वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस में राजनय व कूटनीति

डॉ प्रकाश थपलियाल*

वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरित मानस के रचनाकाल में लगभग साढ़े छः हजार साल का अन्तर है। वाल्मीकि रामायण जहां आज से करीब सात हजार वर्ष पहले रची गई थी वहीं रामचरित मानस आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व लिखी गई। रामायण जहां संस्कृत भाषा में है वहीं रामचरित मानस ग्रामीण अवधी में है। वाल्मीकि को राम का समकालीन माना जाता है।

रामायण में राजनय आज की डिप्लोमेसी के सन्दर्भ में नहीं दिखाई देती। रावण पक्ष द्वारा जिस धोखे और कपट को हम रामायण में देखते हैं उसे राजनय की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। राम पक्ष का सुग्रीव और विभीषण को राज दिलाना इस श्रेणी में आ सकता है लेकिन यह कार्य सच्चाई के सिद्धान्तों की जिस बुनियाद पर किया गया उसे वर्तमान सन्दर्भों में राजनय का हिस्सा नहीं माना जा सकता।

रामचरित मानस में वर्णित रावण-अंगद संवाद इस श्रेणी में आता है।

राम में सच्चाई और निश्छलता इतनी अधिक है कि वे राजनय की चतुराई की सोच भी नहीं सकते। रामचरित मानस के अनुसार मिथिलापुर में राजा जनक के उपवन में उन्हें सीता जी पहली बार दिखाई देती हैं, उनके सौन्दर्य पर राम मुग्ध होते हैं और जैसा वे महसूस करते हैं वह सब गुरु विश्वामित्र को बताते हैं।

हृदय सराहत सीय लोनाई, गुरु समीप गवने दोउ भाई।

राम कहा कवि कौशिक पाहीं, सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं।।’

वाल्मीकि रामायण में मिथिलापुर में राम के उपवन में जाने का प्रसंग नहीं है और न उनके सीता पर मुग्ध होने का। आधुनिक नज़रिए से देखने वाले लोग लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने पर राम के सबसे पहले कैकयी के पास जाने को राम की राजनयिक भंगिमा कह सकते हैं-

प्रभु जानी कैकयी लजानी, प्रथम तासु गृह गए भवानी।

ताहि प्रबोधि बहुत कुछ दीना, पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।।’

(शिवजी कहते हैं – हे भवानी, प्रभु ने जान लिया कि माता कैकयी लज्जित हो गई हैं इसलिए वे पहले उन्हीं के महल में गए और उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। तब श्री राम अपने महल को गए।)

वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम ने विभीषण के शरण में आने और प्रारम्भिक बातचीत के बाद ही विभीषण का राजतिलक कराया था, जबकि रामचरित मानस के अनुसार राम ने विभीषण के आते ही उसे ’लंकेश’ नाम से सम्बोधित किया। शत्रु के भाई को अपने साथ मिलाना, यहां न्याय का पक्ष लेने के साथ-साथ राजनय भी था।

 वाल्मीकि रामायण में रावण द्वारा सीता के पास राम का नकली सिर भेजना, मेघनाद द्वारा युद्ध में नकली सीता की हत्या, रावण का सीता जी को राम लक्ष्मण के घायल होने का दृश्य दिखाना, माया अधिक है और कूटनीति कम।

 वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामचरित मानस, दोनों में, हनुमान का अपने राजा सुग्रीव के कहने पर राम लक्ष्मण के पास जाना और उनका परिचय प्राप्त करना राजनय का हिस्सा है। हनुमान बातचीत ऐसे शुरू करते हैं-

राजर्षि देव प्रतिमौ तापसो संशितव्रतौ,

देशम कथमिमं प्राप्तौ भवन्तो वर वर्णिनो।’

(आप दोनों राजर्षि सदृश, देवताओं के समान, तपस्वी व कठोर व्रतधारी हैं। हे उत्तम वर्णयुक्त, महानुभाव इस प्रदेश में किसलिए आए हैं।)

यदृच्छयेव सम्पाप्तौ चन्द्र सूर्यौ वसुन्धराम,

विशाल वक्षसौ वीरौ मानुषौ देवरूपिणौ।’

(स्वेच्छापूर्वक कहीं सूर्य और चन्द्रमा तो इस धराधाम पर नहीं उतर आए हैं? विशाल वक्षस्थलों से युक्त साधारण मनुष्य के रूप में आप दोनों कोई देवता तो नहीं हैं?)

