डॉ वेड की डायरी – उपन्यास अंश (3)

असम में खूब चर्चित और असम के बाहर भी अपनी अच्छी पहचान बना चुके साहित्यकार विनोद रिंगानिया ने अपने हाल ही में प्रकाशित ऐतिहासिक उपन्यास “डॉ वेड की डायरी – असम में अंग्रेज़ी राज की शुरुआत” का एक बड़ा अंश हमें भेजा है। हम प्राप्त अंश को साप्ताहिक किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं। इसकी पहली और दूसरी किश्तें आप क्रमश: यहाँ और यहाँ पढ़ चुके हैं।लीजिए प्रस्तुत है इस बहुचर्चित उपन्यास की तीसरी किश्त!

विनोद रिंगानिया*

इन्तज़ार के दिन

बंगाल के चिलमारी में आषाढ़ महीने में उतनी ही गर्मी पड़ती है जितनी आसाम में। यहाँ हर बुधवार को हाट बैठती है। रूपसिंह एक बड़ा-सा थैला लिये हाट में घूम रहा है। सप्ताह भर के लायक खाने-पीने की चीज़ें उसे आज ही खरीद लेनी है। हाट की भीड़ में भी लोग रूपसिंह का डीलडौल देखकर उसके लिए पहले ही रास्ता छोड़ देते हैं। रूपसिंह सामने से आते एक आदमी को देखता है तो उसका मुँह खुला का खुला रह जाता है। वह आलू सिंह है। कभी वे दोनों एक साथ बदन चन्द्र के अंगरक्षक के रूप में नियुक्त थे। रूपसिंह आलू सिंह को एक किनारे ले जाता है। एक बुढ़िया अपनी दुकान में दही-चिउड़ा बेचती है, दोनों उसी की दुकान पर जाकर बैठते हैं।

आलू सिंह दरअसल जोरहाट की ख़बरें रुचिनाथ बुढ़ागोहाईं को देने के लिए आया है। इसके पीछे है सोने की एक मुद्रा पाने का लालच। यह एक ख़तरे से भरा काम है। आलू सिंह बताता है कि जोरहाट में इस समय बर्मी सेनापति बाडुपाया और सजाती फूकन का अत्याचार चरम पर है।

“भैया, आपलोगों ने अच्छा किया कि उस दिन झांजी की लड़ाई के बाद ही वहाँ से भाग आये।” आलू सिंह के पास बताने के लिए बहुत कुछ था। उसने निर्भयनारायण और धनी बरबरुवा के बारे में जो बताया उसके बाद रूपसिंह से दही-चिड़वे का एक निवाला भी मुँह में नहीं लिया गया। उसने वह मिट्टी की कटोरी बग़ल में रख दी। आलू सिंह ने बताया कि वे लोग बदन चन्द्र के ख़िलाफ विद्रोह करने वाले लोगों को खोज-खोज कर उनकी हत्याएँ कर रहे हैंं। निर्भयनारायण को तो आसान मौत मार दिया गया। क्षण भर में उनका सर तलवार से काट दिया गया। लेकिन जब आलू सिंह ने बताया कि किस तरह धनी बरबरुवा को बीच चौराहे पर खड़ाकर उनका पेट बीच से चीर दिया गया और उनकी अँतड़ियाँ निकालकर उसके मुँह में डाल दी गयीं तो रूपसिंह जैसे कठोर इंसान को भी, जिसे ठीक से याद नहीं कि अब तक कितनों को उसने मौत के घाट उतारा है, अपनी पीठ से ठण्डा पसीना बहता हुआ महसूस हुआ। रूपसिंह को याद आया किस तरह राजमाओ के कमरे में उस दिन रात के अँधेरे में निर्भयनारायण और धनी बरबरुवा ने बदन चन्द्र को जान से मारने की सारी योजना उसे समझायी थी।

झाँजी की लड़ाई से उस दिन जगन्नाथ ढेकियाल फूकन भागकर जोरहाट लौट आया था। रुचिनाथ के पास जब वह आया तो उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी। काँपते हुए उसने जैसे-तैसे रुचिनाथ को यह बताया कि अब यहाँ से रातोंरात निकल चलने में ही समझदारी है। बर्मियों का मुक़ाबला करने की कूवत हमारे सैनिकों में नहीं है। ब्रिटिश सेना की वर्दी पहने हुए सैनिकों की असलियत से भला रुचिनाथ से अधिक कौन जानता था। दोनों भाइयों ने उस दिन एक क्षण भी और गँवाये बिना जोरहाट से भागने की तैयारी शुरू कर दी थी। सबसे पहले रूपसिंह को साथ लेकर रुचिनाथ ने ख़ज़ाने को छोटी-छोटी थैलियों में भरना शुरू किया। इसके बाद रूपसिंह को घाट पर भेज दिया यह पक्का करने के लिए कि कम-से-कम ग्यारह नौकाएँ बिल्कुल तैयार रखी जायें। अँधेरा होते ही वे लोग जोरहाट से निकल चलेंगे।

