मैं कहता आंखिन देखी

डॉ मधु कपूर*

हमें दर्शनशास्त्र की अध्येता एवं प्रोफेसर डॉ मधु कपूर का यह लेख प्राप्त हुआ है जिसमें उन्होंने एक दार्शनिक सिद्धांत को बहुत रुचिकर ढंग से समझाया है। यह लेख काफी सहज ढंग से यह प्रतिपादित करता है कि लकीर का फकीर बनकर आप कभी सही नतीजों तक नहीं पहुँच सकते बल्कि आपको अपनी उत्सुकता और जिज्ञासा सदैव बनाए रखनी चाहिए। कोई भी स्थापित सत्य अंतिम सत्य हो, यह आवश्यक नहीं – इसलिए अपनी सत्य-अन्वेषण की प्रक्रिया को कभी विराम ना दें। लेख सचेत करता है कि कैसे आपकी आँखें और आपका दिमाग आपको धोखा दे सकता है बल्कि लंबे समय तक आपको पता ही नहीं चलता कि आप जो ‘देख’ रहे हैं वह असलियत में नहीं देख पा रहे हैं। चलिए, हम आपकी और लेखक के बीच से हटते हैं और फिर यह भी देखने वाली बात होगी कि आप इस लेख को कैसे देखते हैं।

कबीर का यह प्रसिद्ध वाक्यांश “मैं कहता हौं आँखिन देखी”  इस बात की पुष्टि करता हैं कि  उधार के ज्ञान पर निर्भर रहने के बजाय जीवन की प्रत्यक्ष, अनुभवात्मक समझ ही वैधता का तमगा पाती है। न्यायालय में तो साक्षी यानि प्रत्यक्षदर्शी की बात ही सबसे विश्वसनीय गवाही मानी जाती है। प्रत्यक्ष अर्थात इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त ज्ञान पर इन्द्रियां यदि धोखा दें, तो आँखों पर विश्वास कैसे किया जाय? प्रसिद्ध  दार्शनिक देकार्त कहते हैं जो एक बार धोखा दे उसका विश्वास नहीं करना चाहिए तो फिर इन्द्रियों का विश्वास कैसे किया जाय?

इसके सम्बन्ध में प्रसिद्ध न्यायाधीश Samuel Leibowitz कहते हैं कि साक्षी यानि प्रत्यक्षदर्शी विश्वसनीय नहीं होते हैं। वह उदाहरण देते हैं कि किसी एक क्लब डिनर में उन्होंने उस समय की विख्यात सिगरेट ब्रांड Camel का नाम लेकर लोगों से पूछा कि कितने लोग यह सिगरेट पीते हैं। उनमें से उन्होंने पांच लोगों को चुना और एक टोस्ट मास्टर से पूछा – दिन में वह कितनी सिगरेट पीता है, और कितने साल से पी रहा है? टोस्ट मास्टर ने जवाब दिया ― दो पैकेट दिन में, बीस साल से। उन्होंने हिसाब लगा कर बताया कि पिछले २० साल में १४,००० हज़ार पैकेट! और कम से कम पचास हज़ार बार उसने  अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला होगा।  उन्होंने पांचों व्यक्तियों को एक कागज के टुकड़े पर लिखने को कहा कि सिगरेट के पैकेट पर ऊंट की पीठ पर आदमी सवार है अथवा  आदमी ऊंट को लगाम पकड़ कर ले जा रहा है।  दो ने लिखा कि आदमी ऊंट को ले जा रहा है और दूसरे दो ने लिखा आदमी ऊंट पर सवार है। केवल एक ने लिखा कि उसमे कोई आदमी नहीं है।  उन्होंने पुनः कहा आप अपने पॉकेट से पैकेट निकाल  के देखे।  उसमे कोई आदमी नहीं था।  इस तरह उन्होंने “क्या देखा और क्या समझा”  (‘seeing and perceiving’) की  करामाती दुनिया को अनावृत्त  किया। पर इस चर्चा में दर्शन एक कदम और आगे जाता  है।  दर्शन हमें बताता है कि वास्तव में हम पूरी वस्तु कभी देखते ही नहीं।  हम एक हिस्सा मात्र  देखते हैं और पूरा विश्वास कर लेते हैं, या अनुमान कर लेते हैं ।  

