मुझे मारेंगे तो नहीं?

राजेन्द्र भट्ट

इस कोरोना-काल में ऐसे वाकये से बात शुरू करना अच्छा लग रहा है जिससे दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ याद आ गईं– ‘इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है।’ ये रोशनदान नोएडा की एक युवा पुलिस अधिकारी (वृन्दा शुक्ल) के लेख ने खोला। कुछ दिन पहले इंडियन एक्सप्रेस (27 अप्रेल, 2020)  में उन्होंने लिखा कि पुलिस की भूखों को खाना देने की मुहिम की जानकारी मिलने के बाद किसी भली महिला ने फोन पर उन्हें आग्रह किया कि पश्चिम बंगाल के 9 सदस्यों वाले भूखे परिवार को क्या मदद मिल सकती है? पुलिस अधिकारी ने संबन्धित चौकी को पीड़ित परिवार को मदद पहुँचाने के निर्देश दे दिए। थोड़ी देर बाद डरी-दबी आवाज़ में भूखे परिवार के सदस्य का फोन आया कि उसे चौकी पर बुलाया गया है। पुलिस अधिकारी ने उसे समझाया  कि जरूरतमंदों के लिए चौकियों पर राशन पहुंचाया गया है और राशन दिलाने के लिए ही उसे बुलाया जा रहा है। थोड़ी चुप्पी के बाद, उस गरीब की दबी हुई आवाज़ आई,”मुझे मारेंगे तो नहीं?” युवा पुलिस अधिकारी  का गला भर आया।

पुलिस अधिकारी का लेख मूलतः गरीबों-मज़लूमों के डिजिटल सशक्तीकरण की जरूरत पर है। वह अभी मेरा विषय नहीं है। बहुत ही विनम्रता से -एकदम ‘लो प्रोफाइल’ – इस प्रसंग में उन्होंने अपनी भूमिका बताई है। ये भी नहीं लिखा कि गरीब परिवार को राशन मिला और उन्होंने हाकिम के, पुलिस के गुण गाए। सौम्य तरीके  से घटना को बता  कर भी हमें उम्मीद के साथ भावुक बनाने के लिए और पुलिस का  नाम आते ही डंडे-गाली  की छवि की बजाय एक संवेदनशील भरोसा पैदा करने  के लिए – पुलिस अधिकारी और उनकी ‘फोर्स’ को सैल्यूट – दिल से, इज्जत से।

पर विपदा-काल में भूखे की ‘मुझे मारेंगे तो नहीं’ वाले डर से जुड़े  कुछ सवाल वाकई डरा रहे हैं –

क्या ‘हाउ इज द जोश’ बनाए रखने के लिए, लगातार नए-नए खलनायक गढ़ना ज़रूरी है जिन्हें  इस विपदा का दोषी मान  लिया जाए?

क्यों हर अभागा, अशक्त, न्याय से वंचित, स्वयं को इस विपदा का खलनायक-दोषी मानने  की हताशा में आ गया है? क्या रोजगार छूट जाने,  बेघर हो जाने, कोई भरोसा और रोटी न मिलने से घर की दिशा की सड़कों पर दिखना कोरोना फैलाने वाला  होना और फिर डरा होना है?

क्या पुलिस से, स्थानीय धर्म-रक्षक कार्यकर्ता-राजनीतिबाज-अफवाहबाज़  से डरना-पिटना-अपमानित होना ‘भारत-भाग्य-विधाता’ नागरिक के लिए सामान्य  जीवन है – मतलब ‘चलता है!’

क्या इस दौर में कोरोना या और किसी बीमारी का हो जाना अपराधी या षड्यंत्रकारी हो जाना और आस-पास की बालकनी वालों की नज़र में खतरनाक हो जाना है? क्या ऐसा  होने, या होने की आशंका में आप खुद को अपराधी, समाज-राष्ट्रदोही और डरा हुआ मानने लगे हैं?

क्या भावुक भाषणों, नारों, शंख-घंट-थाल-नादों को ही समाधान मान कर ‘पोजिटिव’ हो लें? क्या यह ‘जीवन’ और जीवन के आधार ‘रोजी-रोटी’ –‘लाइफ’ और ‘लाइवलीहुड’ – के बीच (बालकनी और ऊपर वालों) को जीवन की और मनोवैज्ञानिक तसल्ली देने के तरीके हैं? क्या सड़कों पर चींटियों-से गुजरते बदहवासों को ये संदेश भरोसा, रोटी, छप्पर और इलाज दे पा रहे हैं?

क्या गंभीर, वैकल्पिक नीतियाँ सुझाना, कमियाँ बताना, , रोटी-इलाज और न्याय के लिए गुहार लगाना भी कोरोना-वाहक या षड्यंत्रकारी होना है, जिसके लिए मन में अपराध-बोध हो, डर हो? क्या पहले से  महामारी  के बारे में आगाह करना कोई चुट्कुला है?

क्या बालकनी में होना, भरे पेट साबुन-काढ़े-सरसों के तेल, (बालकनी और अच्छे घरवालों के अलावा बाकी गैर-जिम्मेदार) ‘समाज से दूरी’ यानि ‘सोसल डिस्टेन्सिंग’  का विमर्श ही सजग-देशभक्त नागरिक होना है?