उस दिन अँधेरा होते ही रुचिनाथ, जगन्नाथ और रुचिनाथ के कई निकट सम्बन्धी नावों में सवार होकर जोरहाट से निकल लिये। रूपसिंह को याद है ख़ज़ाने की थैलियाँ साथ होने के कारण बुढ़ागोहाईं देउता ने उसे भी अपनी नौका पर रहने का निर्देश दिया था। नौका के अन्दर बने कक्ष में रुचिनाथ बुढ़ागोहाईं अपनी पत्नी पिजौ गाभरू के साथ थे और रूपसिंह बाहर बैठा कुछ सोच रहा था। वह यही सोच रहा था कि पिजौ गाभरू उसके बारे में क्या सोच रही होंगी। उसके पिता के हत्यारे को उसके पति ने कक्ष के बाहर उनकी हिफ़ाज़त के लिए तैनात किया है! राजनीति के खेल भी निराले हैं, रूपसिंह ने आसमान के तारों की ओर देखते हुए सोचा। उनके जोरहाट से निकलने के एक घण्टे बाद सैनिकों की कई नौकाओं को भी जोरहाट से निकल जाना था। शायद वे नौकाएँ भी पीछे-पीछे आ रही होंगी। उनके पास चार सौ बन्दूकें और आठ-नौ मन बारूद है।

रूपसिंह ने बुढ़िया को दही-चिड़वा की कीमत चुकाते हुए आलू सिंह से पूछा–“और सुनाओ, और क्या चल रहा है वहाँ?”

“चन्द्रकान्त देउता को वापस स्वर्गदेव की गद्दी पर बैठा दिया गया है।”

“अच्छा, उनका एक कान कटा होने के बावजूद?”

“अब जोरहाट में किसमें इतनी हिम्मत है कि बर्मियों के विरुद्ध आवाज़ उठाये। सभी मन्त्री-सामन्त सुबह सोकर उठते हैं तो उन्हें पता नहीं होता कि कल का सूरज देख पायेंगे या नहीं।…इस बार बर्मी कमाण्डर मिंगीमाहा तिलवा के साथ उपमा आईदओ को आवा भेजा गया है।”

“अच्छा, उपमा आईदेओ। ये किसकी कुँवरी हैं, कभी नाम नहीं सुना?”

“मैं भी ठीक से नहीं जानता।…पटलांग सेनापति को मिंगामाहा ने बरबरुवा बना दिया है। मिंगामाहा तो कब का वापस आवा लौट गया। अब जोरहाट में पटलांग की ही तूती बोलती है।” आलू सिंह थोड़ी देर ठहरकर बोला–“एक बात बताऊँ। पटलांग ने स्वर्गदेव की बहन माजिउ आईदेउ के साथ शादी भी कर ली है।”

रूपसिंह ने देखा कि बुढ़िया की दुकान पर ग्राहकों की भीड़ हो गयी है। यहाँ ठीक से बातचीत नहीं हो सकती। उसने आलू सिंह को पास ही एक दूसरे खोखे में चलने का आग्रह किया। उस खोखे में कुछ हिन्दुस्तानी बरकन्दाज़ जुआ खेल रहे थे। बीच में हुक्का रखा हुआ था। आलू सिंह ने देखा कि सभी  बरकन्दाज़ रूपसिंह को जानते थे और उन दोनों के अन्दर प्रवेश करते ही उनके लिए जगह खाली कर दी। वे दोनों एक किनारे बैठ गये। एक बरकन्दाज़ ने हुक्का रूपसिंह की ओर सरका दिया।

रूपसिंह माजिउ आइदेउ का नाम सुनते ही चौंका। वह स्वर्गदेव की इस बहन से अच्छी तरह परिचित था। “माजिउ आइदेउ, लेकिन उनका विवाह तो विश्वनाथ मरङीखोवा के साथ हो चुका था?”

“तुम पुरानी बात कह रहे हो। उसके बाद तो बहुत सारी घटनाएँ घट गयीं। विश्वनाथ और स्वर्गदेव के परिवार के बीच आज के दिन भयंकर दुश्मनी है। स्वर्गदेव ने ही कहा था कि वह अपनी बहन को वापस बुलाकर उसकी शादी पटलांग से करवा देंगे।”

राजाओं के ढंग ही निराले हैं, रूपसिंह ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा और हुक्का पीने लगा। “आख़िर यह पटलांग है कौन? क्या वह बर्मी है कि स्वर्गदेव उससे इतना डरते हैं?”

“बहुत से लोग पटलांग को बर्मी समझते हैं क्योंकि वह बर्मियों की तरह ही धाराप्रवाह उनकी भाषा बोलता है। लेकिन दरअसल वह एक असमिया है। यह बहुत पुरानी कहानी है। एक समय सीमा पर सिंगफो लोगों का आतंक बहुत बढ़ गया था। वे लोग असमिया गाँवों पर धावा बोलते और जवान लोगों को पकड़कर ले जाते। ऐसे लोगों को वे लोग ग़ुलाम बना लेते थे। पूर्णानन्द बुढ़ागोहाईं ने उन दिनों पटलांग को नामरूप में नियुक्त किया था ताकि वह सिंगफो आदिवासियों को काबू में करे और ग़ुलाम बना लिये गये असमिया लोगों को छुड़ाकर वापस लाये। उन्हीं दिनों पटलांग ने पूर्णानन्द बुढ़ागोहाईं के सामने यह योजना रखी कि सिंगफो लोगों का दमन करने के लिए बर्मियों की मदद ली जानी चाहिए।”

“अच्छा, मुझे इसके बारे में कुछ भी नहीं पता।”

