क्या कहती हैं गांवों में हो रही मौतें ?

राजकेश्वर सिंह*

भारत के मामले में इस सच्चाई से सभी वाकिफ हैं कि देश में ज़्यादा बेहतर सभी चिकित्सा सुविधाएं महानगरों और शहरों में ही हैं। ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सुविधाओं का शुरू से अभाव रहा है। ऐसे में गांवों में कोरोना का विस्तार ज़्यादा खतरनाक साबित हो सकता है। पर्याप्त जांच न होने पर यह प्रसार और बढ़ सकता है, जबकि सरकारें अभी तक शहरी मोर्चे पर ही जूझ रही हैं। शहरों की बनिस्बत ग्रामीण आबादी में जागरूकता की कमी भी उनके बेहतर इलाज में एक बड़ी चुनौती है। लिहाज़ा कोरोना से निपटने में सरकारों को शहरों से भी ज़्यादा फोकस गांवों में करना ही एक मात्र रास्ता है। अब गांव वालों की जान बचाने की इस नई चुनौती से कौन राज्य कैसे निपटता है, यह भी देखा ही जाना चाहिए।  

एक अजीब स्थिति बन गई है। दिल्ली समेत देश के विभिन्न राज्यों में कोरोना की दूसरी लहर ने बीते अप्रैल महीने से लेकर मई के पहले हफ्ते तक मौत का जो तांडव मचाया, उससे अभी तक लोग हक्का-बक्का हैं। केंद्र व राज्य सरकारों की ओर से कोरोना मरीजों के इलाज और जरूरी सुविधाओं के लिए दिये जा रहे तमाम भरोसों के बाद भी लोगों के दिल-ओ-दिमाग से कोरोना का खौफ जा नहीं रहा है। यह भरोसा इसलिए भी कायम नहीं हो पा रहा है, क्योंकि बीते दिनों समुचित इलाज, अस्पताल, बेड और जान बचाने के लिए आक्सीजन की किल्लत जिस तरह जानलेवा बनी, वह लोगों के ऊपर कहीं बहुत गहरे असर कर गई है, जबकि एहतियाती उपायों में सभी को वैक्सीनेशन का ज़रूरी सवाल सबसे ऊपर आ गया है। जब दुनिया के कई दूसरे देश कोरोना से बचाव के लिए अपनी बड़ी आबादी का टीकाकरण कर चुके हैं, उसी समय भारत वैक्सीन की किल्लत से जूझ रहा है। अमेरिका जैसा देश अप्रैल के तीसरे हफ्ते तक जब अपनी आबादी के लगभग 30 प्रतिशत हिस्से का वैक्सीनेशन कर चुका था, तब भारत अपनी आबादी के दो प्रतिशत लोगों का भी पूरी तरह वैक्सीनेशन नहीं कर सका था। आलम यह है कि अब जाकर वैक्सीन के लिए लगभग दर्जन भर राज्य सरकारें ग्लोबल टेंडर करने जा रही हैं।

देश इन स्थितियों से जूझ ही रहा है कि इस बीच एक नई चुनौती सामने आ खड़ी हो गई है। अकस्मात आए इस नए संकट से भारत के गांवों में बड़ी संख्या में लोगों की मौतें होने लगी हैं। ग्रामीणों की ये मौतें बुखार, खांसी, जुकाम और सांस लेने में दिक्कतों की वजह से हो रही हैं। सरकारें इस तरह गांव-गांव में होने वाली मौतों को कोरोना से होने वाली मौतों में शामिल करें या न करें, लेकिन बड़ा मुद्दा ये है कि ग्रामीणों की मौतें हो रही हैं और वहां कोरोना की जांच के समुचित इंतजाम न के बराबर हैं। लिहाज़ा यह तफतीश होना मुश्किल है कि ये मौतें कोरोना से हैं, या किसी और बीमारी से।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में इस तरह होने वाली मौतें तो ज़्यादा चौंकाने वाली हैं। प्रदेश के गाजीपुर जिले में गंगा नदी में बह रहे शवों को तो सोशल मीडिया में आने के बाद देश-दुनिया ने भी देखा है। लाशें बहते-बहते बिहार के बक्सर जिले तक पहुंच गईं, लिहाज़ा वे लाशें कहां से आईं और किसकी हैं, यह सवाल भी बहस का विषय बन गया। इस तरह की मौतों से जुड़ी और खबरें वाराणसी, गाजीपुर, चंदौली और भदोही ज़िलों से भी आई हैं। बीते दिनों इन ज़िलों से एक दिन में गंगा में लगभग डेढ़ दर्जन लाशें देखी गई थीं। प्रदेश के ही उन्नाव जिले के बक्सर घाट व कानपुर जिले के खेरेश्वर घाट के पास बालू और मिट्टी के भीतर दफनाए गए सैकड़ों शवों की तस्वीरें देश के सामने आ चुकी हैं। इसी तरह यूपी के ही गोंडा जिले के चकरौत गांव में हफ्तेभर के भीतर बारी-बारी से एक ही परिवार के पांच लोगों की मौत हो गई। वहां अगल-बगल के गांवों में भी इस तरह की मौतें हुई हैं। रायबरेली जिले के चरुहार बीक गांव की आबादी चार हजार है। वहां पंद्रह दिनों में आधा दर्जन लोगों की जानें, इसी तरह की खांसी, जुकाम, बुखार से जा चुकी है। इस तरह की मौतों के मामले में पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी अछूता नहीं है। मेरठ ज़िले के एक गांव मटौर के प्रधान ने तो कोरोना से बचाव के लिए बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश को वर्जित करने वाला बैनर ही गांव के बाहर लगा दिया। उल्लंघन पर दो हज़ार रुपए दंड का भी उल्लेख कर दिया। ज़ाहिर है कि प्रदेश में हो रही इन मौतों को पूरी तरह कोरोना से अलग करके नहीं देखा जा सकता।

