बेदखल किए जाएंगे लाखों आदिवासी!

सुदीप ठाकुर*

कल टिवीटर पर अचानक ये खबर दिखने लगी कि भारत के उच्चतम न्यायालय ने वन्य जीवों के संरक्षण में लगे संगठनों और कुछ पूर्व वनाधिकारियों की एक याचिका पर फैसला सुनाया और उसके तहत ये आदेश दिया कि वन-क्षेत्रों में रहने वाले ऐसे सभी परिवार जो पिछले कुछ वर्षों में अपने दावे साबित नहीं कर पाये हैं या राज्य सरकारें जिनके दावे रद्द कर चुकी हैं, उन्हें इसी वर्ष 27 जुलाई तक उस भूमि से बेदखल किया जाये।

लेकिन आश्चर्यजनक रूप से यह खबर बिज़नेस स्टैंडर्ड की वैबसाइट  के अलावा कहीं देखने को भी ना थी। इस खबर को लिखने वाले पत्रकार नितिन सेठी ने जब इसे ट्वीट किया तो समझ आया कि ये तो कोई बड़ी बात हो गई। लेकिन फिर खबर क्यों और लोग टच भी नहीं कर रहे, ये अभी भी समझ नहीं आ रहा।

नितिन के सोशल मीडिया पर इस खबर के लिंक देने के बाद हमें लगा कि बस अभी कुछ ही देर में ब्यान आने शुरू हो जाएँगे और सरकार की तरफ से यह आश्वासन आ जाएगा कि वह सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करके इस निर्देश को रद्द करवाने का प्रयास करेगी। हमारी शुभ-इच्छा में हम यह भी सोच रहे थे कि यह ना हुआ तो केंद्र सरकार तो अध्यादेश लाएगी ही।

लेकिन कुछ भी ऐसा ना हुआ। सरकार को तो खैर छोड़िए, वह तो आजकल देशभक्ति के रथ से उतर भी नहीं सकती, किसी विपक्षी दल ने भी इस पर अभी तक कोई चिंता नहीं जताई है। संभवत: चुनावों के दिनों में कोई भी राजनीतिक दल अपना फोकस नहीं खोना चाहता। देश के अलग अलग हिस्सों से उजड़ेंगे ये आदिवासी तो इसलिए इनके वोट कुछ मायने भी नहीं रखते।

ऐसे में हमें लगा कि हमें जो समझ आ रहा है, कम से कम उसी को वैबसाइट पर डालें। लिखने लगे लगा कि कुछ मुद्दों पर स्पष्टता नहीं है। हम मार्गदर्शन के लिए नाम सोचने लगे। उसी क्रम में सुदीप ठाकुर जी की याद आई तो लगा कि उन्हीं से इस विषय पर लिखने का अनुरोध करते हैं। हमारी खुशकिस्मती से वो मान भी गए और कुछ घंटों के नोटिस पर ही उन्होंने अपनी यह टिप्पणी हमें भेज दी है जिसे आप नीचे यहाँ देख रहे हैं।

सुदीप के बारे में बताते चलें कि वह छतीसगढ़ से हैं, वहीं से उन्होंने पत्रकारिता शुरू की और हाल ही में उन्होंने एक बहुत ही शोधपूर्ण पुस्तक ‘लाल श्याम शाह’ लिखी है जो बहुत चर्चित हुई और जिसकी भूमिका प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने लिखी है।  

10 लाख से भी अधिक आदिवासी हो सकते हैं बेदखल

सुदीप ठाकुर

युद्धोन्माद और राष्ट्रवाद के उफनते दौर में यह खबर शायद सनसनी पैदा न करे। सुप्रीम कोर्ट के हाल के एक आदेश से 16 राज्यों में दस लाख से भी अधिक आदिवासियों और अन्य वनवासियों को जंगल से बेदखल किया जा सकता है, क्योंकि केंद्र सरकार वनाधिकार अधिनियम 2006 के तहत उनके अधिकारों की रक्षा करने में नाकाम रही है।