वाल्मीकि रामायण में राम प्रथम परिचय में ही हनुमान के वाक् कौशल से प्रभावित होते हैं और प्रशंसा भी करते हैं। वे कहते हैं, लक्ष्मण, इनकी वाणी व्याकरण से संस्कारित, क्रम सम्पन्न है तथा न अधिक धीमी है और न बहुत तेज, इनकी वाणी हर्षित करने वाली और मधुर है। तब हनुमान राम, लक्ष्मण को सुग्रीव के पास ले गए जहां हनुमान ने दो लकडि़यों को मथ कर अग्नि प्रज्ज्वलित की व राम व सुग्रीव के मध्य रखा। दोनों ने उस अग्नि की परिक्रमा की और इस प्रकार सुग्रीव व राम की मैत्री हो गई।

रामचरित मानस में अंगद कहते हैं-

’पिता बधे पर मारत मोही, राखा राम निहोर न ओही।

(पुनि-पुनि अंगद कर सब याहीं), मरन भयउ कछु संसय नाहीं।।’

अर्थात्, वे (सुग्रीव) तो पिता के वध होने पर ही मुझे मार डालते, श्री राम जी ने मेरी रक्षा की, इसमें सुग्रीव का कोई एहसान नहीं है। अंगद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण हुआ, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।

रामायण में भी अंगद अपने चाचा सुग्रीव के प्रति आस्थावान नहीं है और वे मानते हैं कि सुग्रीव ने उनके पिता बाली के साथ अनेक छल किए। लेकिन रामायण में भी अंगद अपने पिता बाली का वध करने वाले श्री राम के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं और मानते हैं कि श्री राम के कारण ही उनका चाचा सुग्रीव उनका अहित नहीं कर पाया।

श्री राम ने सुग्रीव को राजा बनाने के साथ-साथ अंगद को युवराज बनाया और इस प्रकार एक राज परिवार को टूटने से बचा लिया, जिसे कूटनीति कह सकते हैं।

रामायण के अनुसार हनुमान ने जब देखा कि वानर सुग्रीव के विरुद्ध अंगद के पक्ष में एकजुट हो सुग्रीव के विरोध में जा रहे हैं तो हनुमान ने राजनय का परिचय देते हुए समझाया-

’नित्यमस्थिरचित्ता हि कपयो हरिपुंगव,

नाज्ञाप्यं विषहिष्यन्ति पुत्रदारान विना त्वया।’

(हे वानर श्रेष्ठ! इन वानरों की चित्तवृत्ति अस्थिर है। आज ये आपकी आज्ञा मानते हैं, परन्तु अपने पुत्रों और स्त्रियों से रहित होकर ये आपकी आज्ञाओं का पालन नहीं करेंगे।)

रामचरित मानस के अनुसार रावण दरबार में दूत बन कर गए अंगद द्वारा पृथ्वी पर दोनों हाथों के प्रहार से पृथ्वी कांप उठी जिससे रावण के चार मुकुट जमीन पर गिर गए। अंगद द्वारा इन मुकुटों को उठाकर राम के पास फेंक देना तथा जमीन पर पांव जमाकर उसे हटाने के लिए राक्षसों का आह्वान करना उनकी राजनयिक सूझबूझ का प्रतीक है। वाल्मीकि रामायण में इन दो करतबों की चर्चा नहीं है।

रामायण और रामचरित मानस, दोनों में रावण की मृत्यु और उसकी अन्तिम क्रिया के बाद राम, लक्ष्मण को निर्देश देते हैं कि वे सुग्रीव, अंगद, नल नील, जाम्बवान आदि को साथ ले जाकर विभीषण का राजतिलक कर आएं क्योंकि पिता की आज्ञा के कारण वे स्वयं नगर में प्रवेश नहीं कर सकते।

तुलसीकृत रामचरित मानस के अनुसार अंगद गृद्धराज सम्पाति से युद्ध टालने के लिए जानबूझकर राजनय के तहत जटायु का प्रसंग बातचीत में लाते हैं जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब वानर बैठे-बैठे परस्पर श्री राम की परिस्थितियों पर चर्चा कर रहे होते हैं तब जटायु का नाम आते ही सम्पाति विस्तार से जटायु की मृत्यु के बारे में जानना चाहता है और पूरी कथा सुनकर उन्हें सीता जी की स्थिति और लंका का मार्ग बताता है।

