अजंता देव*
वह थोड़ा हंसा और सोचने लगा कि री की नज़र कहाँ-कहाँ जाती थी। उसे कई बार अपना जीवन बेस्वाद लगता था – वही एक कमरा, वही एक काम। सुबह से शाम हो जाती थी हर रोज़। उसे याद नहीं कि कब किस त्यौहार में उसने कुछ ऐसा देखा था जो अब तक याद हो। इधर री की बातें पढ़ो तो उसे बचपन में सुनी आवाज़े तक याद थीं। अभी जहाँ पढ़ते हुए वह रुका था – वहाँ री अलग अलग आवाज़ों को याद कर रही थी –
‘‘अब तो बरसों बीत गए – जाने कितनी आवाज़ें गायब हो गई हमारी जि़न्दगी से। कितने जानवर, कितने फेरीवाले और कितने ही कीड़ों की आवाज़ अब हमारे आसपास नहीं है। ये तब की बात है जब यह शहर बस कदलने के बीचोंबीच था। तब भी, यहाँ हर मोहल्ले में पशुओं के लिए एक बड़ी टंकी में रोज़ पानी भरा जाता था। कमरे में बैठे बैठे भी कोई बता सकता था कि कौनसा जानवर पानी पी रहा है – खेल रहा है – नहा रहा है। घोड़ों को तांगेवाले टंकी के पास ही बांध देते थे – ख़ुद सवारी के लौटने तक बीड़ी.वीड़ी पी लेते थे और घोड़े पानी पी कर मस्त हिनहिनाते थे। बकरियाँ मिमिया कर पानी में मुँह डाल देती थीं और ऊंट बलबला कर दाँत निपोर देते थे।
आवाज़ों से याद आया कि हमारे घर से तीसरा घर साँखलाओं का था। साँखलाओं की कोठी वाली भाभीजी का छोटा भाई भी वहीं रहता था। तब लोग दो-तीन महीने या साल के लिए आते थे। तो कैलाश भी यहाँ जब गया था। उसका पूरा नाम कैलाशपति दास था – पर वह चाहता था उसे सिर्फ़ कैलाश कहकर पुकारा जाए मगर बच्चों ने उसका नाम केला रख दिया था जब तक बाहर से बच्चों के चिल्लाने की आवाज़ आती रहती –
“केला ऽ जी केऽऽ ला ऽऽ
भर के आया ठेला ऽऽ ला ऽऽ“
इसके तुरन्त बाद कैलाश के चिल्लाने और लोगों के हंसने के साथ बच्चे भाग निकलते। धीरे धीरे बच्चे इस खेल से ऊब गए और अब कैलाश को देखकर भी छेड़ना छोड़ दिया था।
इसके थोड़े दिनों बाद मोहल्ले में चोरियाँ होने लगी। लगभग हर दिन किसी की बालंटी, बाहर सूखते कपड़े और साबुन की टिकिया जैसी चीजे़ें ग़ायब होने लगीं। पूरा मोहल्ला परेशान हो गया पर चोर पकड़ में नहीं आ रहा था। धीरे धीरे चोर की हिम्मत बढ़ने लगी थी। अब वह इन्तज़ार नहीं करता था आधी रात का – वह दिन दहाड़े भी उठाने लगा था। किसी का घर बंद देखता और तुरन्त लपक कर टाप जाता। फिर लोग घर बंद कर जाना छोड़ने लगे। तब भी, रात की चोरी बदस्तूर जारी थी।
लोग छेड़ने का लुत्फ़ छोड़कर शहर के हाल पर चर्चा करने पर मजबूर हो गए थे। जैसा मैंने कहा कि चोर बड़ा हिम्मती और शातिर था और पुलिस इस गर्म शहर की धूप से निढाल। चोर लगातार चोरी कर रहा था – सारी छोटी मोटी चीजे़े, पर लोग सहमे हुए थे कि हो सकता है चोर प्रैक्टिस कर रहा हो और बाद में मोहल्ले के अमीर घरों में हाथ मारे। मोहल्ले में तीन अमीर घर थे। दो जैनियों के और एक बनियों का। शहर के छोटे अख़बारों में यह ख़बर छप भी गई थी और इसमें पुलिस पर ताने भी कसे गए थे कि इतनी निकम्मी पुलिस के भरोसे कुछ नहीं होने का। मोहल्ले वाले भी पुलिस से निराश हो चुके थे। उन्होंने खुद ही इससे लड़ने का फ़ैसला किया। हर घर से बारी बारी एक आदमी लिए जाते और वह टीम पूरी रात चैकीदारी करती, रातभर लाठी की ठक ठक के साथ जागते रहो गूंजता। मोहल्ले में शान्ति पसरने लगी। लोग फिर से गप्पबाज़ी में उलझने लगे।