“यह बिल्कुल सही बात है। बुढ़ागोहाईं को यह योजना अच्छी लगी और उन्होंने पटलांग को बर्मा जाने की अनुमति दे दी।…बर्मा जाने के बाद पटलांग का भाग्य ही बदल गया। पटलांग ने सोचा कि थोड़े दिन बर्मी सेना में काम करके वहाँ के राजा को खुश किया जाये। उन दिनों वहाँ बोडापाया का राज चलता था। सचमुच पटलांग ने अपनी बहादुरी से बोडापाया को खुश कर दिया और ईनाम में उसे अराकान भेज दिया गया। फिर पटलांग ने पीछे मुड़कर नहीं देखा, न ही उसे बुढ़ागोहाईं से किये गये वादे की याद आयी। याद कैसे आती, उसे बोडापाया ने अराकान के एक हिस्से का गवर्नर बना दिया था। वह आधा बर्मी बन चुका था। इतने सालों के बाद वह कियामिंगी के साथ हमलावर बनकर वापस आसाम लौटा है।”

रूपसिंह ने हुक्का आलू सिंह की ओर बढ़ा दिया। उसे अपने ऊपर क्षोभ हुआ कि वह भी तो हमेशा राजपरिवार के आसपास रहता आया है, फिर क्यों उसे इन सबके बारे में कुछ भी पता नहीं है।

आलू सिंह कब चिलमारी से वापस आसाम लौट गया रूपसिंह को पता ही नहीं चला। रूपसिंह सिर्फ़ यह जानना चाहता था कि उसे ईनाम में क्या मिला। वह ऐसी ज़रूरी सूचनाएँ लाया था कि ज़रूर बुढ़ागोहाईं देउता ने उसे सोने की मोहर दी होगी। सोने की मोहरों में बहुत ताकत है। तभी तो रंगपुरा में मजिस्ट्रेट साहब के दफ़्तर का बड़ा बाबू गांगुली गाहे बगाहे चिलमारी चला आता है। आलू सिंह को वापस आसाम गये डेढ़ महीना हो गया है और अब सावन की बारिश ने चिलमारी की उमस भरी गर्मी से थोड़ी राहत दिलायी है।

उस दिन रविवार था और बुढ़ागोहाईं कहीं निकले हुए थे। रूपसिंह को भी पता नहीं था कहाँ गये हैं। तभी वह गांगुली अपनी कलफ़ दी हुई धोती का एक सिरा हाथ में सँभाले उनके डेरे पर आ गया। बुढ़ागोहाईं के लौटने का इन्तज़ार करते हुए वह रूपसिंह के पास ही बैठ गया। उस दिन बड़े बाबू ने रूपसिंह को कई चौंकाने वाली बातें बतायीं। उसने बताया कि अब आसाम देश जल्दी ही कम्पनी बहादुर के हाथ में आने वाला है। गांगुली ने बताया कि राजा पुरन्दर सिंह ने मजिस्ट्रेट साहब को पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने कम्पनी से उनका राज वापस दिलाने में मदद करने की गुहार लगायी गयी है। गांगुली ने बताया कि पत्र में राजा साहब ने साफ़ लिखा है कि यदि उन्हें उनका राज वापस दिला दिया जाये तो वह कम्पनी को सालाना लगान देता रहेगा, या यदि कम्पनी चाहे तो आसाम का एक हिस्सा हमेशा के लिए कम्पनी को दे सकता है। इसके अलावा सैनिकों को भेजने पर जो खर्च आयेगा वह सारा खर्च भी देगा। गांगुली ने बताया कि उस पत्र का मजमून दरअसल उसी ने तैयार किया था। रूपसिंह पहले से जानता है गांगुली को डींग हाँकने की आदत है। वह बिना रुके बोले जा रहा था –

“जानते हो, क्या नाम बताया तुमने अपना…हाँ रूपसिंह, तो रूपसिंह, हमने पत्र में लिख दिया कि भारत से लेकर इंग्लैंड के बीच दूसरी कोई ऐसा जगह नहीं है जहाँ मैं शरण के लिए लिख सकता हूँ। सिर्फ़ कम्पनी बहादुर ही है जिससे कोई उम्मीद की जा सकती है। इंग्लैंड दुनिया का गौरव और मज़लूमों की शरणस्थली है।”

हुक्के की आग बुझ चुकी थी। रूपसिंह आग लाने घर के अन्दर चला गया। वापस आया तो देखा कि गांगुली बोलने के लिए बेचैन हो रहा था। उसकी बात आधे में रुक जो गयी थी। वह बोला–“अब कलकत्ता जाने के लिए तैयार हो जाओ। मजिस्ट्रेट साहब ने राजा का पत्र बड़े साहबों को भेज दिया है। कभी भी कलकत्ता से बुलावा आ सकता है। राजा का प्रस्ताव ही ऐसा है कि किसी के भी मुँह में पानी आ जायेगा।”

पेड़ की छाँव में दफ़्तर और रॉबर्ट ब्रुस

मार्च 1826। क़ाफ़िला समतल भूमि पर उतर चुका था। इससे इंसानों को ही नहीं हाथियों और सामान ढोने वाले गधों को भी काफी आराम मिला। एक ऊँचे पलाश के पेड़ के नीचे आज फिर से मण्डली जम  गयी थी। गन्धूला और रूपसिंह पहले से ही जमे हुए थे और थोड़ी ही देर में देखा महेश्वर फूकन भी एक सेवक का हाथ थामकर वहाँ आ गये। महेश्वर फूकन ने आकर ठीक से सांस भी नहीं ली और रूपसिंह को एक प्रश्न दाग दिया।

“अच्छा, रूपसिंह मैंने कल सुना है कि कम्पनी बहादुर कुँवर पुरन्दर सिंह को राजा बनाना चाहती है। क्या यह सच है? तुमने तो बताया था कि स्कॉट साहब ने पुरन्दर और रुचिनाथ का साथ देना छोड़ दिया। तो क्या अब कम्पनी में स्कॉट साहब को छोड़कर और किसी का हुक्म चलने लगा है?”