रामचरित मानस में हनुमान का राजनय अनेक बार दिखाई देता है और कूटनीति भी। वे सुरसा के समक्ष विशाल रूप धारण कर उसे और विशालकाय होने को प्रोत्साहित करते हैं तथा फिर स्वयं अतिसूक्ष्म रूप धारण कर उसके मुँह में घुसकर बाहर निकल आते हैं। वाल्मीकि रामायण में सुरसा के समक्ष हनुमान की इस कूटनीति की चर्चा नहीं है।

रामचरित मानस में लंका दहन से पूर्व हनुमान का विभीषण के घर जाने का प्रसंग है। इसके अनुसार विभीषण जहां उन्हें अशोक वन में सीता जी का पता बताते हैं, वहीं इस मुलाकात के आधार पर भविष्य में विभीषण, रावण-पक्ष की कमजोरियों के सूत्र भी देते हैं। वाल्मीकि रामायण में विभीषण से हनुमान की एकांत में कोई भेंट नहीं होती।

राम का हनुमान के ज़रिए सीता जी के लिए अंगूठी भेजना और सीता जी का राम को चूड़ामणि प्रेषित करना, दोनों स्नेह व्यवहार के साथ-साथ राजनय के कार्य भी हैं। इन्हीं निशानियों का हनुमान राजदूत के रूप में अपने परिचय और कार्य के प्रमाण के लिए भी उपयोग करते हैं।

रामायण और रामचरित मानस, दोनों में, कूटनीति षडयंत्र की सीमा तक जाते हुए एक प्रसंग में खुले रूप में दिखाई देती है। मंथरा कैकयी को भय दिखाती है कि किस प्रकार राम के राजा बनने से कैकयी संकट में पड़ जाएगी। वह कहती है कि राम का राज्याभिषेक भरत की अनुपस्थिति में जानबूझकर किया जा रहा है।

’पूत विदेस न सोचु तुम्हारे, जानति हहु बस नाहु हमारे।

नींद बहुत प्रिय सेज तुराई, लखहु न भूप कपट चतुराई।।’

(तुम्हारा पुत्र परदेश में है लेकिन तुम्हें कोई चिन्ता नहीं है, तुम यही समझती हो कि पति तुम्हारे वश में है। तुम्हें तो पलंग पर पड़े-पड़े नींद लेनी ही अच्छी लगती है, राजा की कपटभरी चतुराई तुम नहीं देखती।) अपनी विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए वह आगे कहती है –

’करि कुरूप विधि परबस कीन्हा, बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा।

कोउ नृप होउ हमहि का हानी, चेरि छाडि़ अब होबकि रानी।।’

(विधाता ने कुरूप बनाकर मुझे पहले ही परवश कर दिया, इसमें किसी और का भी क्या दोष, जो कभी बोया होगा वही काट रही हूँ, जो दिया वही पा रही हूँ। राजा कोई भी हो हमें क्या हानि है, दासी छोड़ मैं रानी तो होने से रही।) रामायण में भी इसी तरह का प्रसंग है।

रामचरित मानस में राजनय का हल्का आभास राम-परशुराम संवाद में भी मिलता है जब राम विनम्रता से और लक्ष्मण व्यंग से परशुराम को मानसिक रूप से थकाने का प्रयास करते हैं। लेकिन वाल्मीकि रामायण में परशुराम का आगमन तब होता है जब राजा दशरथ की अगुवाई में राम लक्ष्मण की बारात अयोध्या को चल पड़ी थी और विश्वामित्र भी विदा लेकर हिमालय को प्रस्थान कर चुके थे। वाल्मीकि के लक्ष्मण, परशुराम के आगमन पर मौन रहते हैं और बड़ों के बीच में नहीं पड़ते।

वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस, दोनों में लक्ष्मण रेखा का कोई प्रसंग नहीं है। वाल्मीकि रामायण में सीता रावण को वास्तविक साधु समझ, नारी सुलभ सरलता से उसे अपने परिवार और अपने अतीत के बारे में बताती हैं। वे कहती हैं –

