लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में विश्वास बनाए रखने की महती ज़िम्मेवारी चुनाव आयोग की

चुनाव आयोग द्वारा आज की गई कार्यवाही का (प्रधानमंत्री मोदी पर बनी फिल्म की रिलीज़ चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक रोकना) ना केवल सांकेतिक महत्व है बल्कि अब जब लोगों को लगने लगा था कि चुनाव आयोग ने तो सरकार के सामने बिलकुल आत्म-समर्पण कर दिया है, उस धारणा को थोड़ा विराम मिलेगा।

आज की बात

चुनाव आयोग ने आज आखिरकार अपनी खोई इज्ज़त का कुछ हिस्सा बचा लिया। यह लिखे जाने के कुछ घंटे ही पहले आयोग ने अपने एक आदेश से प्रधानमंत्री मोदी पर बनी फिल्म “पी एम नरेंद्र मोदी” की रिलीज़ लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया पूरी होने तक रोक दी है। आयोग ने अपने आदेश में कहा है कि यदि इस समय फिल्म रिलीज़ की गई तो इससे संविधान के अनुच्छेद 324 का उल्लंघन होता है जिसके अनुसार चुनाव आयोग का ये कर्तव्य है कि वो चुनावों के दौरान सभी प्रत्याशियों के लिए ‘लेवल-प्लेईंग फील्ड’ (सबके लिए समान परिस्थितियाँ) सुनिश्चित करे और इसके  चलते ऐसी फिल्म का प्रदर्शन उचित नहीं होगा।

इस निर्णय के आधिकारिक तौर पर जारी होने के साथ-साथ सूत्रों के माध्यम से ये भी खबर आ रही है कि आयोग ने नमो टीवी पर भी प्रतिबंध लगाने जा रहा है। उम्मीद करनी चाहिए कि इस पर भी जल्दी ही आधिकारिक सूचना आ जाएगी क्योंकि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने जिस प्रकार इस पूरे मामले से हाथ धोये, वह किसी भी प्रकार से न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता।

आयोग के इस आदेश से संबंधित अन्य विवरण आप अन्यत्र पढ़ ही रहे होंगे। इस स्तम्भ के माध्यम से हमारा उद्देश्य ये रेखांकित करना है कि चुनाव आयोग ने अपने इस निर्णय से ये उम्मीद जगाई है कि संवैधानिक संस्थाओं में अभी तक भी क्षरण इतना नहीं हुआ कि कोई सरकार आयोग को एक सीमा से ज़्यादा दुरुपयोग कर सके। ऐसी संस्थाओं को मोदी सरकार ने जैसे नियंत्रित करने का प्रयास किया है (और उसमें काफी सफलता भी पाई है) उसका पहले कोई उदाहरण आपातकाल के उन्नीस महीनों के अलावा ढूँढना मुश्किल होगा। संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग के प्रयास पहले की सरकारों ने भी किए होंगे लेकिन चूंकि स्वतन्त्रता के बाद पंडित नेहरू ने देश में लोकतन्त्र को मजबूत करने के लिए ऐसी संस्थाओं को जो मजबूती दी, उसके चलते बीच-बीच में कुछ सरकारों द्वारा इन संस्थाओं के दुरुपयोग के कुत्सित प्रयासों के बावजूद कुछ ना कुछ बचा रहा जाता है।

इस स्तंभकार को लगता है कि जब ऐसा कुछ परिदृश्य बनता है जिसमें संवैधानिक संस्थाएं दोनों तरह से काम करती लग रही हों (अर्थात आमतौर पर सरकार के साथ लेकिन कभी-कभार सरकार के विरुद्ध भी) तो ये भी एक किस्म की आंशिक सकारात्मक बात ही माननी चाहिए। चुनाव आयोग ने पिछले दिनों जो कमजोरी दिखाई, उसकी चहुं ओर आलोचना हो रही थी – आलोचना के विषय कहीं चले नहीं गए और एक के बाद एक ऐसे कई अवसर आए जब लोग चुनाव आयोग का मुंह ताकते रह गए लेकिन आयोग की तरफ से या तो चुप्पी रही और या बहुत ही धीमी आवाज़ में हल्की सी आलोचना।

चुनाव आयोग का ये रवैया देखकर ही बड़ी संख्या में पदमुक्त हो चुके सरकारी अधिकारियों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर चिंता जताई कि चुनाव आयोग निष्पक्षता पूर्वक काम नहीं कर रहा और उसके इस रवैये से आयोग की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। आयोग द्वारा जिन मामलों की अनदेखी की गई उनकी सूची लंबी है लेकिन रेकॉर्ड के लिए ऐसे मामलों की चर्चा हम यहाँ कर लेते हैं ताकि सनद रहे।

