डॉ वेड की डायरी – उपन्यास अंश (2)

विनोद रिंगानिया*

असम में खूब चर्चित और असम के बाहर भी अपनी अच्छी पहचान बना चुके साहित्यकार विनोद रिंगानिया ने अपने हाल ही में प्रकाशित ऐतिहासिक उपन्यास “डॉ वेड की डायरी – असम में अंग्रेज़ी राज की शुरुआत” का एक बड़ा अंश हमें भेजा है। हम प्राप्त अंश को साप्ताहिक किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं। इसकी पहली किश्त आप यहाँ पढ़ चुके हैं। लीजिए प्रस्तुत है इस बहुचर्चित उपन्यास की दूसरी किश्त!

स्कॉट से मिली मदद

“भगवान झूठ न बोलाये, बदन चन्द्र का गला काटने के बाद मेरा मन इतना खिन्न हो गया कि मैं वापस अपने देश जाकर बाकी ज़िन्दगी धर्म-कर्म का कामकर काटना चाहता था। राजमाओ ने सारा काम बिना किसी विघ्न के पूरा होने के बाद ईनाम के रूप में मुझे सोने का एक जड़ाऊ हार दिया था। उस हार से मिले पैसों से मेरा बाकी का जीवन आराम से कट सकता था। लेकिन होता वही है जो तक़दीर में लिखा होता है।” रूपसिंह कहानी सुनाने की कला जानता है इसलिए जब वह बोलना शुरू करता है तब गन्धूला, महेश्वर फूकन और जुहान सिंह सभी अपना मुँह सिलकर बस सुनते जाते हैं।

कुँवर ब्रजनाथ और रुचिनाथ के भाई जगन्नाथ ने रंगपुरा में कमिश्नर स्कॉट साहब को किसी तरह राजी कर कम्पनी के सिपाही लाने की बहुत कोशिश की लेकिन कम्पनी के साहब के हाथ भी बँधे हुए थे। उसने कलकत्ता रिपोर्ट भेज दी और बड़े साहबों ने सिपाही भेजने से साफ़ इनकार कर दिया। चिलमारी में आसाम से गये ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो कुँवर को बरकन्दाज़ों की अपनी पलटन बनाने में धन-सम्पत्ति से मदद करने को तैयार हों। लेकिन कलकत्ता से यह भी हुक्म आया था कि कुँवर ब्रजनाथ बंगाल से अपने साथ हथियारबन्द लोगों को नहीं ले जा सकता।

अन्त में एक दिन कुँवर ब्रजनाथ और रुचिनाथ का भाई जगन्नाथ रंगपुरा में एक असमिया सौदागर साउद के पास गये। साउद की स्कॉट साहब के दफ़्तर में कई लोगों से अच्छी उठ-बैठ थी। उसने ब्रजनाथ और जगन्नाथ को मजिस्ट्रेट के दफ़्तर के बड़े बाबू गांगुली से मिला दिया। गांगुली को पैसे मिल जाये तो वह कैसा भी काम करवा देने की काबिलियत रखता है। साहब भी उसकी बुद्धि का लोहा मानता था। गांगुली ने साहब को समझाया कि कलकत्ता से जो आदेश आया है वह यह कहता है कि ब्रजनाथ हथियारबन्द लोगों का समूह अपने साथ नहीं ले सकता। एक नौका में एक हथियारबन्द चौकीदार ले जाने पर तो कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसलिए आप एक-एक लोगों को यहाँ से योगीघोपा से पार हो लेने दीजिये। इन लोगों में से अधिकांश तो आसाम से ही आये हैं। आसाम के लोग वापस आसाम चले जाते हैं तो इसमें कम्पनी सरकार को क्या परेशानी है। ये लोग बाज़ार में लोगों को डराते-धमकाते हैं, व्यापारियों के साथ झगड़ा करते हैं। इन लोगों के पास रोजी-रोटी का कोई जरिया नहीं है और बंगाल में इन्हें कोई रोज़गार मिल भी नहीं सकता। इन्हें आसाम वापस जाने दें तो आपको इस सारे झंझट से मुक्ति मिल जायेगी।