“हाँ देउता, मैंने भी कल ऐसी ही ख़बर सुनी है। इधर के गाँवों में पता नहीं कहाँ से इस तरह की ख़बरें उड़कर आ रही हैं। मैं तो आपको वही बता सकता हूँ जो मैंने अपनी आँखों से देखा है।” रूपसिंह इतना बोलकर रुका। दूर एक तम्बू में दो लोगों के झगड़ने की आवाज़ आ रही थी, सो गन्धूला का ध्यान उधर चला गया था। थोड़ा ध्यान देने पर पता चल गया कि वे लोग झगड़ नहीं रहे हैं। कुछ लोग बोलते ही इस तरह हैं कि लगता है झगड़ रहे हों। शायद देस पहुँच जाने की खुशी में उनका स्वर और तेज़ हो गया हो।

“यह अधिक नहीं चार साल पहले की बात है। वह अंग्रेज़ी कैलेण्डर का 22 वाँ साल था। क्योंकि चिलमारी में लोग बातचीत में बाईस शब्द का बार-बार उल्लेख करते थे इसलिए मुझे याद रह गया। उस साल मैं एक बार देस-गाँव हो आया था। वापस आकर देखा तो लगा कि रुचिनाथ देउता की मुझे वापस काम पर रखने की मंशा नहीं है। देउता, हमारी यही ज़िन्दगी है, आज इसके ख़ातिर जान की बाजी लगा देते हैं, तो कल दूसरे पाले में नज़र आते हैं। जब लगा कि मुझे कामकाज का कोई और ठौर-ठिकाना खोजना होगा तो मैंने बड़े बाबू को पकड़ा। बड़े बाबू ने मुझे इस्कॉट साहब की ख़िदमत में लगा दिया।” रूपसिंह एक साँस में इतना कुछ कह गया।

“वह आषाढ़ का महीना था और बारिश नहीं होने केे कारण भीषण गर्मी और उमस थी। साहब ने बाहर एक बरगद के पेड़ के नीचे ही मेज-कुर्सियाँ लगाने का आदेश दिया। उस दिन दफ़्तर वहीं लगना था। उस दिन रुचिनाथ देउता और कुँवर इस्कॉट साहब से मिलने आये थे।”

“कुँवर कौन?” महेश्वर फूकन ने पूछा।

“कुँवर पुरन्दर सिंह। मैं साहब के ठीक पीछे खड़ा होकर बड़ा-सा पंखा झल रहा था। मैं उनकी बातें सुनकर भी सुन नहीं रहा था। मेरा मन कहीं और ही था। तभी जब साहब ने तेज़ स्वर में रुचिनाथ देउता और पुरन्दर सिंह देउता को डाँटना शुरू कर दिया तो मेरा ध्यान वहाँ हो रही बातचीत पर लौटा। साहब अपने ऊपर नियन्त्रण रखना जानते थे और जल्दी से अपना आपा नहीं खोते थे। ऐसा क्या हो गया कि आज साहब को गुस्सा आ रहा है।

“साहब मेरे दोनों पुराने मालिकों को यह कहकर डाँट रहे थे कि वे लोग बर्मियों को उकसाना बन्द करें। जब रुचिनाथ देउता ने कहा कि उनलोगों ने ऐसा कुछ नहीं किया तब साहब का स्वर तेज़ हो गया। साहब के पास ग्वालपाड़ा से थोड़ी दूर घटी उस घटना के बारे में पूरी सूचना थी। उन्होंने बताया कि रास्ता भटक गये दो घुड़सवार बर्मी सैनिकों को कुछ असमिया शरणार्थी बाँधकर ब्रिटिश इलाके में ले आये थे और वहाँ उन्हें कुछ दिन यातनाएँ देने के बाद छोड़ दिया गया था। साहब का कहना था कि ऊपर से शह मिले बिना असमिया शरणार्थी ऐसा करने का दुस्साहस कर सकते।

“दरअसल गर्मी और उमस इतनी थी कि किसी का भी दिमाग गर्म हो सकता था। साहब के बिना माँगे ही मैं अन्दर जाकर घड़े का ठण्डा पानी ले आया। मेरी यह युक्ति काम कर गयी। पानी पीने के बाद साहब ने अपने आपको फिर से संयत कर लिया। फिर उन्होंने उन दोनों को एक राज़ की बात बतायी।

“उन्होंने बताया कि एक सप्ताह पहले ही एक बर्मी हरकारा उनके पास आया था। उसे  साहब ने अपनी कलाई पर बँधी घड़ी उपहार में दी जिसके बाद उसने यह बात उगल दी कि बर्मी सेनापति मिंगीमाहा तिलवा ने बीस हजार सैनिक लेकर ब्रिटिश इलाके पर हमला करने की योजना बनायी थी। लेकिन बाद में पता नहीं किस कारण से तिलवा ने उस योजना को अंजाम नहीं दिया।”

