….कालः पचतीति वार्ता

डॉ मधु कपूर*

करीब सप्ताह भर पहले हमने दर्शनशास्त्र की अध्येता एवं प्रोफेसर डॉ मधु कपूर का यह लेख (मैं कहता आँखिन देखी) प्रकाशित किया था जिसमें उन्होंने हमारे देखने और ग्रहण के बीच जो अंतर्विरोध रह सकते हैं, इस दार्शनिक सिद्धांत का प्रतिपादन  बहुत रुचिकर ढंग से किया था। उपरोक्त लेख ने सचेत किया था  कि कैसे आपकी आँखें और आपका दिमाग आपको धोखा दे सकता है बल्कि लंबे समय तक आपको पता ही नहीं चलता कि आप जो ‘देख’ रहे हैं वह असलियत में नहीं देख पा रहे हैं। दार्शनिक लेखों की कड़ी में उन्हीं का यह दूसरा लेख क्रिया की दार्शनिक व्याख्या करने का प्रयास करता दिख रहा है। आइए जानने का प्रयास करते हैं कि क्रिया आखिर है क्या?

… कालः पचतीति इति वार्ता ― महाभारत के वनपर्व से उद्धृत यह पंक्तियाँ कहती है कि  प्राणीजगत काल के हाथ में पकाए गए भोजन की तरह है, जिन्हें एक न एक दिन काल के गाल में समा जाना ही है. काल सूर्यरूपी अग्नि, दिन-रात्रिरूपी इन्धन,  भवसागर रूपी महामोहमय युक्त कढाई में महीने और ऋतुओं की कलछी से उलटते पुलटते हुए जीवधारिओं को पका कर खा रहा है. यद्यपि पकाने की क्रिया में इन सभी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है―यथा  कढाई, अग्नि, कलछी, सब्जी इत्यादि. लोकव्यवहार में भी हम देखते हैं कि ‘पचति’ क्रिया के अंतर्गत  कई छोटी छोटी क्रियाएं शामिल रहती है,  जैसे गैस जलाना, बर्तन उठाना, चावल को पानी से धोना चूल्हे के पास खड़े रहना, बीच बीच में चावल को चलाना इत्यादि. इन सभी क्रियाओं का फल होता है चावल के कणों का मृदु हो जाना.

साधारणतः क्रिया से किसी काम का होना या करना समझा जाता है अथवा किसी व्यक्ति या वस्तु की स्थिति का बोध होता है. क्रिया के सन्दर्भ में और एक बात ध्यान रखने की है कि हमेशा उद्देश्य प्रणोदित  होती है. जैसे कार चलाना एक क्रिया है जो कर्ता की इच्छा से संचालित होती है, लेकिन छींकना, श्वास लेना, रक्त-सञ्चालन इत्यादि ऐसी क्रिया है जो कर्ता के इरादे से स्वतंत्र होती है. कार का चलना एक क्रिया है जो अपने कल-पुरजों के तालमेल  और उनके ठीक ठाक रख-रखाव पर निर्भर करती है, पर जब तक कार-चालक न हो कार में कोई क्रिया नहीं हो सकती है. इसी तरह रसोई बनाने के सभी सरंजाम उपस्थित होने के बावजूद यदि रसोइया न हो या होने पर भी उसकी इच्छा न हो तो रसोई नहीं पक सकती है. अग्नि, जल, मसाले, कटी हुई सब्जी सभी सामान और रसोइया के उपस्थित रहने पर भी, इच्छा होने पर भी  पचति क्रिया संपन्न नहीं हो सकती है, क्योंकि चेष्टा का अभाव है. इस तरह क्रिया के साथ इच्छा, उद्देश्य और चेष्टा का कार्य कारण सम्बन्ध है, पर इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि फल के बिना क्रिया अधूरी है, अतः फलानुकूल व्यापार भी  क्रिया का अंग है.

ऊपर कही गई सारी बातें बिलकुल साधारण तरह से क्रिया का विश्लेष्ण है. हमारा लक्ष्य इस लेख में यह दिखाने का प्रयास है कि यह क्रिया क्या है? पकाने की क्रिया में अग्नि का संयोग, घी का गरम होना उसमें बेली हुई रोटी डालना और उसे सिंक जाने पर निकालना सभी ‘पचति’ क्रिया  के घटक है. क्रिया साध्य  है अर्थात  ‘जो हो रहा है अथवा घट रहा है’. जैसे ‘पानी बरस रहा है’ यह वाक्य ‘बरसने की क्रिया’ को प्रकट करता है. जब तक पानी बरसता रहेगा क्रिया घटती रहेगी. जब तक खाना पकता रहेगा ‘पचति’ क्रिया का प्रयोग होता रहेगा. एक बार खाना पक कर तैयार हो गया तो ‘पचति’ क्रिया का प्रयोग नहीं हो सकता, क्योंकि अब पकना सिद्ध हो चुका है. 

