‘शब्दों के साथ-साथ’ – कहाँ से और कैसे आते हैं शब्द?

मनोहर चमोली ‘मनु’

हिन्दी या यूं कहें कि हिन्दुस्तानी भाषा के सार्थक उपयोग की सरल, उपयोगी, व्यावहारिक और आसानी से उपलब्ध पुस्तकें प्रायः बहुत ही कम है। हाल ही में जाने-माने भाषाविद डॉ॰ सुरेश पंत की पुस्तक ‘शब्दों के साथ-साथ : जानिए कहाँ से, कैसे आते हैं शब्द और क्या है उनका सही प्रयोग’ हिन्द पॉकेट बुक्स ने प्रकाशित की है जो इस कमी को पूरा करती है। हिन्द पॉकेट बुक्स अब पेंगुइन रैनडम हाउस का हिस्सा है।

किसी भी भाषा का प्रयोग करने में कई बार बहुत से सामान्य से लगने वाले शब्दों को लेकर भी दुविधा उत्पन्न होती है और स्वाभाविक है कि ऐसा हिन्दी में भी होता है। यह दुविधा शब्दों की उत्पत्ति, उनकी वर्तनी, उनके विविध प्रयोगों और दो समान शब्दों के विविध अर्थों को लेकर हो सकती है। ऐसी दुविधाओं और उलझनों को सुलझाने में यह पुस्तक ख़ासी मददगार हो सकती है। इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पाठक के लिए भाषा को गहराई से जानने के लिए नए द्वार खोलती है और सजग पाठकों को भाषा के विभिन्न आयामों की नई यात्रा पर जाने के लिए प्रेरित करती है। 

भाषा और शब्दों को गहराई से समझने के लिए पहले भी अनेक यशस्वी भाषाविदों जैसे भास्करानंद पाण्डे, विद्यानिवास मिश्र, रामचंद्र वर्मा, बदरीनाथ कपूर, अरविंद कुमार, श्यामसुंदर दास आदि के ग्रंथ उपलब्ध हैं किन्तु इनमें से ज़्यादातर पुस्तकें शास्त्रीय होने के कारण हिन्दी के एक सामान्य प्रयोगकर्ता के लिए बहुत उपयोगी नहीं हैं। दूसरी ओर डॉ सुरेश पंत की ‘शब्दों के साथ-साथ’ एक ऐसे आम पाठक के लिए बहुत उपयोगी है जिसे हिन्दी को प्रयोग तो करना है किन्तु जिसने हिन्दी को एक अकादमिक विषय के तौर पर उच्च स्तर तक नहीं पढ़ा है। इस संदर्भ में स्वयं लेखक ने पुस्तक की भूमिका में अत्यंत विनम्रता पूर्वक कुछ इस तरह लिखा है, “ऐसा नहीं है कि यह कोई अभूतपूर्व कार्य बन पड़ा हो। हिन्दी में ऐसे अनेक प्रयास हुए हैं। अनेक विद्वानों ने विविध माध्यमों से विशद भाषा चर्चाएं की हैं। फिर भी भाषा में, विशेषकर विकासशील भाषा में, कहने को कुछ ना कुछ सदा अवशिष्ट रह जाता है और यहीं इस पुस्तक की संकल्पना जुड़ती है।“

शब्दों के साथ-साथ के लेखक डॉ सुरेश पंत

पुस्तक में एक सौ अट्ठाईस छोटे-छोटे प्रकरण हैं जिनमें कई शब्दों के रेखाचित्र अनायास ही उभर आते हैं। यह भाषा का ही तो कमाल है जो हमें पूर्ण विराम की कथा पर सोचने और उसकी यात्रा पर ले जाने को बाध्य कर देती है। पुस्तक बहुत रोचक ढंग से शब्दों की यात्रा करती है – ऐसा लगता है मानो लेखक शब्दों के मर्म, अर्थ और विस्तार में जाने के लिए कहीं तो पाठकों के मस्तिष्क पर हौले से थाप देते हैं और कहीं-कहीं धौल भी जमाते हैं। पाठक की सुविधा के लिए लेखक ने आम जीवन में बार-बार उन शब्दों को ही अलग-अलग छोटे-छोटे अध्यायों में बांट दिया है जिनसे हमारा सामना होता है और जो शब्द हमसे हाथ मिलाते हुए आते-जाते रहते हैं। पाठक दैनंदिन प्रयोग में आने वाले शब्दों को साधारण तरीके से समझ ले, यह बात आरम्भ से लेकर अंत तक किताब के साथ निभती हुई दिखाई देती है।

