दिल्ली के दंगे और आगे का रास्ता

आज की बात

आज तीसरा दिन है दिल्ली के दंगों को शुरू हुए। इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़ कर आज हिंसा की घटनाएँ नहीं हुईं।

ऐसी घटनाओं पर देर से प्रतिक्रिया देने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी ने भी आज सुबह आखिरकार सोशल मीडिया पर ट्वीट करके शान्ति बनाए रखने की अपील कर दी। उनकी इस अपील की जहां एक ओर इंतज़ार हो रही थी वहीं दूसरी ओर ये भी कहा जा रहा था कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह इसमें कोई जल्दबाज़ी करें, इससे पहले जब भी हिंसा की घटनाएँ हुई हैं, चाहे वह कश्मीरी विद्यार्थियों के खिलाफ हों या तथाकथित गौ-रक्षकों द्वारा हिंसा के मामले हों, उनकी अपील देर में ही आती है।

खैर शान्ति बनाए रखने की उनकी अपील कभी भी आए, उसका स्वागत है लेकिन अगर पिछले तीन दिनों में उनका गृह मंत्रालय जिसके अधीन दिल्ली पुलिस आती है, ठीक से अपना काम करता तो फिर प्रधानमंत्री द्वारा अपील करने की नौबत ही ना आती। ठीक से काम करना कहना भी ज़्यादा होगा, अगर पुलिस अपना कार्य ‘प्रोफेशनली’ करती तो फिर उसकी साख भी बचती और दिल्ली भी दंगों से बचती। अगर भड़काऊ ब्यान देने वाले छुटभैयों को पुलिस ने राजनैतिक आकाओं की मर्ज़ी की चिंता किए बिना कानून के अनुसार गिरफ्तार कर लिया होता तो लोगों का पुलिस में विश्वास बना रहता।

इस आलेख में हम घटनाओं के ब्यौरों में नहीं जाएंगे – हम कुछ संबद्ध सवालों पर विचार करना चाहते हैं। सबसे पहला मुद्दा जिस पर हम बात करना चाहते हैं, वह है नागरिकता कानून के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग़ और अन्य स्थानों पर चल रहे प्रदर्शनों की रणनीति पर। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि सीएए कानून ना केवल धार्मिक आधार पर स्पष्ट भेदभाव करने के कारण संविधान विरोधी है और इसलिए संसद द्वारा कानून पारित होने के बावजूद इसका विरोध न्याय-संगत है और यह लोगों का लोकतांत्रिक अधिकार भी है।

दिल्ली के शाहीन बाग़ में महिलाओं के नेतृत्व में चलने वाले एक स्वत:स्फूर्त आंदोलन से प्रेरणा पाकर दिल्ली में कई अन्य स्थानों पर और देश भर में अलग-अलग शहरों में ये आंदोलन खड़े हो गए और इन्हें काफी लंबे समय तक मुस्लिम समाज के अलावा समाज के अन्य प्रगतिशील वर्गों से समर्थन भी मिलता रहा। लेकिन धीरे-धीरे अब इन दंगों से पहले भी ये स्थिति बनती जा रही थी कि गैर-मुस्लिम समाज से मिलने वाला समर्थन सिद्धान्त रूप में तो था किन्तु सक्रिय भागीदारी के तौर पर कम होता जा रहा था। अब इन दंगों ने स्थिति को और भी जटिल बना दिया है। अगर सीएए विरोधियों ने अपनी रणनीति को ठीक नहीं किया तो ऐसा लगता है कि कट्टरपंथी ताक़तें अपने उद्देश्यों में सफल हो जाएंगी और इस पूरे मामले का हिन्दू बनाम मुसलमान के रूप में सांप्रदायिक-करण कर दिया जाएगा। बल्कि यूं कहें कि एक हद तक वो ह भी चुका है क्योंकि भाजपा और संघ सत्ता में होने के बावजूद राज-धर्म का निर्वहन करने की बजाय देश में नफरत फैलाने का काम खुल कर रही है।

ऐसे में विचार करना होगा कि क्या शाहीन बाग़ जैसे आंदोलनों को दिल्ली में जारी रखना कहीं सांप्रदायिक ताकतों के हाथों में खेलना तो नहीं हो जाएगा? हो सकता है कि सरकार अपने दमन चक्र द्वारा भी इन विरोध प्रदर्शनों को समाप्त करे और जिससे इस्लामी कट्टरपंथियों को बल मिलेगा। कुल मिलाकर ये कि अब चूंकि इन विरोध प्रदर्शनों का केवल मुस्लिम समुदाय का आंदोलन भर बनते जाने का खतरा बढ़ रहा है, इसलिए समय आ गया है कि वो सब लोग जो देश में सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखना चाहते हैं और जो ये भी मानते हैं कि सीएए कानून मुसलमानों, आदिवासियों और औरतों के खिलाफ है, उन्हें इसका कारगर विरोध करने के लिए शायद कोई नए तरीके अपनाने होंगे ताकि समाज को बांटने वाली ताकतों को और हिंसा फैलाने का मौका ढूंढ रहे कट्टरपंथी लोगों को अपनी साज़िशों में कामयाबी ना मिल पाये।  