’ममभर्ता महातेजा वयसा पंचविंशकः,

अष्टादश हि वर्षाणि मम जन्मनि गण्यते।’

(जब हमारा विवाह हुआ उस समय मेरे पति श्री राम की अवस्था पच्चीस वर्ष थी और मेरी अठारह वर्ष। बाद में रावण का मन्तव्य स्पष्ट होने पर वह रावण को धिक्कारती हैं। रामचरित मानस में सीता जी द्वारा रावण को सीधे दुत्कारते हुए दिखाया गया है। रामायण से स्पष्ट पता चलता है कि जो लोग सीता जी का विवाह बचपन में हुआ बताते हैं, वे बाल विवाह को सही ठहराने के लिए ऐसा करते हैं।)

दोनों ग्रंथों के अनुसार सीता जी की पवित्रता को लोगों के समक्ष सिद्ध करने के लिए राम ने सीता जी की अग्नि परीक्षा का निर्देश दिया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार वेदी तैयार कर अग्नि प्रज्ज्वलित की गई, जिस पर सीता जी बैठने ही वाली थी कि राम ने उनसे कहा, आगे कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। रामचरित मानस के अनुसार सीता जी अग्नि वेदी पर बैठीं लेकिन अग्नि ने मानव रूप में प्रकट होकर उन्हें वैसे ही राम को सौंप दिया जैसे समुद्र मंथन के समय समुद्र ने मानव रूप में प्रकट होकर लक्ष्मी जी को विष्णु जी को सौंप दिया था।

राजनय और कूटनीति से बहुत दूर एक कम जाना पहचाना लेकिन अप्रतिम दैदीप्यमान लोकहितकारी चरित्र रामायण और रामचरित मानस दोनों में है और वह है जटायु। गृद्धराज जटायु सीता जी को बचाने के लिए रावण से दुर्घर्ष युद्ध करता है और मारा जाता है। रामायण के अनुसार रावण जब सीता जी को हरण कर वेगवान रथ से ले जा रहा था, तभी गृद्धराज जटायु ने उसका रास्ता रोक लिया। उसने कहा –

’वृद्धोहं त्वं युवा धन्वी, सशरः कवची रथी,

तथा प्यादाय वैदेही, कुशली न गमिष्यसि।’

(हे रावण, मैं बूढ़ा हूं और तुम युवा हो, तुम्हारे पास धनुष-बाण है, कवच है और रथ है, फिर भी बिना युद्ध के मैं तुम्हें सकुशल नहीं जाने दूंगा। रामचरित मानस में भी इसी तरह का प्रसंग है।)

’सीते पुत्र करसि जनि त्रासा, करिहउं जातुधान कर नासा।

धावा क्रोधवंत खग कैसे, छूटइ पवि परबत कहंु जैसे।।’’

(जटायु ने कहा, हे सीते, पुत्री, भय मत कर। मैं इस राक्षस का नाश करूंगा। यह कहकर वह पक्षी क्रोध में भरकर उसी तरह रावण की तरफ दौड़ा जैसे पर्वत की ओर वज्र छूटता है।)

रामचरित मानस में जटायु एक बार रावण को घायल कर सीता जी को छुड़ाने में सफल भी हो जाता है लेकिन अंततः रावण भारी कटार से उसके पंख काट डालता है।

बाद में राम जटायु की अपने हाथों से अंत्येष्टि करते हैं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार उन्होंने वन में अपने पिता का श्राद्ध किया था। दोनों ग्रंथों में राम, सीता, भरत, लक्ष्मण, और हनुमान तो ऐसे चरित्र हैं ही जिनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती लेकिन जटायु भी एक ऐसा निस्वार्थ, साहसी चरित्र है जो इतना ऊंचा है कि वहां तक राजनय और कूटनीति नहीं पहुंच सकते।

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*देहरादून में रह रहे डॉ प्रकाश थपलियाल ईश विज्ञान के जाने-माने विद्वान हैं और उन्होंने लगभग दो दर्जन क्लासिक पुस्तकें अनुवाद की हैं या लिखी हैं। मैक्समूलर की सुप्रसिद्ध पुस्तक “India: What can it Teach us” का उनका किया अनुवाद “भारत हमें क्या सिखा सकता है” खासा चर्चित रहा है। राजकमल प्रकाशन से इनके दो कहानी संग्रह भी आ चुके हैं।

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