सबसे पहले तो ऐसे मामलों को गिन लें जिनमें विरोधी दलों द्वारा स्वयं प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आदर्श आचार संहिता (या मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट) के उल्लंघन के आरोप लगाए गए हैं। प्रधानमंत्री पर लगे आरोपों को हम तीन हिस्सों में बाँट सकते हैं। सबसे पहले तो आचार संहिता के उल्लंघन के साधारण मामले जैसे उपग्रह को नष्ट करने वाली मिसाइल की क्षमता विकसित करने के समय राष्ट्रीय प्रसारण जिसमें चुनाव आयोग ने दूरदर्शन का ये जवाब मान लिया कि उसने एएनआई एजेंसी से मिली फीड इस्तेमाल की है। दूसरे हिस्से में इससे कहीं ज़्यादा गंभीर मामले आते हैं जो प्रधानमंत्री के खिलाफ विरोधी दल उठा रहे हैं, वह है उनके भाषणों में धर्म का इस्तेमाल – जैसे उन्होंने राहुल गांधी के वायनाड से चुनाव लड़ने के निर्णय के तुरंत बाद वर्धा में एक भाषण देते हुए वहाँ हिन्दू मतदाताओं के कम संख्या में होने की बात की।

प्रधानमंत्री द्वारा सांप्रदायिक आधार पर मतदाताओं की बात करना तो आपत्तिजनक माना ही जा रहा है, इसके अतिरिक्त वह जिस तरह से पुलवामा के शहीदों का और भारत द्वारा पाकिस्तान के विरुद्ध सेना द्वारा की गई विभिन्न कार्यवाहियों का श्रेय लेते हुए वोट मांगते हैं, उसे लेकर भी विरोधी दलों के साथ प्रबुद्धजनों को भी चिंता है। मज़े की बात ये है कि चुनाव आयोग ने इस विषय में एक ‘एड्वाइज़री’ या दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं कि कोई भी राजनीतिक दल सेनाओं के नाम का दुरुपयोग ना करे। इन स्पष्ट दिशा-निर्देशों के बावजूद स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा सेना और पुलवामाँ के नाम पर वोट मांगना आश्चर्यजनक है। लेकिन अफसोस की बात है कि प्रधानमंत्री के ऐसे भाषणों पर चुनाव आयोग ने अभी तक उनका नाम लेकर कोई कार्यवाही तो दूर की बात है, कोई टिपन्नी तक नहीं की है।

प्रधानमंत्री के भाषणों के अलावा जिन मामलों पर चुनाव आयोग ने कडा रुख नहीं अपनाया उनमें से प्रमुख हैं, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा भारतीय सेना को ‘मोदी जी की सेना’ बताना, राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह द्वारा संवैधानिक पद पर होते हुए भी मोदी जी के नेतृत्व में आस्था व्यक्त करना और हाल ही में कांग्रेस एवं अन्य विरोधी दलों के विरुद्ध आयकर विभाग द्वारा छापे डालना इत्यादि। इन सभी मामलों में चुनाव आयोग ने हल्की-फुल्की लेकिन अप्रभावी किस्म की कार्यवाहियाँ की हैं।

इसलिए चुनाव आयोग द्वारा आज की गई कार्यवाही का (प्रधानमंत्री मोदी पर बनी फिल्म की रिलीज़ चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक रोकना) ना केवल सांकेतिक महत्व है बल्कि अब जब लोगों को लगने लगा था कि चुनाव आयोग ने तो सरकार के सामने बिलकुल आत्म-समर्पण कर दिया है, उस धारणा को थोड़ा विराम मिलेगा। चुनाव आयोग में नियुक्त अधिकारियों पर देश में लोकतन्त्र में आमजन की आस्था और विश्वास बनाए रखने की महती ज़िम्मेवारी है और उन्हें भरसक प्रयास करना चाहिए कि जनता का विश्वास ना टूटे। इसके लिए उन्हें ना केवल सब राजनीतिक दलों के लिए ‘लेवल-प्लेईंग फील्ड’ (सबके लिए समान परिस्थितियाँ) सुनिश्चित करना चाहिए बल्कि ऐसा करते हुए दिखना भी चाहिए।

……विद्या भूषण अरोरा

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