सर्दी का मौसम, सुबह का समय, चारो तरफ कोहरा –आपने खिड़की से झांक कर देखा नीचे कोट पहना और टोपी लगाये कोई व्यक्ति जा रहा है। आपने अनुमान लगा लिया कि मेरा पडोसी हरिराम जा रहा है ।  पर आपने देखा था सिर्फ कोट और टोपी।  दोपहर में हरिराम से मुलाकात होने पर आपने कहा , ‘आप सुबह सुबह कहाँ जा रहे थे?’हरिराम जी ने कह दिया कि मैं तो आज पहली बार निकल रहा हूँ, सुबह किसको देख लिया आपने!

अब देखें यह टेबल मेरी आँख के सामने रखी है जहाँ  बैठ कर मैं काम कर रही हूँ।  मान लीजिये हम सभी इसे खुली आँखों से देख रहे हैं।  ज़रा ठहरो दोस्तो…… क्या हम टेबल सचमुच देख रहे है? हाँ, हाँ, बिलकुल देख रहे है? इसके चार पैर है, ऊपर एक काठ का तख्ता लगा है, जो  सामान, किताबें और कम्प्यूटर आदि  रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।  मुझे लगता है― आपको कुछ गलतफहमी हो गई।  मुझे कतई नहीं मालूम कि यह तथाकथित-टेबल क्या है? मैंने तो टेबल का सिर्फ एक पैर …या सामने वाला थोडा सा हिस्सा …या फिर ऊपर की सतह देखी है।  आपने क्या पूरी टेबल देख ली? ईमानदारी से यदि जवाब दें तो आपने सिर्फ एक हिस्सा देखा है। बाई तरफ से एक हिस्सा देखा…दाहिनी तरफ से दूसरा हिस्सा देखा लेकिन पूरी की पूरी टेबल देखना आपके के लिए असंभव है।  पुनः सोचें ― आपने टेबल नहीं सिर्फ एक हिस्सा देखा है।  किताब के कुछ पन्ने पढ़ कर क्या आप कह सकते हैं कि आपने पूरी किताब पढ़ ली? नहीं न? तो टेबल का एक हिस्सा देख कर कैसे कह सकते हैं कि यह सम्पूर्ण टेबल है? आपने जो देखा वह  काठ का टुकड़ा मात्र है।  मैं तो जानना चाहती हूँ कि यह टेबल आखिर क्या बला है! मान भी लें कि आपने अलग अलग हिस्सों को अलग अलग समय में देख लिया पर उन्हें जोड़ने का काम आपने कब और कैसे किया?

चलिए, मान लिया कि यह काठ का कोना टेबल है, तो  फिर प्रश्न उठता है कि जैसी आप देख रहे हैं क्या वैसी ही मैं देख रही हूँ? या आपके बगल में बैठा दोस्त भी क्या वैसा ही देख रहा है ― जैसा हम और आप देख रहे हैं?  नहीं, क्योंकि हमारी आँखें अलग अलग है।  क्या आप मुझे अपनी आँखे उधार दे सकते हैं? मैं भी देखना चाहती हूँ कि आपको कैसा दिखाई देता है।  बातों बातों में हम भी कहते कि ‘जरा मेरी आँखों से देखो तब बात समझ में आयेंगी’ पर वास्तव में वैसा होता नहीं है।  हम अपनी आँखें नहीं बदल सकते हैं किसी से।  इसके अलावा  हमारा स्थान, हमारी आँखें और  रोशनी बिलकुल अलग है, तो हम एक जैसा कैसे देख सकते हैं? उदाहरण के लिए जब आप आडिटोरियम में बैठ कर किसी जलसे का आनंद लेना चाहते हैं तो आप सामने क्यूँ बैठना चाहते हैं, क्योंकि वहां से साफ दिखता है।  सामने वाले ज्यादा स्पष्ट और पीछे वाले कम स्पष्ट।  

