जागें जथा सपन भ्रम जाई

डॉ मधु कपूर*

पिछले कुछ समय से इस वेब-पत्रिका में हम विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतों पर डॉ मधु कपूर के लेख प्रकाशित कर रहे हैं जिनमें वह दर्शन या फिलोसॉफी की गूढ़ गुत्थियों को हमारे लिए सुलझाती हैं। दार्शनिक लेखों की शृंखला में यह उनका आठवाँ लेख है। उनके पूर्व के सात लेखों की सूची (लिंक सहित) हम इस लेख के नीचे दे रहे हैं। पिछली बार उन्होंने हमें ‘सत्य और तथ्य’ का दार्शनिक परिप्रेक्ष्य समझाया था। इस बार बात सत्य और तथ्य से आगे निकल गई है। इस बार का दार्शनिक सिद्धांत ये है कि जो सत्य दिख रहा है, वास्तव में वो भी सत्य नहीं है और जो मिथ्या है सो तो मिथ्या है ही! अभी भूमिका में आपको कुछ गड़बड़-झाला लग रहा है तो चिंता ना करें, लेख पढ़ने से मामला समझ आ जाएगा। हमें तो अज्ञेय के काव्य-संग्रह “कितनी नावों में कितनी बार” में से कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं और लगा कि शायद उन्होंने भी दर्शनशास्त्र के इस विषय को गहराई से पढ़ा होगा। यह पंक्तियाँ थीं – “यह एक और घर पीछे छूट गया, एक और भ्रम जो जब तक था, मीठा था टूट गया। यों घर—जो पीछे छूटा था— वह दूर पार फिर बनता है; यों भ्रम—यों सपना—यों चित्-सत्य, लीक-लीक पथ के डोरों से नया जाल फिर तनता है…।” आशा करते हैं कि सत्य की खोज में संलग्न हमारे पाठकों के लिए शृंखला का यह लेख भी उपयोगी होगा।

एक उपाख्यान से अपनी बात शुरू करूँगी, “महाराज जनक ने स्वप्न देखा, वे एक भिखारी के वेश में भोजन के लिए भटक रहे है. भोजन मिलने पर जैसे ही उन्होंने टुकड़ा उठाया कि एक सांड ने उसे रौंद दिया. भूख से उनके प्राण निकलने लगे. नींद टूटने पर उन्होंने खुद को अपने महल में पाया. वे अब स्वप्न वाले भिखारी नहीं थे. वे स्वयं से बार-बार प्रश्न पूछ रहे थे कि सत्य क्या है― भिखारी जनक या राजा जनक? ऋषि अष्टावक्र के आने पर जनक ने यही प्रश्न उनके सामने भी दोहराया. अष्टावक्र ने दो टूक जवाब दिया,’राजन्! न यह सत्य है, न वह सत्य था. जिस तरह जागने पर स्वप्न काल का भिखारी गायब हो गया, उसी प्रकार तत्वज्ञान होने पर यह राजा भी मिथ्या  हो जायेगा”.

हमारी बोलचाल की भाषा में ‘मिथ्या’ शब्द अयथार्थ ज्ञान, विपरीत, गलत, झूठ, पाखंड, दिखावटी आचरण विभिन्न अर्थों में व्यवहृत होता है, जिसका  अर्थ होता है जो जहाँ नहीं है, वहां उसका अनुभव करना, जो जैसा नहीं है, उसका वैसा होना. जैसे ‘घड़े’ को वस्त्र के रूप में देखना, सीपी को चांदी समझना इत्यादि. अयथार्थ ज्ञान मूलतः तीन प्रकार के कहे जाते है, – संशय, विपर्यय और तर्क. एक धर्म से विशिष्ट पदार्थ में जब दो विरुद्ध धर्मों का आरोप एक साथ होता है, तब वह संशय कहलाता है. जैसे सामने खड़ी हुई वस्तु ठूँठ है या पुरुष? रस्सी में सांप का ज्ञान विपर्यय ज्ञान कहा जाता है. तर्क ज्ञान सत्य न होने पर भी सत्य ज्ञान का सहायक माना जाता है.