“सुना है किसी एक फिरंगी ने लड़ाई में पुरन्दर की काफी मदद की। क्या उसी की सिफारिश पर पुरन्दर को राजा बनाया जा रहा है?” गन्धूला ने रूपसिंह से पूछा।

“शायद आप उस रॉबर्ट बुरुस की बात कर रहे हैं। आपकी जानकारी अधूरी है। किसी समय वह कुँवर के साथ था। जब कुँवर ने भूटान होकर गुवाहाटी की ओर बढ़ना शुरू किया था तब रॉबर्ट बुरुस की सलाह पर ही सैनिकों की भर्ती की गयी थी। बुरुस को मैंने काफी नज़दीक से देखा है। वह कोई भरोसे का आदमी थोड़े है। सन् इक्कीस में बर्मियों को यह पक्की ख़बर लग गयी थी कि बदन बरफूकन की हत्या चन्द्रकान्त देउता ने ही करवायी थी। इसके बाद उन लोगों का चन्द्रकान्त देउता पर से भरोसा उठ गया और उनको गद्दी से हटाकर जोगेश्वर को स्वर्गदेव बना दिया। इसके बाद चन्द्रकान्त देउता गौहाटी भाग गये जहाँ उनकी पहली बार बुरुस से मुलाक़ात हुई। पता नहीं क्यों उस फिरंगी को लगा कि चन्द्रकान्त देउता में जो चीज़ है वह कुँवर पुरन्दर में नहीं और उसने पाला बदल लिया। चन्द्रकान्त देउता को वह ग्वालपाड़ा ले गया जहाँ ब्रिटिश राज की सुरक्षा में चन्द्रकान्त देउता को थोड़ा सुस्ताने का मौका मिल गया।” रूपसिंह को ख़ुद अपने ऊपर आश्चर्य हो रहा था कि कैसे उसे इतनी सारी बातें याद हैं।

“सन् इक्कीस की सर्दियाँ शुरू होने से पहले की बात है। तब तक मैं इस्कॉट साहब की ख़िदमत में लग चुका था। एक दिन अचानक देखा कि चन्द्रकान्त देउता एक फिरंगी के साथ साहब के दफ़्तर की ओर आ रहे हैं। स्वर्गदेव देउता भी मुझे देखकर चौंके। मैंने थोड़े शब्दों में बता दिया कि आजकल कम्पनी की सेवा में लगा हुआ हूँ। वह स्थान और समय ऐसा नहीं था कि स्वर्गदेव देउता इससे अधिक कुछ पूछते। उन दोनों के अन्दर दाखिल होने के बाद मैं किसी न किसी बहाने से अन्दर जाता रहा और यह जानने की कोशिश करता रहा कि आख़िर यह फिरंगी कौन है और देउता उसके साथ इस्कॉट साहब के पास क्या करने आये हैं।” रूपसिंह बोला।

“तुम्हें तब तक यह पता नहीं था कि बर्मियों ने चन्द्रकान्त को गद्दी से हटा दिया है?” महेश्वर फूकन ने पूछा।

“दरअसल मैं नहीं कह सकता कि मुझे पता नहीं था। इस्कॉट साहब ने आसाम की ख़बरें लाने के लिए जिन जासूसों को तैनात किया था वे हमारे हिन्दुस्तानी भाई ही थे। काम हो जाने के बाद हम एक साथ बैठकर ही चिलम फूँका करते थे। उसी दौरान ये ख़बरें हमें पता लगती थीं। फिरंगी के बारे में तो मुझे बाद में बड़े बाबू गांगुली ने बताया कि उसका नाम रॉबर्ट बुरुस है और वह बड़ा ही घाघ आदमी है।”

“हाँ, तो अन्दर जाकर तुम्हें क्या पता लगा?” महेश्वर फूकन बीच में टोककर पूछा।

“अन्दर दरअसल सारी बातें वह बुरुस ही कर रहा था। वे लोग अपनी भाषा में बोल रहे थे और मेरे कुछ पल्ले नहीं पड़ा। बाद में मैंने मौक़ा देखकर बड़े बाबू से पूछा कि वे लोग क्यों आये थे। तब गांगुली ने बताया कि बुरुस ने साहब को यह यकीन दिला दिया है कि चन्द्रकान्त देउता को यदि कम्पनी की थोड़ी मदद मिल जाये तो वह बर्मियों को वापस खदेड़ने की कूवत रखता है। साहब को यह यकीन हो गया कि ज़रूरत चन्द्रकान्त देउता के हाथ मजबूत करने की है। उन्हें लगा कि रुचिनाथ देउता और कुँवर पुरन्दर को मदद देने से उन्हें कोई फ़ायदा नहीं है। गांगुली ने बताया कि आज ही सरकारी आदेश जारी हो गया है बुरुस को 300 बन्दूकें और 90 मन बारूद खरीदने की अनुमति देने का।”

“लेकिन चन्द्रकान्त बर्मियों को रोक तो नहीं पाया न।” महेश्वर फूकन बोले।

“ऐसा नहीं है देउता। पहले-पहले चन्द्रकान्त देउता को अच्छी कामयाबी हाथ लगी। उन्होंने बंगाल की सीमा से सटने वाले सभी जिलों से बर्मियों को खदेड़कर वहाँ अपना राज स्थापित कर लिया।”