क्या हो सकते हैं ये नए तरीके? ऐसे में गांधी जी को स्मरण करना होगा कि वो होते तो क्या करते? संभवत: आंदोलन तो वह वापिस लेते ही। लेकिन आंदोलन वापिस लेकर वह चुप बैठने वालों में तो थे नहीं। तो शायद वह प्रार्थना सभाएं शुरू करवाते। इस स्तंभकार को लगता है कि इस समय जो भी संघ और भाजपा की देश को धर्म के आधार पर बांटने वाली नीतियों के विरोधी हैं, उन्हें अपने प्रयासों को सम्मिलित करना चाहिए और सीएए के विरोध को सिर्फ मुस्लिमों का आंदोलन बनने से बचाना चाहिए। पहले कदम के तौर पर सर्व-धर्म प्रार्थना सभाओं का आयोजन किया जा सकता है। इनकी शुरुआत मुस्लिम-बहुल इलाकों से की जा सकती है। ऐसी सर्व-धर्म सभाओं की अगुवाई भी महिलाएं ही करें तो अच्छा है।

सीएए विरोध के अलावा सरकार से अन्य गंभीर मसलों पर सवाल पूछने का माहौल बनाना होगा। देश भर में दलितों, मजदूरों और किसानों की बदहाली किसी से छिपी  नहीं है। वैसे तो इनकी हालत कभी भी अच्छी नहीं थी लेकिन भाजपा शासन काल में समाज में विखंडन और तनाव के अलावा देश की आर्थिक स्थिति भी बुरी तरह चौपट हुई है। अपने आप में ये एक  आश्चर्य ही है कि कैसे इतनी बदहाली के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनावों में पहले से भी ज़्यादा सीटें पाकर वापिस सत्ता में आ गई। सिविल सोसाइटी समूहों को, बची-खुची विरोधी राजनीतिक ताकतों को और करीब-करीब खत्म हो चुके विरोधी दलों को हिम्मत जुटानी होगी और देश भर में शोषित और वंचित लोगों को सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ संगठित करना होगा।

इसके अलावा जिस तरह गांधी जी स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान रचनात्मक कार्यक्रम चलाते थे, उसी तर्ज़ पर सिविल सोसाइटी ग्रुप्स को दिल्ली सहित देश के हर बड़े शहर में युवाओं को जोड़ने के लिए रचनात्मक कार्यक्रम चलाने चाहियेँ। मिसाल के तौर पर युवाओं को उनकी शैक्षणिक स्थिति के अनुसार वालांटियरज़ के ज़रिये किसी किस्म का हुनर सिखाया जा सकता है। अच्छी शिक्षा पाये हुए युवक-युवतियों को कोचिंग देकर अच्छी नौकरियों के लिए तैयार किया जा सकता है और साथ-साथ उनकी ऐसी राजनीतिक विचारधारा बनाने में मदद हो सकती है जिससे वह स्वतन्त्रता आंदोलन से बने उदात्त मूल्यों (जैसे धर्म-निरपेक्षता, अहिंसा, दूसरे के विचार को सुनने का धैर्य, जात-पात को सार्वजनिक जीवन में स्थान ना देना) को भी सीख सकें।  

इस पूरी प्रक्रिया में ये ध्यान अवश्य रखना होगा कि कोई भी संगठन, आंदोलन या संघर्ष हिंसा की तरफ कभी ना बढ़े। इस बात की पूरी संभावना है कि सरकार विरोधी आंदोलनों को हिंसा करने के लिए उकसाया जाए लेकिन उन्हें ये सुनिश्चित करना चाहिए के वो किसी भी उकसावे में आ आयें और अहिंसा का रास्ता ना छोड़ें। ये रास्ता लंबा और मुश्किल ज़रूर लगता है लेकिन इसके अलावा कोई शॉर्ट-कट नज़र भी नहीं आता। अगर हमें अपने सपने के समाज को बनाना है तो संघ की विचारधारा से मिली चुनौती से तो निपटना ही होगा और चूंकि आरएसएस कई दशकों से ज़ोर-शोर से अपने काम में लगा है तो उससे निपटने के लिए हमें भी कुछ समय तो देना ही होगा। जैसा कि अज्ञेय ने एक कविता में लिखा है, “पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है  – या मत मानो तो वह भी सच्चा है”।

विद्या भूषण अरोरा

1 COMMENT

  1. बहुत बढिया आलेख। समय आ गया है जब शाहीन बाग आन्दोलन को मौजूदा स्वरुप से बदल कर एक राष्ट्रव्यापी स्वरुप दिया जाए। इसका नेत्रत्व सिविल सोसाइटी संगठनों के हाथ में होना चाहिए। फिर से अन्ना और मेधा जैसे लोगों को आगे करना होगा

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