लेकिन मिथ्या ज्ञान उपरोक्त तीनों से पृथक है. आचार्य शंकर मिथ्या ज्ञान को एक विशिष्ट अर्थ में प्रयोग करते है, जिसमें ‘अस्तित्व का पूर्ण निषेध’ और ‘अनस्तित्व का पूर्ण निषेध’ समान रूप से किया जाता है. उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति रस्सी देखकर सोचता है कि यह सांप है. बाद में उसे पता चलता है कि यह तो एक रस्सी है, ‘यहाँ कभी साँप था ही नहीं’, तो साँप मिथ्या हो जाता है. लेकिन उसे जो सांप का अनुभव हुआ था, डर कर भागा था और चिल्लाया था, उसे झूठा नहीं कहा जा सकता है, पर इस अनुभव को वास्तविक भी तो नहीं कह सकते है. वह क्या है जो हमारे बोध का विषय बना था. इसी तरह एक भिन्न प्रकार का भी उदाहरण देकर मिथ्यात्व को स्पष्ट किया जा सकता है. यूँ तो कपड़े का अस्तित्व धागों में स्वीकृत है, किन्तु धागा ही वस्त्र नहीं कहा जा सकता हैं, क्योंकि धागों की बुनाबट को वस्त्र कहा जाता है. धागों में वस्त्र है भी और नहीं भी है, अतएव वस्त्र मिथ्या है. इस तरह मिथ्याज्ञान  अनुभव की वस्तु भी है, तथा अनुभव का निषेध भी है.

आचार्य शंकर ने संसार को मिथ्या कहा है, पर आकाश कुसुम की तरह अलीक नहीं कहा है, क्योंकि हम सभी इसे स्पष्ट रूप से देखते और अनुभव करते हैं. मिथ्या का अर्थ है “सत्यानृते मिथुनीकृत्य” अर्थात सत्य और असत्य दोनों का मिथुनीकरण, जिससे हमारा लोक व्यवहार चलता है! केवल सत्य या केवल असत्य के सहारे इस संसार में नहीं चला जा सकता! दोनों के सम्मिश्रण को मिथ्या नाम दिया गया है, जो है भी और नहीं भी है, अर्थात एक विलक्षण अनुभूति. यह स्थिति पूर्ण सत्य और ख़रगोश के सींग की तरह पूर्ण असत्य के बीच का पथ है. रस्सी में साँप जरूर दिखाई देता है, पर रस्सी में सांप है ही नहीं. जो सांप मैंने देखा वह बाद में बाधित भी हो गया.  इसी सत्य और असत्य के तनाव के कारण मिथ्या को अनिर्वचनीय (वर्णनातीत) कहा जाता है. जैसे अंगूठी इत्यादि आभूषणों में सुवर्ण, मिट्टी के बने बर्तनों में मिट्टी तथा लोहे की बनी वस्तुओं में लोहे की उपस्थिति सत्य हैं, उसी प्रकार अनित्य और क्षणभंगुर जगत के पीछे विशुद्ध चेतना ही पारमार्थिक सत्य हैं.

सपनों की दुनिया, सपने देखने वालों के लिए वास्तव है, सपने देखने वाले की प्यास सपने में बुझ जाती है. जागने वाली दुनिया जागने वालों के लिए वास्तव है. दोनों ही दुनिया ‘अपेक्षाकृत वास्तविक’ हैं लेकिन कोई भी ‘पूरी तरह से वास्तविक’ नहीं है, क्योंकि स्वप्न भंग होने के बाद स्वप्न की दुनिया ख़ारिज हो जाती. जिसे हम तथा-कथित ‘जागने वालों की दुनिया’ कहते है वह भी ख़ारिज हो जाती, जब हम एक सोपान ऊपर उठाते हैं.

अभिनवगुप्त के अनुसार ‘चित्रतुरग न्याय’ से चित्र में प्रदर्शित अश्व की प्रतीति एक तरफ सत्य होती है, दूसरी तरफ असत्य भी होती है, क्योंकि  बच्चा चित्र देख कर ही सीखता है कि ‘इस पशु का नाम अश्व है’. वह यह भी समझता है कि यह अश्व वास्तव नहीं है. ‘चित्रतुरग’ की  प्रतीति न सत्य होती है, ना असत्य, अंतत इसे एक विलक्षण अनुभूति कहा जा सकता है. उनके अनुसार जब कोई पात्र राम का अभिनय करता है, तो प्रेक्षक जानते है कि यह वास्तव में राम नहीं है, इसके बावजूद प्रेक्षक उसे राम समझ कर उसकी भावनाओं से द्रवीभूत होकर उसमे देवत्व का आरोप करते है. यह अनुभव भी अनिर्वचनीय या वर्णनातीत ही होता है. 

