमें एक थी- ‘चंदामामा।‘ दक्षिण भारत (चेन्नई) से छ्पती थी, इसलिए भाषा में हिन्दी सीखे अहिंदीभाषी वाला कच्ची, नम मिट्टी का सोंधा-सा पुट था – जो इसे खास और भला-सा बनाता था।

पन्नालाल की कोई एक कहानी नहीं थी – वह बहुत सी कहानियों का समान पात्र था। इन कहानियों से उसके गुण, उसके चरित्र का एक साफ खाका बन जाता था।

और ये खाका था – रोज़मर्रा के जीवन में विवेकशील, अपने बारे में कुछ बताने में संकोची, खुद को आगे न लाने वाला (जिसे अंग्रेजी में ‘सेल्फ-इफेसिंग’ या ‘अनएज्युमिंग’ कह सकते हैं), लेकिन जरूरत पड़ने पर समाज द्वारा दी गई ज़िम्मेदारी सफलता से निभा देने वाला – लेकिन फिर तारीफ होने पर उसे टालने वाला व्यक्ति। अपने तरह का एक आकर्षक ‘हीरो’, जो ‘हीरो’ कहे जाने से बेपरवाह और अनिच्छुक हो।

पत्रिका में पन्नालाल का चित्र भी होता था – हर कहानी में एक जैसा। ठीक से कंघी किए, पर कंघी करने पर ध्यान न दिए गए  केश – दिलीपकुमार-नुमा एक लापरवाह लट माथे पर; आधी बाजू का सूती-सा कुर्ता, नीचे दक्षिण भारतीय धोती।

हम बच्चे ऐसे सौम्य व्यक्तित्व वालों को ‘हीरो’ मानते हुए बढ़े हुए, जो खुद के ‘हीरो’ होने की ‘इमेज’ से लगातार मुक्त होने की कोशिश में लगे हों। 

अगर आप सोशल मीडिया पर अपनी  कहानी, कविता, बौद्धिक लेखों, चुटकुलों  को महान मनवाने, उन पर ‘लाइक्स’, वेबिनार करवाने, किसी ठीहे-व्यासपीठ की तारीफ करने, प्रचार और अन्य लाभों के लिए आतुर हैं; अगर आपने खुद ही अपने नाम के साथ कुछ ‘वरिष्ठ’ किस्म का लगा लिया हो तो समझ लीजिए आप पन्नालाल से 360 डिग्री दूर हैं – यही पन्ना लाल का सच्चा परिचय है।

कहानी तो मेंने सुनाई नहीं। दरअसल, बहुत सी कहानियों की एक जैसी ‘थीम’ थी – पन्नालाल का ‘अनएज्युमिंग’ होना, लोगों के कहने पर भलाई का वह काम कर देना जिसे दूसरे न कर सकें – और फिर तारीफ को चुपके से कंधे से खिसका कर नीचे गिरा देना।  आपको ‘बिना कहानी सुनाए बुद्धू बना दिया’ ऐसा न लगे, इसलिए एक कहानी का सारांश बता देता हूँ।

कहानी मूर्ति की प्रतिष्ठा की

एक गाँव में बहुत दिनों से बरसात नहीं हो रही थी, अकाल जैसे हालात हो गए थे। लोगों ने पूजा-अर्चना की। अचानक एक मूर्ति प्रकट हुई। साथ में आकाशवाणी हुई कि इस मूर्ति को पास के एक चबूतरे पर प्रतिष्ठित कर, वहाँ मंदिर बनाओ। पर मूर्ति को वही हिला सकेगा, जिसका आचरण शुद्ध हो, जो झूठा न हो और जो दूसरों की तकलीफ़ों में मदद करता हो। उसी के नेतृत्व में पूजा होगी तो वर्षा होगी। 

बस, इसके बाद तो राजा-मंत्री-मुखिया-संतरी – सब धक्का-मुक्की करने लगे कि उनके जैसा नेक आचरण वाला, सच्चा, दूसरों के  दुख से द्रवित होने वाला तो और कोई है ही नहीं। कुछ तो उसी समय सुबक-सुबक कर, दूसरों के दुख से  रोने लगे। (कहानी में कैमरों और फोटो लेने का जिक्र नहीं था, तब होते नहीं होंगे।)

ज़ाहिर है, अपने-अपने पद के क्रम से सब ने कोशिश की; पर मूर्ति नहीं हिली। खरी सामग्री वाली, निर्मल आस्था से गढ़ी मूर्ति थी।

पन्नालाल इस तमाशे से दूर खड़ा था। आखिर उस पर भी नज़र पड़ी और उससे पूछा गया – “क्या तुम सच्चे, हमेशा सदाचरण वाले और लोगों का भला करने वाले हो?”

पन्नालाल ने कहा, “कोशिश करता हूँ कि सच बोलूँ। लेकिन हो सकता है, जाने-अनजाने कई बार झूठ बोला गया हो। इंसान हूँ, हमेशा तो अच्छा आचरण हो नहीं सकता। अपने काम-धाम के बाद जो वक्त मिलता  है, उसमें लोगों की मदद करने की कोशिश करता हूँ।“

सभी भद्रजन निराश हुए – इतना साधारण (आम) आदमी! अब क्या मूर्ति हिलेगी!! चलो, तुम भी कोशिश कर लो।

जैसा, बच्चों की हर निर्मल कहानी में होता है, पन्नालाल ने कोशिश की तो मूर्ति ऐसे हिल गई जैसे फूलों से बनी हो। कहानी में आगे वही – विनम्र पन्नालाल ने पूजा करवाई; वर्षा हुई; पन्नालाल अपने घर चले गए।