चलिए फिर मान लेते हैं कि हम सबने टेबल देखी―किसी ने स्पष्ट और किसी ने अस्पष्ट।  पर अब आप ज़रा अणुवीक्षण यंत्र की सहायता से देखे, क्या यह वही टेबल हैं? जी नहीं, यहाँ तो अणु-परमाणुओं का  समूह दिखाई दे रहा हैं, जो बराबर नृत्यरत है।  किन्तु यह टेबल तो एक ही जगह स्थिर है यह तो नृत्यरत नहीं है। आपने ठीक कहा, थोड़ा थोड़ा संदेह मुझे भी होने लगा है कि शायद हम ठीक नहीं देख रहे हैं।  वास्तव में टेबल गतिशील है जबकि हम नंगी आँखों से देखने पर वह वैसी दिखाई नहीं देती है।  शक्तिशाली अणुवीक्षण यंत्र की सहायता से तो काठ की सतह सपाट न होकर पहाड़ो की तरह उबड़खाबड़ हो जाती है।   आप तो अचम्भे में पड गए! क्या यह वही सपाट सतह वाली मसृण टेबल है?  बिलकुल, वही है पर उसकी दास्तान बदल गई है।  आपने आँखों से जो भी देखा सब झूठ था? अणुवीक्षण यंत्र जो कह रहा है वही सच है क्या? शायद भविष्य में इससे भी ज्यादा शक्तिशाली कोई वैज्ञानिक यंत्र का अविष्कार हो जाये तो हम और भी बहुत कुछ देख पायेंगे जो अभी नहीं देख सकते हैं।  लेकिन फिर सच का निर्णय करना कठिन हो जाता है।  यह अजीबोगरीब सवाल है, पर हम तो सच जानना चाहते हैं।  आये दिन खबरों में सुनने को मिलता हैं –अमुक अमुक खबर के पीछे का सच क्या है? जो हमने देखा, या जो आपने देखा, या जो अनुसन्धानकर्ता ने देखा अणुवीक्षण यंत्र की मदद से।  सच नहीं जान पायेंगे …किसने सच देखा और क्या देखा? हमने जो देखा वह कामचलाऊ कह  सकते हैं।    

आकाश के तारों को देखने के लिए  हम अणुवीक्षण यंत्र का सहारा लेते है।  मरने के बाद भी तारे अपनी  रोशनी हम तक पहुँचा जाते है।  क्योंकि उनकी रोशनी पृथ्वी पर पहुँचने से पहले ही अपने कक्ष से निकल चुकी होती है।  कितने आश्चर्य की बात है। क्या हमने कभी मृत व्यक्ति की श्वासें अपने तक पहुँचते देखी है? अरे ज्यादा दूर न जाएँ, पृथ्वी घूमती है चौबीस घंटे पर हम स्थिर रहते हैं।  हमें एहसास ही नहीं होता कि हम बराबर हिल रहे हैं।   

ऐतरेय ब्राह्मण ३.४४ के सन्दर्भ से यदि कहूँ तो ―

स वा एष (आदित्यः) न कदाचनास्तमेति नोदेति , तं यदस्तमेतिति मन्यन्तेऽहन एव तदन्तमित्वाऽथ  यदेनं प्रातरुदेतीति मन्यन्ते  रात्रेरेव तदन्तमित्वा ।  स वा एष न कदाचन्न निम्नोचित ।  

(यद्यपि ‘सूर्य उदित होता है और अस्त होता है’ ― ये कहना  वैज्ञानिक दृष्टि से असंगत है, परन्तु व्यवहारिक दृष्टि से ऐसा प्रयोग किया जाता हैं।   वास्तव में  सूर्य न अस्त होता है, न उदित होता है।) मैं तो किसी सिद्धांत पर आ नहीं पा रही हूँ।  वस्तुतः हम विश्वास करते हैं कि ‘यह् टेबल हैं’, ‘सूर्य अस्त होता है’, ‘सूर्य उदित होता है’ ‘पृथ्वी स्थिर है’, ‘सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर चक्कर लगाता है’ पर हम जानते  है कि सूर्य स्थिर है, पृथ्वी घूमती है ।  