“अच्छा!” इस बार महेश्वर फूकन और गन्धूला दोनों एक साथ बोले।

“हाँ, लेकिन यह सब ज़्यादा दिन नहीं चला। छह महीने बीतते न बीतते आवा के राजा ने एक और सेनापति को एक बड़ी सेना के साथ आसाम भेज दिया था। यह सन् बाईस के बैशाख के आसपास की बात है। क्या तो नाम था उस सेनापति का…हाँ याद आया। मिंगीमाहा बन्दूला। कैसे विचित्र नाम रखते हैं ये लोग।”

“अच्छा! हम वहाँ आवा में ही थे और हमें इसके बारे में पता भी नहीं चला।” गन्धूला बोला।

“दरअसल साहब के नियुक्त किये जासूसों के मार्फत सारी खबरें बंगाल में नियमित रूप से पहुँचती रहती थीं। आपको तो यह भी पता नहीं होगा सीमा के पास महगढ़ में आसाम की सेना और बर्मियों के बीच भयंकर लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई में हारने के बाद चन्द्रकान्त देउता का हौसला टूट गया और वे भागकर फिर से ग्वालपाड़ा चले गये।”

“तब भी क्या जोगेश्वर ही स्वर्गदेव बना रहा?” फूकन ने पूछा। “नहीं। इस बार तो बर्मियों ने हद ही कर दी। मिंगीमाहा तिलवा ने इस बार जोगेश्वर को हटाकर ख़ुद को आसाम का राजा घोषित कर दिया। देउता, इस घटना के बाद कम्पनी का माथा ठनका। गांगुली मुझे बताया करता था। कलकत्ता से हमारे साहब को इस बात का अधिकार नहीं दिया गया था कि वे आसाम में सीधे कुछ करें। उनका बार-बार यही कहना होता था कि हमारे देश का कानून हमें इस बात की इजाज़त नहीं देता। लेकिन अब जब ग्वालपाड़ा के आसपास बर्मी सैनिक दिखायी देने लगे तब जाकर कलकत्ता वालों को होश आया। उन दिनों हमारे इस्कॉट साहब भी काफी परेशान रहने लगे। वह जो मैंने बरगद के पेड़ के नीचे रुचिनाथ देउता और पुरन्दर कुँवर को डाँटने का वाकया बताया वह इन्हीं दिनों का है। फिर एक दिन वह ख़बर आ गयी जिसकी साहब को कई महीनों से आशंका थी।” इतना कहकर रूपसिंह ने अपने होठों पर जीभ फेरी। उसे पानी की ज़रूरत थी।

बर्मियों की अजीब प्रतिस्पर्धा

1826। तीनों सुबह से ही चल रहे थे। धूप के कारण चलने में दिक्कत होने लगे उससे पहले ही वे लोग अच्छा-खासा रास्ता पार कर लेना चाहते थे। गन्धूला ने अंदाज़ लगाया अभी नदी का किनारा यहाँ से चार-पाँच मील पहले नहीं होना चाहिए। किसी से पूछ भी नहीं सकते क्योंकि सुबह से अब तक किसी इंसान के दर्शन नहीं हुए। रूपसिंह और जुहान सिंह साथ-साथ चल रहे थे जबकि गन्धूला बार-बार पिछड़ जाता था। उसे साथ करने के लिए वे दोनों रुक जाते थे। भूख तीनों को ही लगी थी। गन्धूला के पास एक छोटी पोटली में थोड़े-से चावल थे लेकिन उन्हें पकाये कैसे।

एक घना बरगद का पेड़ दिखा तो रूपसिंह और जुहान सिंह ने गन्धूला का चेहरा देखा और सोचा कि अब ख़ुद के लिए नहीं तो गन्धूला के लिए ही थोड़ा सुस्ताना होगा।

खाने का क्या इन्तज़ाम किया जाये यह सोचते हुए गन्धूला पास ही अरण्डी की झाड़ी में घुसता है कुछ सूखी लकड़ियाँ लाने के लिए ताकि आग जलाकर चावल का पकाया जा सके। उसने देख लिया था कि पास ही एक पोखर था जिसके पानी में चावल पकाये जा सकते हैं। रूपसिंह और जुहान सिंह अपनी चिलम जलाने के बारे में सोच ही रहे थे कि गन्धूला उह् आह् करते हुए झाड़ी से बाहर निकल आया। उसके हाथ में गोल-गोल कुछ था जिसे वे दोनों दूर से ठीक से देख नहीं पाये। पास आने पर उन्हें दिखायी दिया कि गन्धूला के हाथ में एक छोटी-सी मानव खोपड़ी है। इतनी छोटी खोपड़ी यकीनन किसी बच्चे की ही हो सकती है। गन्धूला के पास आने पर रूपसिंह बोला–“अरे, यह तो इंसान की खोपड़ी है फेंक दो, फेंक दो।” गन्धूला अब तक पास आ चुका था। उसने कहा–“एक नहीं, वहाँ और भी कई खोपड़ियाँ हैं।”

