क्या कांग्रेस का गठबंधनों को लेकर ढुल-मुल रवैया सोची-समझी रणनीति है?

क्या यह बेहतर ना होता कि प्रियंका गांधी अपनी ऊर्जा ऐसे राज्यों में लगातीं जहां कांग्रेस को खोई हुई ज़मीन पाने की ज़्यादा उम्मीद है। ऐसे राज्यों में आप हाल ही में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जिताने वाले मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ के अलावा महाराष्ट्र और गुजरात भी जोड़ सकते हैं और या फिर कर्नाटक भी।

इस बार का लोकसभा चुनाव कितना महत्वपूर्ण है, इस पर किसी को ज़ोर देकर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। वैसे फिर भी इस स्तंभकार इस संदर्भ में जो भी समझ आ रहा था, उसके हिसाब से अपनी बात कल ही एक आलेख में कही है और अपनी ये चिंता पाठकों के सामने रखी है कि इस बार का चुनाव परिणाम अगर पिछली बार की तरह रहा तो देश का संविधान और लोकतन्त्र भी खतरे में हो सकता है। जब हमें ये समझ आ रहा है तो उम्मीद करनी चाहिए कि इस समय विपक्ष की तरफ से मोर्चा सम्हाले राजनीतिक दल भी इस खतरे के बारे में सचेत होंगे और इस लड़ाई को पूरी गंभीरता से लड़ रहे होंगे।

ऐसे में पिछली लोकसभा में केवल 44 सीटें पाने वाली कांग्रेस पार्टी अपने गठबंधन फ़ाइनल करने में जो समय ले रही है, वह थोड़ा हैरान करने वाला है। दक्षिण भारत के राज्यों में ज़रूर कांग्रेस ने कुछ गठबंधन फ़ाइनल कर लिए हैं जो उसके लिए फायदेमंद हो सकते हैं लेकिन उसके विपरीत उत्तर भारत में या हिन्दी पट्टी में अभी तक भी कांग्रेस की क्षेत्रीय दलों से बातचीत चल ही रही है। अगर ये सोची-समझी देरी है और कांग्रेस किसी रणनीति के तहत ऐसा कर रही है तो फिर हमें कुछ नहीं कहना लेकिन अगर ऐसा किसी चलताऊ रवैये के कारण हो रहा है तो फिर चिंताजनक है।

दिल्ली की सात सीटों को लेकर तो पिछले दिनों कांग्रेस के नेताओं ने सार्वजनिक रूप से जो बयानबाजी की, उससे ये संदेश जाता है कि पार्टी में कोई आंतरिक समन्वय की व्यवस्था ही नहीं है। सिर्फ दिल्ली के कांग्रेसी नेता ही नहीं, केंद्रीय पार्टी की तरफ से दिल्ली के इंचार्ज नियुक्त किए गए कांग्रेस के महासचिव – ये सभी आपस में पिछले दिनों अखबारों के माध्यम से बात करते लग रहे थे। वैसे फिर एक बार दोहराना होगा कि कभी कभी ये सार्वजनिक ब्यानबाजी सोची-समझी योजना के तहत भी होती है, यदि ऐसा है तो हम क्या कह सकते हैं। लेकिन ऐसा है भी तो हमें लगता है कि इसका सही संदेश नहीं जा रहा।  

दिल्ली के अलावा अभी तक हरियाणा और पंजाब में भी यह साफ नहीं हो पा रहा कि कांग्रेस किस रणनीति के तहत काम कर रही है। इन राज्यों में भी दिल्ली की तरह ये तय नहीं हो पा रहा है कि उसका आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन होगा या वह अकेले चुनाव लड़ने जा रही है, इस बारे में अब तक फैसला हो जाना चाहिए था। इसी तरह बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ भी ये लिखे जाने तक बातचीत चल ही रही है। राजद कुछ धैर्य खोता भी लग रहा है लेकिन शायद ये माना जा सकता है कि ये तेजस्वी यादव की ‘पब्लिक-पौश्चरिंग’ ही हो।

सीटों के हिसाब से सबसे महत्वपूर्ण राज्य की बात करें तो उत्तर प्रदेश में तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी (सपा-बसपा) के महागठबंधन में शामिल ना होने के कारण कांग्रेस रेस से बाहर ही लग रही है। हालांकि ये है कि उत्तरप्रदेश के संदर्भ में कम से कम ये स्पष्ट हो चुका है कि वहाँ कांग्रेस को बिना गठबंधन के ही लड़ना है।