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*डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, “दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।“ डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुई है।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है। 

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12 COMMENTS

  1. बहुत सूक्ष्म दृष्टिपात। हमारी स्थूल इंद्रियों की क्षमता सीमित होती हैं और हमारी ग्रहण करने की क्षमता हमारी सोच वा दृष्टिकोण पर बहुत कुछ निर्भर करती हैं अतः एक ही बात को, वस्तु को विभिन्न व्यक्ति विभिन्न कोण से ग्रहण करता हैं। आपके सोच की यात्रा जितनी अंतर्मुखी होगी, आपका दृष्टिकोण उतना ही विस्तृत होगा।
    उत्तम लेख, जो हमारी दृष्टि को विस्तृत धरातल पर जाने के लिए बाध्य करता हैं। लेखिका को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं एवम सादर प्रणाम।

  2. यह सचमुच एक भ्रांत धरना है की हम जो देखते हैं वोही सच है। जब की सच यह है की वस्तुएं ऐसी नहीं होती जैसी वो दिखाती बल्कि जैसे हम होते हैं। यह हमारी मन मारी और बहुत कुछ मूड पर निर्वाण करता है।
    साधारण लोग इसी भिबरंती के चलते गलतपहमियों के शिकार हो जाते। एक अच्छा प्रयास रोज की भिबरंतियों को परिष्कृत करने के लिए। धन्यवाद

    • Correction:
      हमारी मन मर्जी और मूड पर निर्भर …..

  3. हम दूरबीन का सहारा लेते है। (भूल सुधार)

  4. बहुत सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति, मधु जी. ज्ञानेद्रियों और इससे प्राप्त अनुभूतियों पर संदेह आदि काल से व्यक्त किया जाता रहा है और कई तरह की शंकाएं हैं. इसमें हमारा अनुभव ही नही कठघरे में है. जो वस्तु हम देख रहे हैं उसकी सत्यता भी संदेह के घेरे में हैं. जो हमने अभी देखा और जो हम फिर कभी बाद में देखेंगे वे दोनो एक हैं क्या? मुश्किल तो तब और बढ़ जाती है जब जब हम अपनी अनुभूति को भाषा में व्यक्त करते हैं और वह उस भाषा भी अनुभूति को प्रभावित करती है. शब्द और उसका अर्थ एक अलग किस्म की जटिलता पैदा करती है जिस पर भी विद्वानों की नजर रही है. लेकिन इन तमाम शंकाओं के बावजूद सचाई को समझना संभव हुआ है, एक सरल समाधान है – inter subjective reality. शायद यह भी संदेह से परे न हो. पर यह कहना कि सच को समझना असंभव है, एक ऐसा पोस्ट मॉडर्न फितूर है जिसे मैं संदेह से ही देख पाता हूं. ये, वो, कुछ नहीं, सब सही हो तो फिर हम आपस में बात भी क्यों करते हैं?

    • यहां डिजिटल दुनिया की एक और समस्या है कि आप भूल सुधार नहीं कर सकते. एक वैसे ही समझ और समझदारी दार्शनिक के चक्कर में भंवर में पड़ा सच और झूठ की पटखनी खा रहा है, ऊपर से कुछ लिखने में गलती हो गई, तो वो सदा के लिए दर्ज हो गई. अब मानवीय विवेक पर भरोसा करना ही बेहतर है! हा हा हा

    • धन्यवाद आपने गंभीरता से इस विषय पर अपना विचार प्रस्तुत किया. असल में पोस्ट मॉडर्न ट्रुथ सिर्फ ज्ञान ही नहीं आवेग को भी शामिल करता हैं सत्यापन में. सब कुछ २+२=४ नहीं होता . आप जानते होंगे ब्लैक एंड वाइट नहीं ग्रे एरिया भी हमारे संज्ञान में आता है. पोस्ट मॉडर्न उसको रेखांकित करता. सच शुद्ध ज्ञान भी नहीं है शुद्ध आवेग भी नही है.
      टिपण्णी आने से प्राणों में क्रिया होती है. पढ़ते रहे.