‘लॉकडाउन’ में  बालकनी पर बैठने का अवसर और मौसम के प्रदूषण-मुक्त होने के खुशनुमा अहसास होने के बीच, सड़क पर भटकते गैर-जिम्मेदार लोग दिखने लगे हैं। व्हाट्सएप्प पर बढ़ती जनसंख्या के खिलाफ ‘दो बच्चों’ का कानून बनाने वालों के सजग संदेश गूंजने लगे हैं, ताकि ‘कुछ (इन्कम) टेक्स देने वालों’ को ‘हरामखोरों’ का बोझ न झेलना पड़े। क्या इस सदिच्छा की प्रेरणा किसी समुदाय-विशेष के बारे में सोच कर आई है? क्या इन ज्ञानवानों ने सभी नागरिकों की कुल कर-देयताओं में इन्कम टेक्स का प्रतिशत देख लिया है, और उसमें भी बालकनी वालों का प्रतिशत, सरकारी स्रोतों से जांचा  है? इस नव-उच्च-मध्य-वर्ग को अपने पिता-पितामह का भी आयकर-प्रतिशत देखना चाहिए, जिस दौर में हमारे देश के उद्योगों, शिक्षा, कृषि का वो बुनियादी ढांचा बना जिसकी बदौलत ये आज  बालकनी में हैं । उन्हें उन अप्रत्यक्ष करों का भी प्रतिशत देखना चाहिए जो माचिस की डिबिया और राशन खरीदने में ये ‘हरामखोर’ भी देते हैं।  पर इससे जो 12 लेन के फिसलते राजमार्ग, कौड़ियों के दाम  मिली जमीन पर बने प्राइवेट स्कूल, अस्पताल, मॉल –‘गेटेड’ बस्तियों के पार्क – बनते हें, उसके मज़े ये ‘हरामखोर’ नहीं लेते।

क्या हमारे ज्ञानवान मित्र, अपनी  याददाश्त में, या बुजुर्गों से पूछ कर या पढ़ कर,   पचास-सौ साल पीछे जाने की तकलीफ करेंगे और समझेंगे कि, अपने आसपास ही,  उस समय जंगल, नदी, पहाड़, पहाड़ी के कितने इलाके थे जो इन ‘हरामखोरों’ के लिए भी खुले थे, जहां प्रकृति से सबको मिलने वाले मुफ्त उपहार, हवा, जलावन की लकड़ी, फल वगैरह इन्हें भी मिलते थे पर अब वो सब ‘गेटेड’ इलाके हैं -संतरी वाले – तभी इन  ‘मुफ्तखोरों’ की ‘ट्रेसपासिंग’ का खतरा हो गया है।

क्या इन ज्ञानवानों ने विश्व की और भारत की जनसंख्या के – अधिकृत स्रोतों – जैसे भारत में जनगणना विभाग के आंकड़े और रुझान देख लिए हैं कि कैसे जन्म-दर – हर समुदाय में लगातार गिर रही है; कि मुस्लिम समुदाय में इस गिरावट का रुझान ज्यादा तेज है; कि कुल जन्मदर के प्रतिशत पर सबसे बड़े समुदाय का असर सबसे ज्यादा होगा; कि मृत्युदर के भी लगातार कम होने से जनसंख्या बढ़ रही है लेकिन कुल  वृद्धि के प्रतिशत में कमी आ रही है।  और असल समस्या जनसंख्या की नहीं, संसाधनों के अन्याय-पूर्ण वितरण की, विकास के महानगर और नगर-केन्द्रित  होने, चंद धनपतियों के पास धन के केन्द्रित होने और कुरूप  असमानता की है।

फिर भी, गरीब, बीमार, बेघर शर्मिंदा है – डरा  हुआ है। जबकि, नैतिक दृष्टि से, इसका उल्टा होना चाहिए था। साधनवानों, नीति-निर्धारकों को शर्मिंदा, विनीत होना चाहिए था। ऐसा क्यों हो रहा है? इस के कारण दो जगह नज़र आ रहे हैं।

एक – बेशक दिल से, ईमानदारी से निकला हो – ‘न खाऊँगा, न खाने दूँगा’ का उद्घोष। बेशक सत्ता होते हुए भी ‘नहीं खाऊँगा’ का इरादा नेक है और जनता को भी प्रेरित करता है। हालांकि, साहित्य-मनोविज्ञान और गंभीरता  से पढे-लिखे लोग थोड़ा विवेकपूर्ण ‘मनहूसियत’ के साथ आगाह करते हैं कि शिखर-नेतृत्व को बहुत छाती पीटने की भाषा नहीं बोलनी चाहिए, उससे नीतियों-कार्यक्रमों में सरलीकरण हो जाता है। नेता का संदेश नपा-तुला हो, प्रेरक हो और पचास साल बाद  भी लगे कि युग बोल रहा है – कम कविताई, ज्यादा गंभीर गद्य।