साहब को बात जँच गयी और उसने समूह में नहीं लेकिन एक-एक हथियारबन्द लोगों को सीमा पारकर आसाम जाने की इजाज़त दे दी।

उन्हीं दिनों की बात है। राजमाओ के दिये जेवर लेकर अपने देश लौटने के रास्ते रूपसिंह गौहाटी के घाट पर उतरा। अन्दर शहर में एक बाज़ार में वह दो ब्रिटिश सिपाहियों को देखकर चौंका। क्या गौहाटी में अंग्रज़ी पलटन आ गयी है? सिपाही हिन्दुस्तानी ही थे इसलिए रूपसिंह को उनसे बात करने में संकोच नहीं हुआ। सिपाहियों ने उसे बताया कि वे लोग अंग्रेज़ी पलटन के सिपाही नहीं हैं। बस उनकी वर्दी अंग्रेज़ी पलटन के सिपाहियों जैसी है। ताकि यहाँ के राजा की फ़ौज के सैनिक यह सोचें कि यह अग्रेज़ी पलटन है और उनका हौसला पहले ही पस्त हो जाये। इस फ़ौज में हिन्दुस्तानी सिपाही हैं और गौहाटी के आसपास के सरदारों के भेजे हुए लोग हैं।

आदमी की तक़दीर उसे कहाँ ले जायेगी कोई भी पहले से नहीं कह सकता। उस दिन रूपसिंह के अपने हमवतन सिपाहियों के साथ बात करने का यह परिणाम होगा उसने सोचा ही नहीं था। सिपाहियों का अफ़सर उनके साथ ही था जो वर्दी में नहीं होने के कारण रूपसिंह ने उस पर ध्यान नहीं दिया था। अफ़सर को रूपसिंह की ऊँची कदकाठी पसन्द आ गयी थी। शाम को वे सिपाही उसे खोजते हुए उसके डेरे पर आ गये और उससे अपने अफ़सर से मिलने का आग्रह करने लगे। अन्ततः हुआ यह कि रूपसिंह को देस जाने का अपना इरादा बदलकर ब्रजनाथ की उस नकली अंग्रेज़ी पलटन में शामिल होना पड़ा।

पुरन्दर जोरहाट में

“रुचिनाथ ने गौहाटी में सिपाहियों की चार कम्पनियाँ खड़ी ली थी। वर्दी को छोड़कर इन सिपाहियों की ब्रिटिश पलटन के सिपाहियों के साथ कोई तुलना ही नहीं थी। न हथियार चलाने के कौशल में, न बहादुरी में, न अनुशासन में।” कल यहाँ से तम्बू उखाड़ने हैं उसके पहले रूपसिंह अपनी कहानी पूरी कर लेना चाहता है।

कुछ भी हो रुचिनाथ की तरक़ीब काम कर गयी थी। हमलोग चार कम्पनियाँ लेकर जोरहाट के पास पहुँचकर रुक गये और स्थिति का जायजा लेने के लिए गुप्तचरों को जोरहाट भेजा। गुप्तचर जो सूचना लाये उससे रुचिनाथ और उसका भाई जगन्नाथ खुशी के मारे नाचने लगे। मैंने मन ही मन सोचा अभी तो जोरहाट में प्रवेश ही नहीं किया है अभी से इतना क्यों नाचने लगे हो। लेकिन जब मुझे यह पता चला कि गुप्तचर क्या जानकारी लाये हैं तो मेरी खुशी का भी ठिकाना नहीं रहा। मुझे लगा कि रुचिनाथ जल्दी से जोरहाट की गद्दी सँभाल ले तो मैं भी अपने देस की ओर रुख कर सकता हूँ।