स्वतंत्र भारत के इतिहास का यह अनूठा मामला है, जब केंद्र सरकार ने आदिवासियों को तकरीबन 80 साल बाद मिले महत्वपूर्ण अधिकार से संबंधित वनाधिकार कानून का सुप्रीम कोर्ट में बचाव करने के लिए अपने वकील तक कोर्ट में भेजना जरूरी नहीं समझा। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि माननीय न्यायाधीशों को भी सरकार को ये याद दिलाना ज़रूरी नहीं लगा कि उसे कोर्ट में तैयारी के साथ आना चाहिए और कम से सरकार का प्रतिनिधितत्व करने को कोई वकील तो वहाँ होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ पूर्व वनाधिकारियों और वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए जुटे कुछ एनजीओ की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए संबंधित राज्यों को 12 जुलाई तक ऐसे आदिवासियों को बेदखल करने के आदेश दिए हैं, जिनके दावे खारिज कर दिए गए हैं। बेदखली के आदेश की कड़ी अनुपालना सुनिश्चित करने के लिए कोर्ट ने देहरादून स्थित फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया को अतिक्रमण हटाने से संबंधित सैटेलाइट तस्वीरों पर आधारित रिपोर्ट जमा करने के लिए भी कहा है। उम्मीद करनी चाहिए कि देश भर के शहरी इलाकों में भू-माफियायों द्वारा हथियाई गई ज़मीनें खाली कराने का आदेश भी इसी तरह आएगा।

यूपीए सरकार के समय 2006 में आदिवासियों और पीढ़ियों से वनों में रह रहे अन्य वनवासियों को अधिकार देने के लिए वनाधिकार अधिनियम अस्तित्व में आया था। इसने औपनिवेशक काल के 1927 के वनाधिकार अधिनियम की जगह ली थी, जिसे अंग्रेजों ने प्राकृतिक संपदा से अकूत भारतीय वनों के अपने हित में दोहन के लिए बनाया था।

अंग्रेजों ने सबसे पहले 1865 में भारतीय वन अधिनियम बनाया था, जो दरअसल भारत में औपनिवेशक शासन के विस्तार का जरिया ही था और इसके जरिये उन्होंने भारत के जंगलों पर कब्जा किया। बस्तर की जनश्रुतियों में यह कहानी सुनने को मिल जाएंगी कि किस तरह से अंग्रेजों की नजर बैलाडीला की लोहे की खदानों पर थी! आजादी के बाद यह काम सरकारों ने किया और फिर कॉरपोरेट ने या कह सकते हैं कि कॉरपोरेट की मिलीभगत से सरकारों ने। 

वनाधिकार अधिनियम, 2006 जब अस्तित्व में आया था, तो इसे आदिवासियों और अन्य वनवासियों के अधिकारों के संघर्ष में एक मील के पत्थर की तरह देखा गया था। ध्यान रहे, संविधान में पांचवी और छठी अनुसूची में आदिवासियों के अधिकार संरक्षित किए गए हैं, मगर यह विशेष क्षेत्रों में ही लागू हैं। वनाधिकार अधिनियम ने इसे और व्यापक बनाया है, लेकिन अब इस कानून का अस्तित्व ही खतरे में है।

अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 में कहा गया है, “वन में निवास करने वाली ऐसी अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को, जो ऐसे वनों में पीढ़ियों से निवास कर रहे हैं, किंतु उनके अधिकारों को अभिलिखित नहीं किया जा सका है, वन अधिकारों और वन भूमि में अधिभोग को मान्यता देने और निहित करने, वन भूमि में इस प्रकार निहित वन अधिकारों को अभिलिखित करने के लिए संरचना का और वन भूमि के संबंध में अधिकारों को ऐसी मान्यता देने और निहित करने के लिए अपेक्षित साक्ष्य की प्रकृति का उपबंध करने के लिए अधिनियम।”

इसमें स्वीकार किया गया था कि औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वनवासियों की पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त मात्रा में मान्यता नहीं दी गई थी, जिसके परिणामस्वरूप वन में निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वनवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ है, जो वन पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाए रखने के लिए अभिन्न अंग हैं।

यह अधिनियम 31 दिसंबर, 2005 से पहले तीन पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को जंगल में रहने का अधिकार देता है। इस अधिनियम में अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वनवासियों के वनों के साथ साहचर्य को रेखांकित किया गया है। यह विडंबना ही है कि इसी अधिनियम के प्रावधानों के तहत जो लोग अपने वनों में रहने के अपने दावे के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके उनके दावे खारिज कर दिए गए। 