टिप्पणी: कॉलेज की पढ़ाई के दौरान, एल्डस हक्सले का एक लेख पढ़ा था –  वल्गैरिटी इन लिट्रेचर। इसमें मशहूर अमेरिकी लेखक डी एच लारेंस के  कालजयी उपन्यास ‘लेडी चैटरलीज लवर पर इंग्लैंड में प्रतिबंध लगाए जाने की आलोचना की गई थी। इसमें वल्गैरिटी (अश्लीलता) की परिभाषा पर सवाल उठाते हुए, हक्सले कहते हैं कि नैतिकतावादियों ने आम समझ में नैतिकता का जो मतलब भर दिया है (यानी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का नैसर्गिक चित्रण, शरीर का सहज सौन्दर्य वगैरह), वह वास्तव में अश्लीलता है ही नहीं। हक्सले मार्के की बात कहते हैं कि अश्लीलता होलियर देन दाउ का भाव है। अगर इसे मैं, आज के शब्दों में खोल कर कहूँ तो  अश्लील उन महानुभावों की (केवल!) कथनी है जो गाते रहते हैं – “मैं बहुत नेक हूँ; दूसरों के दुख से रो पड़ता हूँ। (मतलब दुख दूर करने की मशक्कत नहीं करते, बस, रो पड़ते हैं)। मेरे आदर्श महान हैं – लोक कल्याण से भरे हैं। मैं तो सहज शरीर-सुख से भागता रहता हूँ। कहीं वह मुझे पकड़ कर दूषित न कर दे। बस, आराधना में तल्लीन रहता हूँ।“

आपके आस-पास ऐसे कई लोग आपकी आँखों के सामने आ रहे होंगे। आप उनके बड्बोलेपन और स्व-प्रचार लिप्सा के बारे में सोचें । आपको अश्लीलता यानी वल्गैरिटी का गहरा, वास्तविक अर्थ स्पष्ट हो जाएगा। यानी डी एच लारेंस और एल्डस हक्सले जैसे लेखकों का समझदार लेखन आपके सामने ऐसे ‘वल्गर’ लोगों को शीशे में उतार देता है।

दरअसल, इस दुनिया का हाड़-मांस का इंसान मिश्रित खूबियों-खामियों वाला होता है। उसमें प्यार, करुणा, परोपकार – ये सब होते हैं, होने भी चाहिए। लेकिन वह अपने लिए, अपने परिवार के लिए, अपने शारीरिक-मानसिक सुखों के लिए भी जीता है। उसमें थोड़े स्वार्थ, थोड़ी कमजोरियाँ भी होती हैं। आखिर  जीवन को उसकी सहजता में जीना न शर्म की बात है, न बेकार के गर्व के। यही बहुरंगे ‘शेड’ तो उसे फरिश्तों से भी ज्यादा  दिलचस्प और सुंदर बनाते हैं। इन्हीं से तो आगे बढ्ने, गिरने-उठने,  चालाकी-मासूमियत, दिल टूटने-जुड़ने और आशा-निराशा के बहुरंगी कारोबार चलते हैं, जो दुनिया को खूबसूरत, रहने लायक बनाते हैं।

जो यह कहता है कि वह अपने, घर-परिवार, हित-मित्रों के सुख से परे 101 प्रतिशत चरम नैतिक, भक्त और स्वार्थ-मुक्त वैरागी है, वह या तो भ्रमित मनोरोगी है, या पूरा धूर्त-पाखंडी है। वह पन्नालाल के एकदम उल्टा है। इसलिए – वह, गहरे अर्थों में, ‘वल्गर’, अभद्र-अश्लील है, अमानवीय है।

लेकिन आप सयाने हैं न, ‘सेनाइल’ हो रहे हैं – इसलिए आपको समझाने  के लिए डी एच लारेंस और एल्डस हक्सले जैसे प्रतिभाशाली लेखक चाहिए। कई तो इतने मानसिक बुढ़ऊ हो रहे हैं कि ऐसे समझदारों के समझाने से भी नहीं समझते। ऐसे ही उन्मादी भगत बड़बोले आँसू-ढलकाउओं के एजेंडा में फंस जाते हैं; या फिर भावनाओं के आहत होने के प्रचार के  ‘इन्फेक्शन’ के तुरंत शिकार हो जाते हैं – उनकी नाजुक भावनाओं को  विवेक का  ‘एंटीबायोटिक’ इंजेक्शन कभी लगा ही नहीं होता।

पर बच्चे तो बहुत समझदार, विवेकशील होते हैं ना। उन्हें तो, बढ़बोलों की स्वार्थी अश्लीलता से बचने के लिए न विद्वानों के लेख चाहिए, न कोई ‘एंटीबायोटिक’।

उन्हें तो पन्नालाल की कहानी से ही सब अच्छी तरह से समझ में आ जाता है। काश! सारे बच्चे बड़े होकर पन्नालाल बन पाते।

अगली कहानी – गौरव की कहानी – “ना’ कहने के साहस की कहानी।‘

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*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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5 COMMENTS

  1. बहुत अनोखा शिल्प है – लेख में कहानी, कहानी पर लेख, कहानी की कहानी, या सब एक साथ. पन्नालाल की सहजता और सचाई का विस्तार हम जैसे सेनाइलों के लिए एक सबक भी है. भट्ट साहब कलम के जादूगर हैं.

  2. यह प्रयास अपने अंदर के सेनाइल को, उसे सेनाइल होने के प्रति सजग होकर इससे बचने का है।
    आपकी पारखी नज़र को सलाम।

  3. यह तो पूरा पैकेज है. ‘मिश्रित खूबियों-खामियों वाला’ इन्सान, वैरागी और ढोंगी का जोड़.

  4. यही तो दार्शनिक की मेधा है। पैकेज में से बीज-कथन निकाल लिया। बहुत आभार।

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