“गुप्तचर ऐसी क्या सूचना लाये थे तुमने बताया नहीं?” गन्धूला ने टोका।

उसी पर आ रहा हूँ। गुप्तचरों से पता चला कि रुचिनाथ के ‘ब्रिटिश पलटन’ लेकर आने की ख़बर पाकर स्वर्गदेव चन्द्रकान्त जोरहाट छोड़कर रंगपुर भाग गये हैं। जोरहाट की सुरक्षा अब किसी लुकु डेका फूकन के भरोसे छोड़ दी गयी है। लुकु डेका फूकन कौन है? रुचिनाथ और जगन्नाथ दोनों ने ही अपने दिमाग पर जोर डाला लेकिन उन्हें याद नहीं आया कि इस नाम का कोई सेनापति स्वर्गदेव की सेना में था भी या नहीं। जो भी हो, यह फागुन आने से पहले की बात है और हम लोग आसानी से जोरहाट शहर के अन्दर प्रवेश कर गये। मुझे इस बात से सुकून मिला कि इस अभियान में मुझे फिर से किसी की जान नहीं लेनी पड़ी।

रुचिनाथ और जगन्नाथ बिना किसी रोक-टोक के महल तक पहुँच गये। इसके पीछे भी राजमाओ देउता की कूटनीति थी। राजमाओ देउता इस कूटनीति को बदन बरफूकन के समय आजमा चुकी थीं इसलिए उन्हें इस तरक़ीब पर पूरा भरोसा था। उन्होंने पूर्णानन्द बुढ़ागोहाईं के इन बच्चों को बचपन से ही देखा था और बच्चे भी अपने पिता के महामन्त्री रहते राजमाओ की बहुत इज़्ज़त करते थे। राजमाओ देउता ने तुरन्त रुचिनाथ और जगन्नाथ के साथ एक बैठक की और बैठक के थोड़ी देर बाद मुझे रंगपुर के लिए रवाना कर दिया। मेरे रंगपुर जाने का मकसद था स्वर्गदेव चन्द्रकान्त देउता को वापस जोरहाट ले आना। रुचिनाथ और राजमाओ देउता के बीच यह समझौता हो गया था कि चन्द्रकान्त देउता को ही स्वर्गदेव की गद्दी पर रहने दिया जायेगा और महामन्त्री का पद रुचिनाथ को मिल जायेगा। जब तक उनका बेटा स्वर्गदेव बना रहता है तब तक राजमाओ देउता को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि महामन्त्री कौन बनता है। फिर रुचिनाथ को उन्होंने बचपन से देखा था वह उनके साथ कोई दग़ा नहीं करेगा इतना यकीन था राजमाओ को।

जब मैं रंगपुर पहुँचा तो एक बार तो मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने राजधानी में घुसते ही देखा कि एक सियार एक घर के अधखुले दरवाजे से निकलकर भागा और रास्ते के दूसरी ओर उगी झाड़ियों में छिप गया। उसके मुँह में कोई खाने की वस्तु थी। पूरी राजधानी में सन्नाटा छाया हुआ था। लगता था वहाँ सिर्फ़ स्वर्गदेव और उनके कुछ चुनिंदा सेवक और सैनिक ही बचे रह गये थे। जो भी हो, मैंने जब स्वर्गदेव को राजमाओ का कूट भाषा में लिखा हुआ पत्र सौंपा तो स्वर्गदेव तुरन्त मेरे साथ वापस जोरहाट आने के लिए राजी हो गये।

“फिर क्या सचमुच चन्द्रकान्त को वापस गद्दी सौंप दी गयी”– गन्धूला बोला।

गद्दी छीनी ही कहाँ थी जो वापस करते। राजमाओ देउता से यह समझौता हुआ था कि चन्द्रकान्त देउता को ही स्वर्गदेव बने रहने दिया जायेगा बदले में रुचिनाथ को बुढ़ागोहाईं का पद मिल जायेगा।