  5. जितनी गहनता से हम जानने-समझने का प्रयास करते हैं, अपने ज्ञान और क्षमता के अधूरेपन का ‘ज्ञान’ उतना ही ‘अधिक’ हो जाता है। ‘आँखिन देखी’ भी अधूरा ‘दर्शन’ हो सकता है। शायद ऐसा ही अहसास हमें ज्यादा विनम्र और शालीन बना सकता है।
    लेखिका के पास पांडित्य है और अभिव्यक्ति की सुंदर शैली भी। तभी तो दर्शन का जटिल कथ्य भी रोचक हो गया है।

    • धन्यवाद भाई राजेन्द्र जी. ‘आखिन देखी’ शब्द को जिस अर्थ किया जाता है, मैंने उसे ‘इन्द्रिय प्रत्यक्ष’ के अर्थ में व्यवहार किया है.
      ‘दर्शन’ शब्द भी ‘इन्द्रिय दर्शन’ और ‘आत्मदर्शन’ के अर्थ में व्यवहृत होता है. पर कबीर लिखने के समय ‘आत्मदर्शन’ अर्थ में लेते हैं. पाश्चात्य दार्शनिक अधिकतर इसे स्थूल इन्द्रिय में लेते है. so I have the advantage to float. It is a play of words here, but in philosophy it is a question of life and death.
      पढ़ने और टिपण्णी करने के लिए शुक्रिया. पढ़ते रहे . साहस मिलेगा.

  6. धन्यवाद भाई राजेन्द्र जी. ‘आँखिन देखी’ शब्द को जिस अर्थ किया जाता है, मैंने उसे ‘इन्द्रिय प्रत्यक्ष’ के अर्थ में व्यवहार किया है.
    ‘दर्शन’ शब्द भी ‘इन्द्रिय दर्शन’ और ‘आत्मदर्शन’ के अर्थ में व्यवहृत होता है. पर कबीर लिखने के समय ‘आत्मदर्शन’ अर्थ में लेते हैं. पाश्चात्य दार्शनिक अधिकतर इसे स्थूल इन्द्रिय में लेते है. so I have the advantage to float. It is a play of words here, but in philosophy it is a question of life and death.
    पढ़ने और टिपण्णी करने के लिए शुक्रिया. पढ़ते रहे . साहस मिलेगा.

  7. दर्शन शास्त्र सचमुच एक विचित्र विज्ञान है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं को एक नई लेकिन सटीक भाषा में किसी से साक्षात्कार कराता है । साधारण बोलचाल की भाषा में प्रायः हम अपने तर्क से दूसरोंको कायल करने के लिए उदाहरण देते हैं कि आधा भरा पानी का गिलास, आधा भरा है या आधा खाली या आधा पानी से भरा और आधा वायुमंडल से; यह कोई यक्षप्रश्न नहीं अपितु अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का सरल उपाय है । दर्शनशास्त्र, इसी को परिभाषित करता है ।

    डाक्टर मधु कपूर इस प्रकार के अनेक शंका और उनके उचित समाधानों का प्रचुर “विश्वकोश” हैं और यही विशेषता उन्हे साधारण से विशेष में पात्रता का मापदंड निश्चित करती है ।

  8. धन्यवाद बृज भाई. आपने समय निकाल कर पढ़ा और टिपण्णी भी की. मै तो वही बात दोहराउंगी कि असली प्रबुद्धता आप जैसे पाठकों में है. दृष्टिकोण तो है ही उससे ऊपर जाकर खोजना पढता है, सत्य क्या है? हम अपने-अपने सत्य को लेकर जीते है, अपने-अपने चश्मे से देखते हैं और भ्रान्ति के शिकार भी होते हैं, लेकिन इसके बावजूद हमारे विचार की खिड़की खुल जाती है.
    बहुत बहुत आभार
    पढ़ते रहे

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