वनाधिकार कानून को आंध्र प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक के सेवानिवृत्त वनाधिकारियों और वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, द नेचर कंजरवेशन सोसाइटी, द टाइगर रिसर्च ऐंड कंजरवेशन ट्रस्ट और बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ने अलग-अलग अदालतों में चुनौती दी और इस कानून को अवैधानिक करार देने की मांग की। जनवरी, 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने ये सारे मामले अपने पास मंगा लिए। इस विषय में “डाउन टू अर्थ” की वैबसाइट पर आप विस्तार से पढ़ सकते हैं।  

केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय ( Ministry of Tribal Affairs) ने अक्टूबर, 2018 की अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया कि अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 यानी वनाधिकार अधिनियम के तहत वनभूमि पर अधिकार को लेकर एक दशक के दौरान 42.1 लाख दावे प्राप्त हुए, जिनमें से सिर्फ 40 फीसदी को ही मंजूरी दी गई।

रिपोर्ट के मुताबिक भू स्वामित्व से संबंधित दावों को या तो ग्राम सभा ने या फिर जिला स्तरीय समिति ने खारिज कर दिया।

यह जो विकास की मुख्यधारा है, दरअसल वह जंगलों से होकर ही गुजरती है और उसका सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है आदिवासियों को। 1998 में प्रकाशित Tribal Studies of India Series के खंड एक Antiquity to Modernity In Tribal India के एक अध्याय में वाल्टर फर्नांडीस ने विस्तार से बताया है कि किस तरह से विकास परियोजनाओं के कारण पूर्वी भारत में बड़ी संख्या में आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल होना पड़ा था।

वाल्टर फर्नांडीस लिखते हैं कि संकुचित नजरिये से भी आकलन किया जाए, तो छठी पंचवर्षीय योजना तक 1.5 करोड़ लोग विस्थापित किए जा चुके थे! हालांकि इसके एवज में मुआवजे भी दिए गए, लेकिन वह पर्याप्त नहीं थे। मगर यहां तो मामला और भी गंभीर है। वनाधिकार अधिनियम के तहत आदिवासियों के अधिकारों का बचाव करने में खुद सरकार ही कोई रुचि नहीं दिखा रही है।

16 राज्यों से खारिज किए गए दावों की कुल संख्या 1,127,446 है, जिसमें आदिवासी और अन्य पारंपरिक वनवासियों के व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों तरह के दावे शामिल हैं। कोर्ट ने संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों को निर्देश दिए हैं कि वे हलफनामा देकर बताएं कि जिनके दावे खारिज किए गए हैं उनकी बेदखली क्यों नहीं की गई है और यदि की गई है, तो उसकी स्थिति क्या है। इस मामले में अगली सुनवाई 27 जुलाई को होनी है।

ऐसे समय जब लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने में महीने भर भी नहीं रह गए हैं, लगता नहीं कि केंद्र या राज्य सरकारें आदिवासियों के अस्तित्व से जुड़े इस मामले पर गौर फरमाएंगी। सियासत ने जैसी शक्ल ली है, उसमें देश की आबादी में आठ फीसदी की हिस्सेदारी करने वाले आदिवासी अप्रासंगिक हो गए हैं, यह घटनाक्रम उसका ताजा उदाहरण है।

*सुदीप ठाकुर आजकल अमर उजाला के रेसिडेंट एडिटर हैं। वह छतीसगढ़ से हैं। वहीं से उन्होंने पत्रकारिता शुरू की । हाल ही में उन्होंने एक बहुत ही शोधपूर्ण पुस्तक ‘लाल श्याम शाह’ लिखी है जो काफी चर्चित हुई । पुस्तक की भूमिका प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने लिखी है।

9 COMMENTS

  1. Sudip ji theek kahte hain aur aapne bhi thik kaha ki chunav kee mahol me ye khabar kho gayi hai. Lekin aisi khabrein to vipaksh ka fodder hoti hain. Vipakshh pura confused hai aur extremely anti-Modi gathbandhan ka khel khel raha hai.
    Chahe man ki baat jo bhi ho, agar Modi vipaksh me hote to kya is issue ko aise hi jaane dete?

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