तब तक एक पेड़ की ओट से एक स्त्री और पुरुष निकल आते हैं। औरत ने जैसे-तैसे एक कपड़े में अपना तन छिपा रखा था। पुरुष के तन पर भी घुटनों के ऊपर तक एक धोती थी। माथे पर चन्दन का टीका। दोनों ने गन्धूला से मुखातिब होकर फुसफुसाते हुए पूछा–“बोपा, तुम कहाँ से आये हो, लगते तो तुम इधर के ही हो, लेकिन इन डकैतों के साथ कैसे हो लिये?” उनका इशारा रूपसिंह और जुहान सिंह की ओर था जिनके कन्धे से बन्दूकें लटक रही थीं। गन्धूला डकैत शब्द पर हँसा और कहा, “खुरा, ये लोग डकैत नहीं हैं और न ही किसी को नुकसान पहुँचाते हैं। इनसे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। हमलोग बहुत दूर से आये हैं और मैं अपने खाने का इन्तज़ाम करने की थोड़ी ज़ल्दी में हूँ।”

चन्दन टीका लगाया व्यक्ति अपनी बात को लेकर थोड़ा शर्मिन्दा हुआ और कहा–“तुम बुरा बुरा मत मानना बेटा। ब्रिटिश के आने के बाद बर्मी तो चले गये लेकिन डकैतों का उत्पात अब भी जारी है। वैसे ही घरों में खाने को कुछ नहीं है, ऊपर से ये डकैत घर के बासन-बर्तन तक उठाकर ले जाते हैं। पहले हमारा घर भी यहाँ से आधा मील दूर नदी के किनारे था लेकिन डकैतों के डर से हम यहाँ पास के गाँव में आ गये हैं। डकैत वैसे ही घर को अपना निशाना बनाते हैं जो नदी के पास हो और गाँव से अलग-थलग हो।”

नदी शब्द सुनकर और यह जानकर कि नदी वहाँ से सिर्फ़ आधा मील ही दूर है तीनों के चेहरे खिल उठे। लेकिन गन्धूला झाड़ियों में मिली खोपड़ियों के बारे में जानना चाहता था। उसने चन्दन टीके वाले से पूछा–“चाचा, उधर झाड़ियों में बहुत सारी खोपड़ियाँ बिखरी पड़ी हैं, यह क्या माज़रा है?” गन्धूला के सवाल पर चन्दन टीके वाला सोच में डूब गया और माथा नीचे झुका लिया। गन्धूला कुछ समझा नहीं और उसने स्त्री की ओर देखा जो शायद चन्दन टीके वाले की पत्नी थी। स्त्री को जब लगा कि जवाब देना ही पड़ेगा तो उसने कहा, “हम दोनों ही वे फूटे भाग वाले हैं जिन्होंने उस दिन यहाँ बर्मियों का अत्याचार देखा था। इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, उस दिन हमारे एक सम्बन्धी की पड़ोस के गाँव में मृत्यु हो गयी थी और हम वहीं गये हुए थे। शाम को जब वापस आ रहे थे तब दूर से देखा कि आग की लपटें उठ रही हैं। हम जहाँ थे वहीं रुक गये और वहीं से अंदाज़ा लगाने लगे कि क्या हो रहा है। उन दिनों रोज ही बर्मियों के अत्याचार की ख़बरें आ रही थीं इसलिए हमने अंदाज़ा लगा लिया था कि हो न हो बर्मियों ने गाँव को आग लगा दी होगी। लेकिन उन लोगों ने जो किया उसके बारे में तो सपने में भी सोचा नहीं था।”

“क्यों, क्या किया था बर्मियों ने?” गन्धूला बोला। रूपसिंह और जुहान ने भी आपस में बात करना बन्द कर दिया था ताकि स्त्री की बातों को ध्यान से सुन सके।

“पूछो कि क्या नहीं किया था। उन लोगों ने सभी पुरुषों को तो पहले ही तलवार से टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। बिल्कुल छोटे बच्चों और जवान लड़कियों को अलग कर दिया था और बाकी सारी महिलाओं को गाँव के नामघर में बन्द कर बाहर से आग लगा दी थी। जो आग की लपटें हमने देखी थी वे उस नामघर से ही उठ रही थीं।”

स्त्री जिस गाँव की कहानी सुना रही थी वह वहाँ से थोड़ी ही दूर दिखायी दे रहा था। इससे पहले गन्धूला की उधर नज़र नहीं गयी थी। लेकिन अब वह सिर्फ़ उधर ही ताक रहा था। फिर उसने पूछा, आप इन खोपड़ियों के बारे में बता रही थीं। खोपड़ियों का नाम सुनते ही स्त्री की आवाज़ रुँध गयी। वह थोड़ी देर के लिए रुकी फिर कहना शुरू किया। “रात भर बर्मियों का तांडव चलता रहा और हम डर के मारे दूर झाड़ी में ही छिपे रहे। हम न तो गाँव में जा सकते थे और न ही वापस जाना हमारे लिए निरापद था। दूसरे दिन जब एक पहर बीत गया तो फिर से उन दरिन्दों की आवाज़ेंं आने लगीं। हमने सोचा अब क्या बाकी रह गया है। उनकी उत्तेजनापूर्ण आवाज़ों से ऐसा लग रहा था कि वे कोई खेल खेल रहे हैं। हम उत्सुकता के मारे झाड़ियों में छिपते-छिपाते गाँव के और पास आ गये।”