पर तभी एक रात बाहर से ऊंट के बार बार बलबलाने, चपड़ चपड़, खटाखट और चिल्ला चिल्ली के बीच धड़बड़ धड़बड़ भागने, पटकने और हाय हाय की आवाज़ों से पूरा मोहल्ला जाग गया।
लोग गिरते पड़ते बाहर भागे। क्या हुआ? क्या हुआ का शोर फैल गया। बत्तियाँ जल गई। लोग टाॅर्च चमका चमका कर गेट तक आ गए। थोड़ी देर बाद से तगड़े लोग भूत की तरह प्रकट हुए। उन्होंने एक मरघिल्ले से आदमी को पकड़ रखा था। ये तगड़े आदमी मोहल्ले के हलवाई के बेटे थे। इन्होंने हमारे घर के चबूतरे पर उस आदमी को पटका और चिल्लाए – चोर पकड़ लिया जी। यई था चोर। चंगू चाचाजी ने टाॅर्च की रोशनी चोर पर डाली और पूरा मोहल्ला ही जैसे चिल्ला उठा हो – हैं? ये चोर था? चोर ने धीरे से मुँह उठाया और कहा – हाँ, मैई था। मुझे अब भी उसकी आँखें याद है। वह और कोई नहीं – कैलाश था। एक आदमी दौड़कर साँखलाओं के घर से साँखला जी को बुला लाया। साँखला जी खुद भी हैरान थे, आखिर कैले को क्या पड़ी थी चोरी की? अच्छा ख़ासा रह तो रहा था।
अगले दिन एक अख़बार वाला आया और कैलाश से काफ़ी देर बातचीत की। दूसरे दिन सवेरे मोहल्ले के हर घर में कैलाश की ख़बर हैरत से पढ़ी गई – उसमें छपा था –
“मैंने जानबूझ कर चोरी की“
कैलाशपति दास की अनोखी दास्तान“
लोगों ने दम रोककर पूरी ख़बर पढ़ी। कैलाश ने यह चोरी इसलिए की थी कि उसे आनन्द आना बन्द हो गया था। पहले बच्चे छेड़ते तो उसे अपनापन लगता था। बाद में इस मोहल्ले ने उस पर ध्यान देना बंद कर दिया तो उसने मज़े मज़े में छोटी छोटी चीज़ें उठानी शुरू कर दीं। आगे लिखा था कि मोहल्ले की चैकीदारी टीम में कैलाश भी शामिल था। उस रात जब दो बजे के आसपास वह चोरी के लिए निकला तो गली में हलवाई के मुस्टन्डों को देखकर घबरा गया था और पास की टंकी में पानी में हाथ मार कर और ऊंट की आवाज़ निकाल कर उन्हें भरमाना चाह रहा था, पर वे दोनों डर गए और एक ने चिल्ला कर कहा – अरे ऊंट का भूत पानी पी रहा है – भागो रे। यह सुन कर कैलाश अपनी हंसी नहीं रोक सका और उसके हँसते ही दोनों ने उसे दबोच लिया और कबूल करवाया कि वो ही चोरी करता था।
अगले दिन कैलाश लौट गया। मोहल्ले में तब भी ऐसे छोटे मोटे अपराधों में माफ़ करने की प्रथा थी और कैलाश पर मामला दर्ज नहीं करने का फ़ैसला लिया गया था। इस तरह हमारे मोहल्ले की एक आवाज़ ख़त्म हो गई- “जागते रहा ऽ ऽ ऽ ऽ“। जि़न्दगी हमेशा की ताल पर चलने लगी।
अब के बच्चे बारहखड़ी में पता नहीं क्या पढ़ते होंगे, पर तब बच्चों की कि़ताब में ठ से ठठेरा ही पढ़ाया जाता था। बच्चे समझ भी जाते थे, क्योंकि ठठेरों का मोहल्ले में आना उतना ही ज़रूरी होता था, जितना उनकी स्कूल का तांगा। ठठेरों को बच्चा बच्चा जानता था। ठठेरों का आना गली में रौनक़ लगा देता था। वे जगह देखकर धौंकनी फँकनी जमा कर अंगारे सुलगा लेते थे और फिर शुरू होता उनका पुकारना –