लेकिन स्वर्गदेव चन्द्रकान्त इतनी बार पाला बदल चुके थे कि उन पर कौन भरोसा करता। रुचिनाथ ने आदेश दिया कि चन्द्रकान्त देउता को पूरा सम्मान दिया जाये। उन्हें महल में ही इतने ऐशोआराम से लाद दिया जाये कि बाहर की कोई ख़बर ही उन तक नहीं पहुँच पाये।

“ऐसा क्यों”–इस बार महेश्वर फूकन ने सवाल किया।

क्याेंकि रुचिनाथ देउता तब तक गौहाटी से पुरन्दर सिंह को बुला लाने के लिए एक तेज़ गति वाली नौका भेज चुके थे। दरअसल उन्होंने पुरन्दर सिंह के पिता ब्रजनाथ को ही स्वर्गदेव बनाने का वादा किया था। इसी उम्मीद में ब्रजनाथ ने सिपाहियों की पलटन खड़ी करने में रुचिनाथ का साथ दिया था। इसी आशा में वे कितनी ही बार इस्कोट साहब के पास फरियाद लेकर गये थे।

“लेकिन ब्रजनाथ को स्वर्गदेव बनाने में अड़चन क्या थी?” महेश्वर फूकन ने पूछा।

बहुत बड़ी अड़चन थी। ब्रजनाथ का एक कान कटा हुआ था, रूपसिंह ने फुसफुसाते हुए कहा। ब्रजनाथ का नाम सुनते ही जोरहाट में जितने भी बड़े ओहदेदार थे सभी ना-नुकर करने लगे। रुचिनाथ को क्या पड़ी थी कि वे ब्रजनाथ के लिए आहोम परम्परा के विरुद्ध जाकर सभी बड़े ओहदेदारों को अपने विरुद्ध कर लेते। ब्रजनाथ को यदि गद्दी पर बैठाया जाता तो रुचिनाथ के विरुद्ध विद्रोह हो जाता, यह तय था।

रूपसिंह ने महसूस किया कि उसके हाथ पर पानी की एक बूँद गिरी है। उसने आसमान की ओर नज़रें उठाकर देखा लेकिन अँधेरे में कोई अनुमान नहीं लगा सका। महेश्वर फूकन ने पूछा, “क्या हुआ, चुप क्यों हो गये रूपसिंह?” गन्धूला और जुहान सिंह भी इन्तज़ार कर रहे थे रूपसिंह के फिर से बोलने का। लेकिन तब तक बूँदाबादी तेज़ हो गयी और सभी जान गये कि अब बाहर खुले में बैठना सम्भव नहीं है। अब तक महेश्वर फूकन भी जान गये कि बारिश होने लगी है। उबासियाँ तो वे पहले से ही ले रहे थे, सो उन्होंने ख़ुद ही कह दिया कि बाकी की कहानी अब कल सुनेंगे। गन्धूला महेश्वर फूकन का हाथ पकड़कर उन्हें उनके तम्बू तक छोड़ने जाने लगा तो जुहान सिंह और रूपसिंह अपने-अपने तम्बुओं की ओर बढ़ चले।

तेज़ कदमों से अपने तम्बू की ओर बढ़ते हुए भी रूपसिंह के ज़हन में उन दिनों के जोरहाट की बातें घूम रही थीं। उसे स्वर्गदेव चन्द्रकान्त की सेवा में लगा दिया गया था। लेकिन वह दौर बमुश्किल दस दिनों तक चला। इसके बाद अचानक एक दिन दस सैनिकों का एक जत्था आया और रूपसिंह को परे धकेलते हुए स्वर्गदेव को अपनी गिरफ़्त में ले लिया। रूपसिंह पहले तो कुछ समझ नहीं पाया। लेकिन फिर सैनिकों के साथ आये एक फूकन ने उसे अलग ले जाकर समझाया कि बुढ़ागोहाईं का ऐसा ही आदेश है।