“यह वही स्थान था जहाँ हम सब अभी खड़े हैं। ऊपर देखो नारियल के पेड़ों पर एक भी नारियल नहीं दिखायी देगा।” अब तक अपने आपको संयत कर चुके चन्दन टीके वाले ने कहा। कैसा वही स्थान, उसका पेड़ों पर नारियल से क्या सम्बन्ध है? गन्धूला को कुछ समझ में नहीं आया।

“दूर होने के बावजूद हमें साफ दिखायी दे रहा था कि वे दरिन्दे एक खेल खेल रहे थे। वे किसी वजनदार चीज़ को ऊपर फेंकते थे और उससे नारियल तोड़ने का प्रयास कर रहे थे। हमारी जिज्ञासा बढ़ी कि आख़िर वे क्या ऊपर फेंक रहे हैं। आगे आने में खतरा था फिर भी मैं अपनी पत्नी को पीछे छोड़कर थोड़ा और आगे आ गया। लेकिन काश कि मैंने वह दृश्य नहीं देखा होता।”

“क्यों ऐसा क्या कर रहे थे वे लोग?”

“वे लोग जिस चीज़ को नारियल तोड़ने के लिए ऊपर फेंक रहे थे वह और कुछ नहीं छोटे-छोटे बच्चे थे। सभी माँ का दूध पीने वाले छोटे बच्चे। इन बच्चों को उन लोगों ने नामघर में बन्द करके जलाया नहीं था। उन्हें वे नारियल तोड़ने के लिए ऊपर उछाल रहे थे। और नारियल टूटने पर अट्टहास कर रहे थे। मैं डर के मारे फिर से वापस झाड़ियों में जाकर छिप गया।

“अड़तालिस घण्टे भूखे-प्यासे हम झाड़ियों में ही छिपे रहे। रात को बिल्कुल अँधेरे में चुपचाप नित्यक्रिया पूरी करने के लिए निकलते और फिर से झाड़ियों में छिप जाते। दो दिनों के बाद जब वे दरिन्दे यहाँ से चले गये तो दूसरी समस्या थी हमारे खाने-पीने की। इधर लाशों पर मँडराते चील-गिद्ध एक अलग ही समस्या थी। और पता नहीं कहाँ से इतने सारे सियार आ गये जो लाशों को नोच रहे थे। हम दोनों ने मिलकर जैसे-तैसे लाशों को घसीट-घसीटकर एक झोपड़ी में इकट्ठा किया और उसमें आग लगा दी। उसी झोपड़ी में हमने बच्चों की लाशों को भी जला दिया था। जली हुई लाशों की जो खोपड़ियाँ और हड्डियाँ बचीं उन्हें हमने पास ही झोपड़ी के पास ही एक गड्ढा खोदकर उसमें गाड़ दिया।”

गन्धूला और उसके दोनों साथियों के मुँह में जैसे जबान ही नहीं थी। तीनों के मुँह से एक शब्द नहीं निकल रहा था। थोड़ी देर में गन्धूला ने पूछा, “तो फिर ये खोपड़ियाँ?”

“दरअसल सियार और कुत्ते बच्चों की लाशों को खींच-खींचकर दूर तक ले गये। इसलिए हमें अब भी इधर-उधर बिखरी हुई ऐसी खोपड़ियाँ मिलती रहती हैं। इन्हें हम यहाँ झाड़ी में जमा कर रहे हैं और एक दिन गड्ढा खोदकर इन्हें भी गाड़ देंगे। सचमुच बहुत अत्याचार किया उन दरिन्दों ने।”

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उपन्यास अंश जारी है – आप अगले सप्ताह इसकी चौथी किश्त पढ़ेंगे.

उपन्यास “डॉ वेड की डायरी – असम में अंग्रेज़ी राज की शुरुआत”अमेज़न पर यहाँ उपलब्ध है।

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विनोद रिंगानिया (जन्म : 1962, असम में), कई दशकों तक गुवाहाटी से प्रकाशित हिन्दी समाचारपत्रों का सम्पादन तथा स्तम्भ लेखन। प्रमुख असमिया कवियों का हिन्दी में अनुवाद। यूरोप के अलावा लगभग 12 देशों की यात्राएँ। कथेतर साहित्य में यात्रा वृतान्त ट्रेन टू बांग्लादेश तथा असम : कहाँ-कहाँ से गुज़र गया प्रकाशित। साहित्य अकादेमी पुरस्कृत असमिया कवि हरेकृष्ण डेका का अनूदित कविता संग्रह कोई दूसरा और असमिया कवि अनीस उज़् ज़मां का अनूदित कविता संग्रह हरा चाँद प्रकाशित। यात्रा वृतान्त ट्रेन टू बांग्लादेश असमिया में भी प्रकाशित। असमिया कवि नीलिम कुमार की अनूदित आत्मकथा एक बनैले सपने की अन्धयात्रा रज़ा फाउन्डेशन, भोपाल से प्रकाशित। कहानियाँ समकालीन भारतीय साहित्य, दोआबा सहित विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित।

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2 COMMENTS

  1. बहुत रोचक। ऐतिहासिक घटनाओं की चर्चा भी ऐसी शैली में की गई है कि मन बँधा रहता है। नारियल फोड़ने बाला प्रसंग तो बड़ा डरावना है। इस झलक से लगता है कि उपन्यास पठनीय होगा।
    साधुवाद।

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