“कली करा लो ऽ ऽ बरतन के
फिर पहुँचाओ समधन के“
औरतें इस तुकबन्दी पर लाटपोट हा जाती। ठठेरा मूँछां में हँसता-ठठेरन शंका से देखकर फँकनी झाड़ती रहती। फिर शुरू होती पीतल के बरतनों की कलई। लाल अंगारों पर पाउडर डला बरतन रखा जाता – वह तपता रहता। ठठेरा पाउडर डालता जाता और चिंमटे से बरतन घुमाता जाता। धौंकनी की हर हुश्श हुश्श के साथ बरतन तपने लगता और फिर अचानक छन्न की आवाज़ के साथ गर्म बरतन पास रखी बालटी के पानी में डाला जाता और फिर देर तक सूं सूं की आवाज़ आती रहती। बरतनों की झमक, फों फों, सूँ सूँ और छन्न छन्न के साथ औरतों की हंसने बोलने की आवाज़ मोहल्ले के हर घर तक पहुँचती। देर सबेर हर घर के बरतन कलई के लिए ठठेरे के पास पहुँच ही जाते थे। हर मोहल्ले का एक तय ठठेरा होता था। तीज त्योहारों में उसे मिठाई और पैसे भी मिलते थे। दीवाली के अगले दिन ठठेरन खूब सजबज के आती और हम कौतुक से उसके पाँव के कड़े देखते। औरतें उसके हाथ की चूडि़यों पर हसरत से नज़र डालतीं और वह इतरा कर कहती मेरे ठठेरे ने खुद बनाई ये चूडि़याँ। अरे वही, तुम्हारे फूटे भगौने के पीतल को पिघला कर। औरतें उसकी कि़स्मत पर अश अश करतीं थीं। यह मोहल्ला मोटे तौर पर निर्धनों का मोहल्ला था और सोने की चूडि़याँ तब भी महंगी ही होती थीं। ज़्यादातर औरतों की कलाई में काँच की बारह बारह चूडि़याँ होती थीं, और ख़ास मौकों पर काँच की चूडि़यों के दोनों तरफ़ एक एक पीतल की चूडि़याँ डाली जाती थीं। सोने का भरम देती ये पीतल की चूडि़याँ जब कांच की चूडि़यों से टकरातीं तो एक मीठी सी छनाक् होती जो सिर्फ़ काँच की चूडि़यों के टकराने से नहीं निकल सकतीं थीं – जैसे पानी और आग के मिलने पर छनाका होता है – वैसे।
ऐसा पता नहीं कब तक चला, फिर धीरे धीरे ठठेरे का आना कम होने लगा था। घर में औरतें पीतल के बर्तनों से झल्लाने लगी थीं। गलियों में अचानक से पुराने कपड़ों के बदले बरतन देने वाले ख़ूब दिखने लगे थे। अब वे पुरानी ज़री की साडि़यों के बदले अल्यूमीनियम के बड़े बड़े भगोने कढ़ाही देने की कोशिश करने लगे थे। कोई अगर ज़री के बदले पीतल मांगती भी थी तो उसे कटोरी दिखाई जाने लगी थी। बूढ़ी औरतों को भी ये बरतन रास आने लगे थे – कैसी चांदी सी चमकती है और कलई भी नहीं करवानी पड़ती। औरतें आपस में कहतीं – पहले सोने के बदले पीतल अब चाँदी के बदले अलमूनिया, अपन तो बदले वाले ही ठहरे। कम से कम घिसना तो नहीं पड़ेगा।
किसी को ठठेरा याद नहीं आया, बस एक दिलजली ने कहा अब क्या ठठेरा अल्यूनियाँ पिघलाएगा। सारी औरतें इस कल्पना से खुश हो गईं कि ठठेरन की कलाई में अब पीतल के बदले अल्यूमीनियम की चूडि़याँ होंगी। जब आदमी को अच्छे के बदले बुरी चीज़ मिलती है तो वह किसी से भी बदला निकालने लगता है – इस बार ठठेरन थी। ठठेरे का आना जब पूरी तरह बन्द हो गया तो हमारे मोहल्ले की एक और आवाज़ ख़त्म हो गई वह थी – छन्न छनाक्।