इस मिथ्या ज्ञान का एक विकल्प है, जहाँ मिथ्या ज्ञान को भी सत्य माना जाता है. मात्र विशुद्ध सत्य को लेकर इस संसार-सागर को पार करना दुर्लभ कार्य है. जैसे कोई यदि यह सोचे कि वह विशुद्ध स्वर्णाभूषण ही पहनेगा तो यह असंभव कार्य होगा. स्वर्ण में अन्य धातु की मिलावट किये बिना गहने नहीं गढ़े जा सकते है, उसी तरह बिना सत्य-असत्य का सम्मिश्रण किये लोक व्यवहार भी नहीं चल सकता है. प्रत्यभिज्ञा दर्शन (शैव दर्शन) न तो किसी वस्तु को मिथ्या मानता है और न ही क्षणिक.  इसकी दृष्टि में सत्ता ही वस्तु की नियामक है. अर्थात यदि वस्तु है तो उसकी सत्ता अवश्य होगी और यदि उसकी सत्ता नहीं है, तो वह वस्तु ही नहीं है.

जिस तरह लोक जगत में कोई चित्रकार कैनवास पर तूलिका और रंग की सहायता से चित्र बनाता है, उसी तरह इस जगत् का चित्रकार भी स्वयं ही कैनवास तूलिका, रंग इत्यादि बन कर जगत का निर्माण करता है, दोनों की ही सत्ता हैं. लौकिक कलाकार अलौकिक कलाकार का प्रतिबिम्ब स्वरूप है. इनका मानना है कि परम तत्व वह प्रकाश है जिसे अपने प्रकाश का विमर्श भी होता है. यानि उसे अपने चित् का ‘विमर्श’ “मैं हूँ” ऐसा आत्मज्ञान होता है. वैसे यदि देखा जाय तो मणि भी स्वयंप्रकाश होती है, किंतु उसे अपने प्रकाश का ज्ञान नही होता है.

इस तरह क्रमशः जितनी ज्यादा सूक्ष्म बुद्धि बढती है उतनी ज्यादा अनिश्चयता बढती है. बुद्धि जितना देखती है, उतना ही अनुभव करती है कि उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है. प्रश्न है कि यदि सब सो रहे हैं, तो यह कहने के लिए अथवा देखने वाले को तो जगा हुआ होना चाहिए न? सब मिथ्या है, यह कह पाने के लिए कहीं-न-कहीं तो सत्य देखने वाला होना चाहिए न? इसी से जुड़े सन्दर्भ में फ्रेंच दार्शनिक René Descartes का कथन भी विचारने योग्य है कि “दुनिया की सभी वस्तुओं को हम संदेह की दृष्टि से देख सकते है, पर यह जो देखने वाला है (स्वयं) उस पर कैसे संदेह कर सकते है”?  

जितनी गहराई से हम जानने लगते है कि अँधेरा घना हो रहा है उतना ही यह स्पष्ट होता जाता है कि हम प्रकाश के नजदीक पहुँच रहे है. अगर इतना भी हम देखने लग जाए तो इसका अर्थ  है कि हमने अनिर्वचनीय (वर्णनातीत) को महसूस करना सीख लिया.

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इस वेब पत्रिका में प्रकाशित डॉ मधु कपूर के अन्य लेखों को आप इन लिंक्स पर जाकर देख सकते हैं:

  1. मैं कहता आंखिन देखी
  2. कालः पचतीति वार्ता
  3. रस गगन गुफा में
  4. अस्ति-अस्तित्व का झिंझोड़
  5. नास्ति की खुन्नस
  6. काल की चपेट  
  7. द्विमुखी सत्य की संकल्पना

*डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, “दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।“ डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुई है।

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3 COMMENTS

  1. सत्य और मिथ्या की यह अकथकथा वाकई ‘अनिर्वचनीय’ है। ये प्रसंग भले ही किसी निश्चयात्मकता तक न ले जाएं, लेकिन मन को वह उदात्तता देते हैं जो हमे बेहतर मनुष्य बनाती है। उम्मीद है, लेखिका से आगे स्यादवाद , शून्यवाद और agnosticism पर भी ऐसा कुछ मिलेगा कि हमारा आधा-अधूरा-पुराना पढ़ा फिर से ‘रिफ्रेश’हो जाए और हमें भी ‘रिफ्रेश’कर दे।

    दर्शन को इतना रोचक बनाने के लिए बधाई।

  2. दर्शन में निश्चयात्मकता है ही नहीं , उलटे निश्चयात्मकता के भ्रम को तोडना ही इसकी दृष्टि है. आप कैसे पाठक यदि मिल जाये तो जरुर लिखूंगी.
    धन्यवाद के अलावा और क्या कह सकती हूँ.
    सादर नमस्कार

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