किताब की एक खास बात ये है कि इसे छोटे-छोटे अध्यायों में बांटा गया है जो कहीं-कहीं तो यह एक, सवा एक, डेढ़ या अधिक हुआ तो तीन-चार पेज तक के ही बन पड़े हैं। एक भी अध्याय अलसाता नहीं। पाठक चाहे तो एक-दो बैठकी में ही पूरी किताब सरसरी तौर पर ग्राह्य कर सकता है। लेकिन फिर पुस्तक रोचक और सहज होने के बावजूद कोई कहानी नहीं है कि एक बार पढ़ी-सुनी और एक ओर रख दी। यह किताब तो बार-बार उलटने-पलटने की एक संदर्भ -पुस्तिका बन गई है जिसकी आपको हिन्दी लिखते या पढ़ते समय कभी भी ज़रूरत महसूस हो सकती है। पुस्तक ऐसे शब्द जो अजीब से,  कभी मुश्किल से, अलग से सुनाई देने वाले कर्णप्रिय शब्दों पर ठहर जाने के लिए मजबूर करती है। छोटे-छोटे प्रकरण कह लें या किताब के अध्याय कह लें, यह पढ़ने की ललक जगाते हैं और ललक को बनाए रखते हैं।

कई अध्यायों के शीर्षक ध्यान खींचते हैं, पढ़ने की रुचि बढ़ाते हैं – जैसे पिता और बाप की बात; पूज्य और पूजनीय; प्रणय, प्रणयन, परिणय, प्रणीत और परिणीत; कविराज और वैद्यराज;  काल, कालीन और तत्कालीन; कांड, घोटाला से घूस तक; कि, की और क्योंकि; कार्यवाही या कार्रवाई; खुर्द, कलाँ ,नांगल, डीह, माजरा;  न, ना, नहीं और मत इत्यादि पुस्तक में बाक़ायदा अध्याय हैं। इसी तरह आंदोलन और संघर्ष; आदेश और आज्ञा; अगला, आगामी और अग्रिम; अब और अभी;  अर्थ, आशय, अभिप्राय, तात्पर्य और भावार्थ और कल की काल यात्रा जैसे अध्याय पाठकों का शब्द भंडार बढ़ाते हैं। फिर पुस्तक के अंत में  कुछ  अध्याय आम पाठक के भाषा ज्ञान को समृद्ध करने में विशेष सहायक हो सकते हैं जैसे  ‘कुछ व्यंजनों के भाषा स्वाद’, ‘हिन्दी के टैबू (वर्जित) शब्द’ और ‘कथा पूर्ण-विराम की’।  डॉ॰ सुरेश पंत बदलते समय की मांग जानते हैं। किताब को और प्रासंगिक तथा सार्वभौमिक बनाने का उन्होंने अच्छा प्रयास किया है और संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया है।

पुस्तक रोज़मर्रा लिखित भाषा प्रयोग करने वाले अध्यापकों, छात्रों, शोधार्थियों के साथ-साथ पत्रकारों, संपादकों  और ऑनलाइन ब्लॉग इत्यादि लिखने वालों के लिए अत्यंत उपयोगी है। मुझे यह पुस्तक उन कूढ़मग़जों-कूपमण्डूकों के लिए भी बेहद उपयोगी लग रही है जो हिंदी भाषा का झण्डा उठाए फिरते हैं और आए दिन ‘हिन्दी-हिन्दू’ की रट लगाए रहते हैं। ऐसे ‘अपाठकों’ को बतौर उपहार यह पुस्तक ज़रूर दी जानी चाहिए। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवाओं को यह किताब आद्योपांत एक बार पढ़ने से अधिक बार-बार उलटने-पलटने-टटोलने और रेखांकित करनी ही चाहिए। मुझे यह किताब इसी क्रम में जुड़ती हुई दिखाई देती है।

पुस्तक: शब्दों के साथ-साथ

लेखक: डॉ॰ सुरेश पंत

प्रकाशक: हिन्द पाकेट बुक्स (पेंगुइन रैनडम हाउस इम्प्रिंट)

पेज: 286

मूल्य: 250 रुपए (ऑनलाइन 191 रुपए में उपलब्ध)

पुस्तक ऑनलाइन मंगाने के लिए यहाँ क्लिक करें

समीक्षक मनोहर चमोली ‘मनु’ पेशे से शिक्षक हैं और शिक्षा के सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध हैं।  दस साल पत्रकारिता भी की है और रेडियो एवं प्रिंट मीडिया से जुड़े रहे हैं। पूर्व में ज्ञान विज्ञान बुलेटिन और गंग ज्योति पत्रिकाओं का संपादन भी किया है। बाल साहित्य के लिए कहानी लिखते हैं। कहानियों के अलावा कविता, व्यंग्य, संस्मरण और लेख भी लिखते हैं। कई रचनाएं अठारह से अधिक भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। विभिन्न पाठ्यपुस्तकों में रचनाएं सम्मिलित हैं। वर्तमान में उत्तराखण्ड के पौड़ी गढ़वाल में रहते हैं। सम्पर्क: 7579111144 मेल: chamoli123456789@raagdelhiadmin

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

2 COMMENTS

  1. आपने अच्छी समीक्षा लिखी किंतु एक किताब से पूर्णतया अपरिचित सर्वथा नए पाठक के लिए कुछ उदाहरण किताब से उद्धृत किए होते तो बेहतर होता ।
    इस समीक्षा को किताब पढ़ा हुआ पाठक ही उसे बेहतर समझ सकता है ।

  2. सोशल मीडिया पर आरोप लगाया गया है कि इस किताब की सामग्री किसी अन्य लेखक के ब्लॉग से चुराई गई है।

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