पर दूसरा हिस्सा डरावना है। ‘नहीं करने दूँगा’ का काम संस्थाओं का है – हमारे सार्वजनिक जीवन के चारों खंभों– न्याय, विधायिका, कार्यपालिका और प्रेस की संस्थाओं का है। हम भाग्यवान देश हैं कि आज़ादी के बाद के हमारे नेताओं ने, लोकप्रियता के बावजूद तानाशाह न बनते हुए, इन संस्थाओं को पुख्ता रूप दिया। खुद ‘ नहीं करने दूँगा’ की बजाय, ‘नहीं करने देने वाली’ और जो होना चाहिए, उसे ‘ज़रूर करने देने वाली’ संस्थाओं को मजबूत बनाने की बात वाजिब होती। यही संविधान की शपथ का भी भाव था। ‘नहीं करने दूँगा’ ने संस्थाओं के ऊपर व्यक्ति को स्थापित किया और गदगद अनुयायियों ने अपने-अपने  स्तर पर इसकी व्याख्या करना और इसे अपनाना शुरू कर दिया। इससे जो जितना समर्थ था, उसने खान-पान-जीवन में – जो उसे नहीं करने लायक लगा, या फिर जो नहीं करने देने से – समर्थ की नज़र में देश-समाज-धर्म और वोट बचते थे – वो उसने करना शुरू कर दिया – संस्थाओं को एक तरफ रख कर। फिर संस्थाएं भी उसका अनुमोदन करने लगीं। और जो समर्थ नहीं था, उसका संस्थाओं से भरोसा उठ गया। वह डरने लगा।  पूछने लगा, ‘मुझे मारेंगे तो नहीं?’

दूसरे, आर्थिक-सामाजिक असमानता के बाद, पहले टीवी और फिर अपनी अंगुली में ताकत वाले सोशल मीडिया में समर्थ लोगों की वजह से भीषण सूचना-असमानता का युग शुरू हुआ। देश के 90 करोड़ मतदाताओं में से छोटा सा सोशल मीडिया-समर्थ अभिमानी वर्ग बना। उसके पास  बालकनी है, भरा पेट है, धौंस है  और बिना स्रोत जाँचे सूचना फैलाने के स्रोत, कौशल, नई-नई  टेक्नोलोजी है। जाहिर है, 1.3 अरब लोगों का ये वर्ग ‘मुख’ है – इसलिए मुखर है, बाकी मूक हैं । मुखर ही बोलता है, सुनता है,यही प्रवक्ता है – इसलिए सही-गलत का ‘परसेप्शन’ यानि ‘माहौल’ बनाता है । बाकी जो मूक है, वह  सोशल मीडिया और टीवी  चैनल, यू-ट्यूब, वीडियो, वगैरह-वगैरह चलाने  की सुविधा और समझ से अंजान है।  वह अशक्त है, इसलिए अपने को अपराधी समझता है, इसलिए डरा हुआ है।

संयोग देखिए, इस देश में जब आपात काल लगा था तो उसी दौर में, जनता की तरफ से सत्ता की जवाबदेही देखने की संविधान की मूल गारंटी माने जाने वाले – मूल अधिकारों को कम करने की कोशिशें हुई थीं और तभी सत्ता की तरफ से देश को देखने के लिए ‘मूल कर्तव्य’ संविधान में लाए गए थे। अब दूसरे रंग का दावा करने वाली सत्ता है, पर आजकल भी बात जनता के ‘कर्तव्यों’, जनता के ‘बलिदानों’, दुख सह लेने की ज्यादा होती है, सत्ता की जबाबदेही की नहीं होती।

और उसी आपातकाल के बाद जब ‘दूसरी आज़ादी’ आई थी, जिसके रंगीन पंख  आज की सत्ता ने भी खोंस रखे हैं – उसके खरी-खरी  बात करने वाले, नाटक न कर सकने वाले प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने शपथ-ग्रहण के समय भारत की जनता से कहा था –‘निर्भय हो जाओ।‘

लोकतन्त्र बेशक हमें धीरे-धीरे समाधान दे, पर उसकी सबसे बड़ी खूबी यही है – यही होनी चाहिए, कि हर गरीब, हर मूक को गरिमा, इंसानी  मिले, इज्जत मिले; वह निर्भय नागरिक हो।    उसे क्या करना या नहीं करना है – ये फैसले स्थापित कानून के अनुसार स्थापित संस्थाएं करें। उसे बिना गलती के, महज रोटी-ठिकाना-इलाज मांगने पर यह डर न सताये कि – ‘मुझे मारेंगे तो नहीं। ’  

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं।

5 COMMENTS

  1. मुझे यह लेखन शैली बहुत पसंद है. जैसे कोई ​धीमा संगीत चल रहा हो. या ग्रीष्मकाल के नदीप्रवाह सी. मंथर गति से आगे बढ़ती हुई. धन्यवाद

  2. बहुत अच्छा लिखा। मेरा सवाल तो यहां तक है कि सरकार को इस बात का क्या अनुमान भी नहीं था कि उसके देश में कितने रोजाना कमाने खाने वाले हैं और कितने प्रवासी मजदूर हैं?

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