दरअसल उस दिन कुँवर पुरन्दर गौहाटी से जोरहाट पहुँच गये थे। रुचिनाथ बुढ़ागोहाईं को बस इसी का इन्तज़ार था। कुँवर ब्रजनाथ को जब स्वर्गदेव नहीं बना पाये तो उन्हीं के बेटे कुँवर पुरन्दर को स्वर्गदेव बनाने में अब किसी प्रकार की बाधा थी नहीं। रूपसिंह को अपने तम्बू की ओर जाते हुए अपने भाग्य पर हँसी आयी। कभी उसे स्वर्गदेव की सेवा में लगाया जाता और कभी उन्हीं स्वर्गदेव को बन्दी बनाकर कहीं छोड़ आने का जिम्मा सौंपा जाता। कुँवर पुरन्दर सिंह को गद्दी पर बैठाने की तैयारी चल रही थी लेकिन रूपसिंह को उस समारोह को देखने का मौक़ा नहीं मिला। उसे स्वर्गदेव चन्द्रकान्त को जोरहाट में ही तारातली नामक स्थान पर छोड़कर आने की जिम्मेवारी दी गयी।

रूपसिंह को तारातली की बड़े-बड़े मच्छरों और कीड़े मकोड़ों से भरी हुई जगह को देखकर चन्द्रकान्त की तक़दीर पर अफ़सोस हुआ था। सप्ताह भर बाद रूपसिंह को फिर से चन्द्रकान्त से मिलने के लिए जाना पड़ा।

दरअसल रुचिनाथ का एक भाई विश्वनाथ भी गौहाटी से जोरहाट लौट आया था। वह रुचिनाथ को बिना बताये तारातली में चन्द्रकान्त के पास जाना चाहता था। और उसने रूपसिंह को अपने साथ कर लिया। विश्वनाथ के तारातली जाने का उद्देश्य रूपसिंह को समझ में नहीं आया था। तारातली पहुंचकर रूपसिंह चन्द्रकान्त के ठहरने की जगह के बाहर ही रुकना चाहता था लेकिन विश्वनाथ ने कहा कि वह भी साथ चले और उसे एक क्षण के लिए भी अकेला न छोड़े। तारातली में रूपसिंह ने देखा कि चन्द्रकान्त का चेहरा मच्छरों के काटने के कारण सूज गया है। विश्वनाथ ने चन्द्रकान्त की अवस्था पर अफ़सोस जाहिर किया और कहा कि वह रुचिनाथ बुढ़ागोहाईं से कहकर उनके लिए अच्छी जगह की व्यवस्था करवा देगा। फिर उसने बग़ल से एक छोटी-सी पोटली निकाली और कहा कि राजमाओ ने आपके लिए ये कुछ पीठा भेजे हैं। यह कहकर वह चन्द्रकान्त के पास गया और अचानक वह कर डाला जिसकी चन्द्रकान्त को क्या रूपसिंह को भी उम्मीद नहीं थी। पोटली में एक छुपा हुआ छूरा था। विश्वनाथ ने छूरा हाथ में लेकर फुर्ती से उसका दाहिना कान काट डाला। चन्द्रकान्त अपनी पूरी ताकत के साथ चिल्लाया। इधर विश्वनाथ ने ख़ून से सना कान हाथ में लेकर रूपसिंह को तुरन्त बाहर निकलने का इशारा किया। दोनों क्षण भर में वापस रास्ते पर थे। बन्दीगृह के संतरी ने बुढ़ागोहाईं के भाई को रोकने का साहस नहीं किया। पीछे से चन्द्रकान्त के चिल्लाने की आवाज़ अब भी आ रही थी।