देश के विभिन्न राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में हो रही इस तरह की मौतों की वजह कोरोना को ही मानते हुए कई राज्यों ने तो शहरों के साथ-साथ गांवों को भी इस महामारी से बचाने पर फोकस कर दिया है, जबकि कई राज्यों में गांवों में कोरोना के फैलाव को लेकर अभी वह सतर्कता नहीं दिखी है, जैसी शहरों के मामले में देखी गई थी। लिहाज़ा गांवों में बीमारी के हफ्ते-दस दिनों के भीतर ही होने वाली मौतों की गिनती कोरोना मरीज़ों के रूप में नहीं हो रही है। थोड़े-बहुत मामलों में यदि जांच हो जाती है, तभी उन मामलों को कोरोना के रूप में गिना जा रहा है। उत्तर भारत के कई राज्य अब इस चुनौती से रूबरू हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों की स्थिति ज़्यादा खराब है।

कोरोना से होने वाली मौतों का सवाल किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है। राजस्थान में भी कोरोना का संक्रमण तेज़ी से गांवों की ओर फैल रहा है। विभिन्न राज्य सरकारें भी इस हकीकत पर गंभीर है और एहसास कर रही हैं कि गांवों में कोरोना का फैलना उसके लिए चिंता का विषय है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही राजस्थान सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में रैपिड एंटीजन टेस्ट करने का फैसला किया है। न्यूज एजेंसी एएनआई ने बाड़मेर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी के हवाले से बीते दिनों यह रिपोर्ट किया कि कोरोना के 70 प्रतिशत पोज़िटिव केस ग्रामीण इलाके से आ रहे थे। इसी तरह मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में भी कोरोना ने पैर पसारना शुरू कर दिया है। ऐसी भी खबरें आ रही हैं के भोपाल जैसे बड़े शहरों के अस्पतालों में आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों के करोना मरीजों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी है। इसकी एक वजह यह भी है कि प्रदेश के आठ सौ से अधिक कोविड चिकित्सा केन्द्रों में से बमुश्किल 70 ही ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, जबकि बाकी सभी शहरी क्षेत्रों में हैं। एक अनुमान के मुताबिक कोरोना की दूसरी लहर का प्रकोप बढ़ते ही पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र से पिछले महीने ही हजारों प्रवासी मजदूर प्रदेश के  विभिन्न गांवों को लौटे हैं, जिसके चलते भी गांवों में कोरोना के प्रसार को बल मिला है।

गांवों में कोरोना के फैलाव वाले राज्यों में महाराष्ट्र भी चुनौतियों का सामना कर रहा है। राज्य में अप्रैल महीने के तीसरे हफ्ते में स्थिति यह थी कि ग्रामीण क्षेत्रों के कोरोना मरीजों में मुंबई और पुणे महानगरों से भी अधिक पोजिटीविटी रेट देखा गया था। उस समय महाराष्ट्र में कोरोना मरीजों का औसतन पोजिटीविटी रेट 25.17 प्रतिशत था, जबकि उस्मानाबाद में 39 प्रतिशत से अधिक और हिंगोली में लगभग 36 प्रतिशत तक पोजिटीविटी रेट पहुंच गया था। इसके अलावा अहमदनगर, पालघर, रत्नागिरी, गोंदिया, नासिक, लातूर जैसे ज़्यादा ग्रामीण आबादी वाले जिले भी ज़्यादा प्रभावित रहे हैं।

कारण जो भी रहे हों, आज़ादी के सत्तर साल बाद भी केरल और दक्षिण के राज्यों को छोड़ कर देश के अन्य राज्यों में छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं बहुत खराब हाल में हैं। ऐसे में केंद्र सरकार कोई फौरी कार्य-योजना बना कर राज्यों के लिए दिशा-निर्देश बनाए तो संभवत: ये राज्य अपने गांवों में कीमती ज़िंदगियाँ बचाने के लिए कुछ बेहतर कर सकते हैं।

*लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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