राजनीति में रचनात्मकता ज़रूरी

विजय प्रताप*

भाजपा-आरएसएस प्रतिष्ठान ने पिछले 6 वर्षों में आचरण के तमाम मूल्यों को तिलांजलि देते हुए सामाजिक समरसता को नष्ट करने वाली, पक्षपात-पूर्ण सत्ता की हदें पार कर दी हैं। सरकार के तमाम दावों के उलट गरीब और वंचित के लिए इस तंत्र में कोई जगह नहीं लगती है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण पिछले दिनों सामने आया जब देश के सत्ता-प्रतिष्ठान ने कोविद-19 संकट के दौरान अपने एक तुगलकी फरमान से 8 से 12 करोड़ प्रवासी मजदूरों के रहने, खाने और जीने की चिंताओं की कोई व्यवस्था किए बिना देश के बहुसंख्यक वंचित समाज को अपने ही घर में प्रवासी बना दिया। अपने कामगारों के साथ इस तरह के व्यवहार को पूरी दुनिया ने संवेदनहीनता की पराकाष्ठा के रूप में देखा।

ये केवल एक वक्त हुई चूक नहीं थी। थमी हुई अर्थ-व्यवस्था को रफ्तार देने वाले कथित ‘स्टिमुलस पैकेज’ सहित सरकार के तमाम कदमों और बड़े बोलों से स्पष्ट हो गया है कि इस सत्ता में गरीब के लिए कोई दर्द नहीं है। अपनी संवेदनहीन और अहंकारपूर्ण रवैये से इस सरकार ने एक गहरा नैतिक संकट खड़ा कर दिया है जिसकी अभिव्यक्ति पिछले दिनों प्रवासी कामगारों के मामलों में अदालतों में दिए गए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के अभद्र बयानों में भी हुई है।

28 मार्च 2020 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने जब सरकार को निर्देश दिए कि वह घर लौटते कामगारों की यात्रा का खर्च उठाए और उन्हें भोजन दिलाए तो मेहता ने इस मुद्दे को उठाने वालों पर दंभपूर्ण और अभद्र टिप्पणियाँ कीं – उन्हें ‘गिद्ध’ तक कहा गया। ‘जिम्मेदार पदों’ पर आसीन महानुभावों के इन बयानों से उनकी संवेदनहीनता और सत्ता के नशे में चूर होने का पता चलता है।

अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और पीड़ितों को राहत देने के नाम पर बहुत देरी से और बहुत थोड़ा जो पैकेज सरकार ने घोषित किया है, उससे पता चल गया है कि ‘पीएम’ आम जन की कितनी ‘केयर’ करते हैं। लेकिन यह मनोवृत्ति कहीं अधिक गहरे घर कर गई है। नहीं तो आप सोचिए कि इतनी बड़ी संख्या में श्रमिक ट्रेनें कैसे दो-दो तीन-तीन दिन लेट हो सकती हैं और अपने गंतव्य स्टेशन पहुँचने की बजाय कहीं और ही चली जाती हैं? ये साफ नज़र आता है कि रेलवे के सरकारी तंत्र में ऊपर से नीचे तक यह संदेश पहुँच गया है कि इन बदहाल गरीबों की मदद करना वाकई सरकारी तंत्र की प्राथमिकता नहीं है बल्कि एक तरह से गैर-ज़रूरी है।

ऐसा लगता है कि यह संदेश ऊपर से नीचे तक चहूँ ओर पहुँच चुका है। इसी का परिणाम है कि केंद्र सरकार ही नहीं, बीजेपी के शासन वाले उत्तर प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में भी ऐसी ही निर्मम कहानी दुहराई जा रही है। कर्नाटक सरकार ने शुरू में कहा कि उसके ‘राज्य’ में काम कर रहे अन्य राज्यों के कामगरों को उनके मूल राज्य में नहीं जाने दिया जाएगा क्योंकि इससे राज्य में दुबारा आर्थिक गतिविधियां शुरू करने में दिक्कतें आएंगी! इसका मतलब क्या यह है कि हम आज भी मजदूरों से जबरन ‘बेगार’ कराए जाने वाले दिनों में जी रहे हैं।

इससे भी बुरा रवैया तो उत्तर प्रदेश सरकार का देखने को मिला जब कॉंग्रेस पार्टी द्वारा प्रदेश के मजदूरों को घर छोड़ने के लिए 1,000 बसें मुहैया करने का प्रस्ताव प्रदेश सरकार को दिया। काँग्रेस की इस पहल का स्वागत करने और तकलीफ झेल रहे सैकड़ों मील पैदल चल चुके कामगारों, औरतों-बच्चों, अशक्त बुजुर्गों की मदद करने की बजाय, इन बसों को न चलने देने के लिए तमाम बहाने गढ़े गए और कहानियाँ बुनी गईं। युद्धरत देशों के बीच भी रेडक्रॉस को एक-दूसरे देशों के नागरिकों को खतरे की जगहों से सुरक्षित निकालने की सुविधा दी जाती है। और यहाँ हम अपने ही देश के नागरिकों के लिए रुकावटें खड़ी कर रहे थे। ये तो सोच के भी परे है कि कोई लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गई सरकार अपने ही लोगों से ऐसा व्यवहार कैसे कर सकती है।