यही सब सोचते हुए रूपसिंह अपने तम्बू में घुसा तो उसने पाया कि तम्बू में उसके साथ सोने वाले बाकी साथी खर्राटे ले रहे हैं।

फिर से बर्मी सेना

रूपसिंह को साफ़ याद है तारातली की कान काटने वाली घटना दौल उत्सव या होली से सिर्फ़ दो दिन पहले घटी थी। इसके बाद आठ-नौ महीने तक रुचिनाथ बुढ़ागोहाहाईं उसे इधर-उधर के छोटे-मोटे काम सौंपते रहे। काति बिहू आने पर रूपसिंह ने मन बना लिया कि इस बार जैसे भी हो वह होली पर अपने देस पहुँच जायेगा। इसके लिए वह बुढ़ागोहाईं देउता से प्रार्थना करने के लिए किसी अच्छे अवसर की तलाश में था। लेकिन तभी एक दिन बुढ़ागोहाईं ने उसे अपने पास बुलाया और गुप्तचरों की लायी इस सूचना के बारे में बताया कि फिर से बर्मी सेना आसाम की ओर बढ़ रही है। पिछली बार बदन बरफूकन ने बर्मी सेना को रास्ता दिखाया था और इस बार कोई पटलांग सेनापति इस सेना के साथ था। रूपसिंह की देस जाने की योजना पर पानी फिर गया। रुचिनाथ की जान को ख़तरा था और वह रात-दिन रुचिनाथ के साथ चिपका रहता। रात को भी वह रुचिनाथ के कक्ष के बाहर ही सोता और जरा-सी आहट होते ही जग पड़ता।

ब्रिटिश वर्दी पहने हिन्दुस्तानी और असमिया सिपाहियों की मदद से उनलोगों ने चन्द्रकान्त को तो आसानी से हरा दिया था लेकिन बर्मी सेना के सामने ये सिपाही अधिक समय तक नहीं टिक पायेंगे यह बात रुचिनाथ अच्छी तरह जानता था। उसने अपने भाई जगन्नाथ को आदेश दिया कि वह आसपास के सरदारों को लड़ाई के लिए अधिक से अधिक लोग भेजने का आदेश देते हुए हरकारे भेजे। माघ बिहू को गुज़रे मुश्किल से एक महीना हुआ होगा कि बर्मी सेना जोरहाट के पास झाँजी तक आ धमकी। वहां जगन्नाथ पहले से अपनी सेना के साथ डटा हुआ था।

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उपन्यास अंश जारी है – आप अगले सप्ताह इसकी तीसरी किश्त पढ़ेंगे.

उपन्यास “डॉ वेड की डायरी – असम में अंग्रेज़ी राज की शुरुआत”अमेज़न पर यहाँ उपलब्ध है।

विनोद रिंगानिया (जन्म : 1962, असम में), कई दशकों तक गुवाहाटी से प्रकाशित हिन्दी समाचारपत्रों का सम्पादन तथा स्तम्भ लेखन। प्रमुख असमिया कवियों का हिन्दी में अनुवाद। यूरोप के अलावा लगभग 12 देशों की यात्राएँ। कथेतर साहित्य में यात्रा वृतान्त ट्रेन टू बांग्लादेश तथा असम : कहाँ-कहाँ से गुज़र गया प्रकाशित। साहित्य अकादेमी पुरस्कृत असमिया कवि हरेकृष्ण डेका का अनूदित कविता संग्रह कोई दूसरा और असमिया कवि अनीस उज़् ज़मां का अनूदित कविता संग्रह हरा चाँद प्रकाशित। यात्रा वृतान्त ट्रेन टू बांग्लादेश असमिया में भी प्रकाशित। असमिया कवि नीलिम कुमार की अनूदित आत्मकथा एक बनैले सपने की अन्धयात्रा रज़ा फाउन्डेशन, भोपाल से प्रकाशित। कहानियाँ समकालीन भारतीय साहित्य, दोआबा सहित विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित।

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