 कलछी को चलाना  क्रिया का हिस्सा है, और साथ ही पानी के  माध्यम से चावल कणों का क्रमश नरम होना  भी क्रिया का हिस्सा है, जो ‘पचति’ क्रिया का  परिणाम है. भले ही कर्ता ने ‘कैसे नरम होता है’ ऐसा कुछ घटते हुए देखा नहीं है.  हम जानना चाहते है कि ये क्रिया क्या है? क्रिया परिवर्तन का कारण है, क्रिया परिस्पंद होती है. संसार की अस्थिरता की चर्चा प्रायः सर्वत्र होती है कालांतर और देशांतर में संसार का  रूप बदलता रहता है इसकी पृष्ठभूमि में क्रिया रहती है. इसलिए संसार चलता रहता है, यह  गतिशील है, इसलिए संसरति इति संसार: कहा गया है.

हमने देवदत्त को कलकत्ते में देखा फिर किसी समय पटना में देखे तो हम अनुमान करते है कि एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने का कार्य क्रिया के माध्यम से हुआ है. पूर्व क्षणों के साथ  अंतिम क्षण  की सत्ता मिल कर कार्य की निष्पत्ति करती है. किन्तु पूर्व पूर्व क्षणों के साथ अंतिम क्षण का पिंडीभूत समूह कैसे होगा? कहने के लिए हम कहते है कि अंतिम क्षण में कार्य संपन्न हुआ पर वास्तव में पूर्व क्षणों का संयोग मिलित रूप से कार्य की उत्पत्ति करता है.  इसलिए क्रिया साध्य है, फल सिद्ध  है. चूँकि हम आद्योपांत सभी क्षणों को एकसाथ युक्त नहीं कर सकते है अतएव हम सभी क्षणों पर अभेद बुद्धि आरोपित करके एक क्रिया की प्रतिष्ठा करते हैं. जैसे किसी दौड़ते हुए घोड़े को दिखाने के लिए फिल्म में कई स्टील फोटो एकसाथ रख कर रील को ऐसे घूमाया जाता है जिससे दौड़ते हुए घोड़े का एहसास होता है. इसी तरह भिन्न भिन्न क्षणों में उत्पन्न क्रियाओं को युगपत एक नाम देते हैं―पचति आदि. वस्तुतः वैसे कोई क्रिया प्रत्यक्ष नहीं होती है. ऐसी घटना अपरिदृष्ट ही रह जाती है,  जो अनुमान से जानी जाती है. जैसे शिशु गर्भ में है, यह माँ के शरीर को देख कर अनुमान किया जाता  है. प्रसव होने के बाद शिशु के ‘आगमन की क्रिया’ ही नहीं रह जाती है, शिशु सिद्ध हो चुका है.

इस तरह क्रिया में क्रम है जो  कालसापेक्ष है, और फल जो उत्पन्न हो चुका है उसमे क्रमिकता समाप्त हो जाती है, फिर भी दोनों को पृथक नहीं किया जा सकता है. बर्तन उठाने से लेकर क्रिया की अंतिम अवस्था तक  ‘पचति’  क्रिया का प्रयोग होता है.  क्रिया क्षणिक है अतएव एक एक क्षण का इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष कैसे होगा? और सभी क्षणों का  इकठ्ठा होना भी संभव नहीं है जैसा की ऊपर कहा जा चुका है. कुछ विद्वानों  के अनुसार स्मृति समारूढ होकर क्रम की एकात्मकता को सुरक्षित किया जाता  है, पर वह अलग विवाद का विषय है. ‘पचति’ क्रिया का अर्थ है चावलों का नरम हो जाना, जो क्रिया की अंतिम निष्पत्ति सिद्ध कही जाती है.

जब हम ‘खा चुका ‘‘पक चुका ‘ ‘दौड़ चुका’ ‘भोजन से तृप्ति बोध’ इत्यादि कहते है, तो यहाँ एक क्रम विशेष की बात नहीं होती  है. भोजनादि की समाप्ति के पूर्व से लेकर अंत तक सारी स्थितियों― जैसे  भोजन पकने की पूर्व की सभी स्थितियां, दौड़ समाप्त होने के पूर्व के सभी क्षण, भोजन आरंभ करने के पूर्व क्षण से लेकर अंतिम कौर तक ― का बोध होता है, किन्तु इसे क्रिया नहीं कहा जा सकता है. यह  क्रिया की सिद्धावस्था है, जिसमे कोई क्रम नहीं रहता है.

कहा भी गया है ―क्रिया की यदि कोई उपयोगिता न हो तो वह व्यर्थ है, इसलिए क्रिया की पूर्णता सिद्धावस्था में  है ― विद्यां भारः क्रियां बिना.