यह अलग बात है कि कुछ प्रेक्षक यह भी मान रहे हैं कि कांग्रेस और सपा-बसपा गठबंधन ये चुनाव एक अण्डरस्टैंडिंग में ही लड़ रहे हैं और कुछ सीटों को छोड़ कर कांग्रेस लगभग सभी सीटों में भाजपा के वोट काटने के लिए ही चुनाव लड़ेगी। ऐसा अनुमान लगाने वालों का तर्क ये है कि सपा-बसपा का तो अपना-अपना स्थिर वोट-बैंक है और इसकी संभावना ना के बराबर है कि इस गठबंधन को कहीं से भी ब्राहमन वोट मिलें। ऐसे में अगर कांग्रेस अच्छी संख्या में ब्राहमन वोट बटोर लेती है तो उसका सबसे ज़्यादा नुकसान भाजपा को होना चाहिए।

उत्तरप्रदेश के संदर्भ में एक और बात जो ध्यान में आ रही है वो है प्रियांका गांधी के पूर्वी उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार को लेकर। जिस लगन से वह अपनी ऊर्जा चुनाव प्रचार में लगा रही हैं, और जिस तरह का रेस्पोंस उन्हें मिल रहा है, उसको देख कर लगता है कि क्या काँग्रेस वहाँ जीतने के लिए लड़ रही है? अगर ऐसा है तो क्या ये संभव है और यदि नहीं तो क्या कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि इस सारी कवायद का लाभ भाजपा को मिल जाये? दरअसल हम जानते हैं कि इन सब सवालों का जवाब अभी नहीं दिया जा सकता लेकिन जो चिंता मन में थी, वह हमने यहाँ शेयर कर दी।

प्रियंका गांधी को मिल रहे रेस्पोंस को देखकर ये भी मन में आता है कि अगर कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में जीतना ही नहीं तो प्रियंका के कीमती समय को फिलहाल उत्तर प्रदेश में क्यों लगाया जा रहा है? क्या यह बेहतर ना होता कि वह अपनी ऊर्जा ऐसे राज्यों में लगतीं जहां कांग्रेस को खोई हुई ज़मीन पाने की ज़्यादा उम्मीद है। ऐसे राज्यों में आप हाल ही में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जिताने वाले मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ के अलावा महाराष्ट्र और गुजरात भी जोड़ सकते हैं और या फिर कर्नाटक भी।  

कांग्रेस के गठबंधनों की बात आगे चलाई जाये तो ये भी चिंताजनक है कि पश्चिम बंगाल में उसने ना तो तृणमूल कांग्रेस के साथ और ना ही वामपंथी दलों के साथ कोई गठबंधन किया है। इसी तरह असम सहित उत्तर-पूर्वी भारत में भी कांग्रेस के किसी मजबूत गठबंधन के फ़ाइनल होने की कोई खबर नहीं है। क्या कांग्रेस ज़रूरत से ज़्यादा आत्म-विश्वासी हो रही है या फिर ये सीधे-सीधे उसकी प्रबंधकीय शैली का खोखलापन दिख रहा है? संभवत: ये दोनों बातें ही सच हों। कांग्रेस में राहुल गांधी ने पार्टी के सब नेताओं और कभी कभी पार्टी के बाहर के लोगों से भी मशवरा लेने का जो तरीका शुरू किया है, उससे निश्चय ही पार्टी को लाभ हो रहा होगा लेकिन ऐसे में कभी कभी निर्णय लेने में देरी भी हो जाती है। हो सकता है कि गठबंधनों में हो रही देरी उसी का परिणाम हो।

जो भी कारण हों, यह तय है कि इस प्रकार के रवैये का अच्छा संदेश नहीं जा रहा और चाहे ये सोची-समझी रणनीति के तहत भी हो रहा हो तो भी आम लोग यह सोच सकते हैं कि कांग्रेस की स्थिति ढ़ुल-मुल है। ऐसे नाज़ुक समय में जब संविधान और लोकतन्त्र दांव पर लगे हों तो इस प्रकार का ढ़ुल-मुल रवैय्या चिंता पैदा करता है।

—-विद्याभूषण अरोरा

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  1. I was referred to this site by a friend. Honestly I started liking it but no more. You have been a Modi hater that was aparent and there is no harm to a certain extent. But your recent articles prove that you are not a balanced person that I had wrongly thought you were when it comes to big issues. Why should you be worried again and again if Modi comes to power, in this article ? Is Congress absolutely a better option ? Is being right wing an antinational trait ? Is a stable government that worries you ? Ideology should not come Iinto play when you are writing a judgemental article. If this government has done things that are not good in many people’s opinion, no government has been above board. I am not pro Modi but how can you forget Congress actions in Sri Lanka, their ignoring Muslim women’s human rights issues for vote sake, converting top institutions as Nehru family fiefdom, filling whole of Assam with immigrants, not doing anything worthy against corrution etc etc? At least as a web magazine editor you were expected to have a pretension of being equidistant from both these third rate parties or other fourth rate political formations.

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