संतोष की बात ये रही कि देश भर में सभी धर्मों-विचारों के व्यक्तियों और संगठनों ने पूरी निष्ठा और समर्पण से इन प्रवासियों की मदद की। इन नेक कामों के लिए अनेक नए नागरिक मंच और संगठन बने। लेकिन वहीं ताज्जुब की बात ये भी रही कि दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी यानि बीजेपी के लाखों कार्यकर्ता इस दौरान क्या कर रहे थे? दुनिया के सबसे बड़े कथित स्वयंसेवी संगठन के कार्यकर्ता क्या कर रहे थे? प्रवासी कामगारों के मुद्दे पर वे इतने चुपचाप और निष्क्रिय क्यों हो गए?  

बीजेपी और आरएसएस के ये लोग मात्र केंद्र सरकार को ही नहीं चला रहे हैं। सत्ता की जबर्दस्त भूख में ये हर तिकड़म और अनैतिक तरीकों से राज्यों में सत्ता हड़पने की साज़िशों  में जुटे हैं। गोवा, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में यही खेल चला। गुजरात में एक राज्यसभा सीट के लिए कैसे कैसे तरीकों से विधायकों को दल-बदल कराया गया। राजस्थान में भी ऐसे कुत्सित प्रयास जारी हैं। इतना ही नहीं, सरकारी तंत्र पर पूरी तरह कब्जा करने के लिए ये लोग यूपीएससी से भर्ती के तौर-तरीकों को दरकिनार कर और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण के प्रावधानों को धता बताकर संयुक्त सचिव और इससे बड़े स्तर के अफसरों को बड़े पैमाने पर सरकार में लाकर राज्य-तंत्र की संस्थाओं की पेशेवर गुणवत्ता को नष्ट कर रहे हैं।

विविध सामाजिक संगठनों और व्यक्तियों के बेहतर और नेक  कामों को प्रचारित कर बीजेपी-आरएसएस की जन-विरोधी नीतियों को चुनौती दी जा सकती है। अगर हम गरीब प्रवासी कामगारों की तकलीफ़ें दूर करने के सामान्य जनों के छोटे-बड़े प्रयासों को कारगर तरीके से दर्ज करेंगे, प्रसारित-प्रचारित करेंगे, तो बीजेपी-आरएसएस की मंडली की क्षुद्रता साफ तौर पर उजागर हो जाएगी। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और काँग्रेस पार्टी द्वारा आगे बढ़ कर की गई पहलें ऐसे कामों के अच्छे उदाहरण हैं लेकिन ऐसे हजारों अन्य कार्य हैं, जो प्रचारित किए जा सकते हैं।

कॉंग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को वर्तमान सत्ताधारियों के दुष्प्रचार और नैतिक पतन का मुक़ाबला करने के लिए आगे आना ही  होगा। वास्तव में, काँग्रेस पार्टी द्वारा 2018 में गठित आम जन तक पहुँचने के लिए गठित – रचनात्मक कॉंग्रेस को इस नैतिक लड़ाई के लिए पहल करनी होगी। पार्टी अध्यक्ष से सलाह-मशविरे के बाद मधुसूदन मिस्त्री, विजय महाजन और अमिताभ बेहार जैसे वरिष्ठ लोगों ने रचनात्मक काँग्रेस की शुरुआत की थी। इसका उद्देश्य पार्टी के विभिन्न आंदोलनों से जुड़े नेताओं को,  निजी रूप से, स्वयंसेवी संस्थाओं, आंदोलनों और सामुदायिक सभा-संगठनों से जोड़ना और उनसे संपर्क कायम करना है।

यह दौर चुनौतियों का है। चुनौती यह है कि हम एक देशभक्त लोकतान्त्रिक समाज बनाने की निरंतर मुहिम में जहां भी हों, हमें कर्तव्य-निष्ठा की कसौटी पर खरा उतरना है। अगर रचनात्मक काँग्रेस ऐसे तमाम प्रयासों को एकजुट कर सके तो यह बीजेपी-आरएसएस के देश को तोड़ने वाले, अनैतिक और जन-विरोधी कार्यों के प्रतिरोध में, राष्ट्र-निर्माण के वैकल्पिक अभियान को ताकत दे सकेगी।  

विजय प्रताप लोकतंत्र संवर्धन के लिए समर्पित गांधीवादी-समाजवादी कार्यकर्ता हैं। यह लेख newsplatform.in पर प्रकाशित एक लेख पर आधारित है।

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