हमें पता ही नहीं चलता कि कौनसी आवाज़ धीमी होते होते पूरी तरह कब ख़त्म हो जाती है, और हम उसकी जगह नई आवाज़ के आदी हो जाते हैं। ऐसा ही हुआ, जब हमारी गली में पहली बार एक मिक्सी आई। अड़ोस पड़ोस की सभी औरतें उस एक घर्राती मशीन को देखने दौड़ पड़ी थीं। बिना मेहनत के काम हो जाए तो किसे अच्छा नहीं लगेगा। अब हर दूसरे तीसरे दिन आने वाले सिलावट के पास औरतें जुटती तो थीं, पर मुँह लटका कर। सिलावट जब अपनी छोटी छैनी हथोड़ी से सिलबट्टे की टिचाई करता था तो थोड़ी देर में एक लय बँध जाती थी। छोटी छोटी बच्चियाँ उसकी लय पर रस्सी कूदती थीं और गट्टे उछालती थीं। हर घर में चटनी और मसाले पीसने के लिए सिलबट्टा एक ज़रूरी सामान था। सिलावट भी मोहल्ले की एक ज़रूरी उपस्थिति थी। उसे आना ही होता।
एक बार तय दिन पर सिलावट नहीं आया। हमारे घर से सातवें घर में रहने वाली ताई जी ने उस दिन अन्दर बाहर करते करते आधा दिन बिता दिया। दूसरे घरों में भी थोड़ी बेचैनी दिखी। सिलबट्टे लगातार काम में लिए जाते थे और इस तरह चिकने होते जाते थे। जितना चिकना सिलबट्टा, उतनी ज़्यादा मेहनत। तो ताई जी ने आधे दिन के बाद हुंकार लगाई – “आग लगे इस सिलबट्टे पर। सौतन की तरह छाती पर धरी हुई है। पीस पीस कर कमर दुहरी हो गई पर किसी को परवाह नहीं। आज ही बताती हूं। अब तक सह लिया भाई – अब नहीं।“ और पूरे मोहल्ले ने देखा कि तार्ह जी सिल उठाए बाहर आईं और पूरी ताक़त से उसे गली में फ़ेंक दिया। सिल अर्रा कर गली के बीचों बीच जा गिरा और तीन टुकड़े हो गया। कोई कुछ समझता उससे पहले उड़ते तीर की तरह बट्टा भी आ गिरा। ताई जी ने हाथ झाड़ कर विजेता की तरह इधर उधर देखा और अन्दर चली गईं। मोहल्ले में किसी को भी इस पर हँसी नहीं आई। सब समझ गए थे कि अब देर सबेर हर घर से सिलबट्टा हटेगा ही। बाद में ऐसा ही हुआ। काफ़ी वक्त लगा, पर मोहल्ले में धीरे धीरे सस्ती मिक्सियाँ आने लगीं। सिलावट तब भी आता था, पर उसका काम जल्दी ही निपटने लगा। जो औरतें उससे तब भी सिलबट्टा टिचवाती थीं, उनमें शर्मिन्दगी आने लगी। अब सिलबट्टे उन्हीं घरों में थे जो मिक्सी ख़रीद नहीं पाए थे। अब सिलबट्टा उन औरतों की किस्मत पर धरा हुआ एक मनहूस पत्थर बन गया था, जिस पर छैनी हथौड़ी की हर खट् खट् उनके कपाल पर लग रही थी। ऐसा दारुण और करुण दृश्य कब तक चलता। धीरे धीरे उन घरों ने भी मिक्सी जुटा ली और धीरे धीरे ही सिलावट का आना भी बन्द हो गया। इस तरह हमारे मोहल्ले से एक और आवाज़ भी ख़त्म हो गई, वह थी – खटाक् ठक।
नागरिकता के विवादास्पद सवालों के मानवीय जवाब को लेकर लिखे शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास “ख़ारिज लोग” का एक अंश
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*अजन्ता देव हिन्दी कविता जगत की एक सुपरिचित नाम हैं। लगभग चालीस वर्षों से लगातार लिख रहीं हैं । उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – राख का किला, एक नगरवधू की आत्मकथा, घोड़े की आँख में आँसू और बेतरतीब। ‘खारिज लोग’ उनका पहला उपन्यास होगा।
बैनर इमेज : पार्थिव कुमार
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