अज्ञेय की ‘मैंने पूछा क्या कर रही हो’  की कविता से इस प्रसंग का समापन करती हूँ :

मैंने पूछा

यह क्या बना रही हो ?…

मुझे क्या बनाना है !

सब-कुछ अपने आप बनता है

क्या कर रही हो ? वह बोली: देख तो रहे हो

छीलती हूँ/नमक छिड़कती हूँ/मसलती हूँ/निचोड़ती हूँ/कोड़ती हूँ/कसती हूँ/फोड़ती हूँ/फेंटती हूँ/महीन बिनारती हूँ/मसालों से सँवारती हूँ/देगची में पलटती हूँ/बना कुछ नहीं रही/बनाता जो है – यह सही है-/अपने–आप बनाता है/देगची में सब कुछ झोंक रही हूँ/दबा कर अँटा रही हूँ/सीझने दे रही हूँ /मैं कुछ करती भी नहीं–/मैं काम सलटाती हूँ …

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*डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, “दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।“ डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुई है।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है। 

4 COMMENTS

  1. क्रिया का बहुत सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत किया हैं, यह सूक्ष्म प्रस्तुति दर्शाती हैं कि कोई भी क्रिया चाहे मानसिक सोच ही क्यों न हो उसका फल इस विश्व ब्रह्मांड में विचरण करता हैं और क्रिया होती है, जो शायद हमे अपनी स्थूल दृष्टि से दिखाई नहीं देती हैं लेकिन उसका फल अवश्य होता हैं। अतः हमारे सृष्टि के रचियता, एक रसोइया ही है जो निरंतर अपनी सृष्टि को रचते हैं, पकाते हैं, मृदु बनाते हैं, सिखाते हैं और उसको परिपूर्णता की ओर ले जाकर काल के गर्भ में समा जाता हैं अर्थात जीवन से मृत्यु दृष्टिगोचर होती हैं लेकिन उसकी प्रस्तुति सूक्ष्म रूप से बहुत आगे से ही शुरू हो जाती हैं, जो प्रत्यक्ष नही है लेकिन हैं। क्रिया का फल अवश्य होता हैं। आदरणीय लेखिका को मेरा सादर नमन। उनकी यह सूक्ष्म सोच की क्रिया फलस्वरूप उनकी लेखनी द्वारा वर्णित होकर हम सब को सिंचित करती हैं और आशा करती हूं आगे भी इसी प्रकार हमें विभोर करती रहेंगी। बहुत बहुत शुक्रिया। प्रणाम।
    लेखिका को

  2. शशि जी आपका बहुत बहुत आभार. आपने अत्यंत मनोयोग से पढ़ा और अपनी टिपण्णी भी दी. सूक्ष्म दृष्टि के आभाव के कारण ही शायद हम बहुत कुछ देखते नहीं है या अज्ञानतावश देख नहीं पाते है या देख कर लौकिक व्यवहार में किसी द्वंद्व में जाने की अपेक्षा चुप रहना पसंद करते है, उपेक्षा करते है. इसी तरह पढ़ते रहे, उपकृत करते रहें.

  3. हिंदी व्याकरण में क्रिया को समझाते हुए सकर्मक क्रिया में लोग उलझ जाते हैं। “वह क्रिया जिसका फल कर्म पर पड़ रहा हो” यह कोई नहीं बताता कि कर्म पर फल पड़ना क्या होता है। वहां मैं इसी उदाहरण का उपयोग करता था कि सकर्मक क्रिया एक के बाद एक अनेक क्रियाओं का समूह है और वे सारी क्रियाएँ जिस पर हो रही हैं वह उसका कर्म। यही क्रिया समुच्याचय क्रिया समभिव्यापार है।
    याद दिलाने के लिए धन्यवाद डॉक्टर कपूर।

  4. धन्यवाद डाक्टर पन्त जी
    अकर्मक क्रिया हो या सकर्मक क्रिया दोनों में ही क्रिया होती हैं. ‘मै सोता हूँ’ सोने की क्रिया घट रही है. ‘मै फुटबाल खेल रहा हूँ’ इसमें भी खेलने की क्रिया घट रही हैं. मेरा तात्पर्य इतना दिखाना था कि क्रिया दोनों में घट रही हैंऔर इस घट रही क्रिया के क्षणों का जो समुच्चय है वह कैसे होता हैं? समभिव्याहार कैसे होगा? एकमात्र उपाय है ‘स्मृतिसमारूढा’ पर उसमे भी समस्यायें है.
    फल तो दोनों तरफ है एक में कर्ता है तो दूसरे में कर्म है.
    सकर्मक या अकर्मक क्रिया की बहस कुछ और पन्ने खा लेती इसलिए उस बहस को मैंने “फिर कभी के लिए” सुरक्षित रख लिया.
    प्रणाम

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