आखिरी पन्ना
आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के फरवरी 2020 अंक के लिए लिखा गया।
30 जनवरी को जब इस स्तम्भ को लिखना शुरू कर रहा हूँ तो गांधी जी की याद आना स्वाभाविक है। उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे की भी क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में खुले आम गांधी जी की हत्या को सही ठहराने वालों की संख्या चाहे पहले से ना भी बढ़ी हो लेकिन उनकी हिम्मत ज़रूर बढ़ गई है और वो खुले आम गोडसे को सबसे बड़ा देशभक्त बताने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। संकोच तो छोड़िए, ऐसा लगता है कि वो ज़ोर-शोर से ये काम करते हैं, जैसे उनके बीच कोई होड़ लगी हो और वो अपने आकाओं की नज़र में आने के लिए ऐसा कर रहे हैं। उनको (और शायद उनके नेताओं को भी) ये अंदाज़ नहीं है कि उनकी नफरत और हिंसा के समर्थन की राजनीति के दीर्घगामी दुष्परिणाम भी हो सकते हैं।
गांधी और गोडसे के अलावा आज की बहुत बड़ी चिंता का विषय है महीनों से चल रहे किसान आंदोलन और सरकार के बीच सीधे टकराव की स्थिति। इस स्तंभकार का व्यक्तिगत विचार ये था कि किसानों को (रणनीति के तौर पर ही सही) सरकार द्वारा बातचीत के अंतिम दौर में दिया गया वह प्रस्ताव मान लेना चाहिए था कि तीनों विधेयकों को 18 महीने के लिए स्थगित कर दिया जाए और विधेयकों की हर धारा पर (‘क्लॉज़ बाइ क्लॉज़’) विचार कर लिया जाये। एक तरह से इस प्रस्ताव में सरकार के लिए ‘फेस-सेविंग’ जैसी स्थिति थी कि वह बहुत कमज़ोर और किसानों के सामने झुकी हुई नज़र ना आती। हो सकता है कि सरकार इस पर 18 महीने के पुनर्विचार के बाद किसानों की ज़्यादातर मांगे मान जाती और अगर ना भी मानती तो किसान इन 18 महीनों में पुन: संगठित हो कर फिर आंदोलन शुरू कर सकते थे। हमारे पास ये जानने का तो कोई तरीका नहीं है कि किसानों ने ये प्रस्ताव नहीं माना तो इसके पीछे उनकी क्या सोच थी लेकिन ये प्रस्ताव नहीं माना गया और फिर 26 जनवरी आ गई।
गणतन्त्र दिवस पर एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई। किसानों के एक समूह द्वारा लालकिले के एक गुंबद पर निशान साहिब का चिन्ह (ध्वज) लगा दिया गया। वेब पोर्टल्स पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार दीप संधु नामक एक व्यक्ति के नेतृत्व में ये सब हुआ और संधु ने अपनी इस हरकत के बारे में फेसबुक पर एक पोस्ट डाल कर ब्यान भी किया है। संधु के बारे में जानकारी जमा करेंगे तो आप पाएंगे कि वह एक असफल एक्टर है और उसने पिछले चुनाव के दौरान सनी देओल के साथ काम किया था। गणतन्त्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर तो लालकिले की कड़ी सुरक्षा होती है, तो इतनी सुरक्षा होते हुए भी ये लोग लालकिले की उस प्राचीर के नज़दीक कैसे पहुँच गए, ये तो जांच का विषय है लेकिन इसका परिणाम ये हुआ कि एकबारगी लगा कि ये आंदोलन छिन्न-भिन्न हो गया। सिंघू बार्डर पर प्रदर्शनकारी किसानों पर उपद्रवियों ने जमकर पत्थरबाज़ी की। उधर दिल्ली के गाज़ीपुर बार्डर पर भी शायद ऐसा ही कुछ करके प्रदर्शनकारियों को वापिस भेजने का इरादा था किन्तु वहाँ किसान नेता राकेश टिकैत की भावुक अपील का असर कुछ ऐसा हुआ कि पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों की बड़ी बड़ी सभाएं होने लगीं और उनसे काफी बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की सीमा पर जमा होने लगे। यह लिखे जाने तक अनिश्चय के स्थिति बनी हुई है।
ऐसा लगता है कि सरकार ने कृषि क़ानूनों को वापिस लिए बिना किसान आंदोलन को समाप्त करवाना अपनी साख का विषय बना लिया है। इसके अलावा कुछ ऐसी चीज़ें भी हो रही हैं जिन्हें लोकतन्त्र में स्वस्थ प्रवृत्ति नहीं माना जाता। उदाहरण के लिए शशि थरूर के साथ साथ कुछ वरिष्ठ पत्रकारों पर देशद्रोह की धाराओं में सिर्फ इसलिए एफ़आईआर दर्ज करना क्योंकि उन्होंने गणतन्त्र दिवस के दिन अपने ट्वीट से यह गलत-ब्यानी की थी कि एक प्रदर्शनकारी पुलिस की गोली द्वारा मारा गया जबकि वह अपने ट्रैक्टर के साथ हुई दुर्घटना में मरा था। सही बात पता चलने पर इन लोगों ने अपना ट्वीट वापिस भी ले लिया था लेकिन फिर भी देशद्रोह की धाराओं में एफ़आईआर दर्ज की गई है और वो भी तीन-तीन राज्यों में।
देश में ये सब चल रहा हो तो थोड़ी चिंता तो होती है – लोकतान्त्रिक मूल्य बचेंगे या उनका क्षरण जारी रहेगा, आपसी सामाजिक तनाव कहीं बढ़ते तो नहीं जाएँगे, अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा क्या कभी ऐसी हो सकेगी कि कोई भी रोज़गार और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित ना रहे – ये सब चिंताएँ हमारे सभी प्रबुद्ध नागरिकों को होनी चाहिए! उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार के साथ सभी राजनीतिक दल भी इन चिंताओं के बारे में सोच रहे होंगे और हमारे देश की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था लोकतान्त्रिक ढांचे में ही रहते हुए इन मुद्दों पर ईमानदारी से काम करेंगे और देश और भारतीय समाज के सुनहरी भविष्य के लिए अपना योगदान देंगे।
आलेख : विद्या भूषण अरोरा
फोटो – किशन रतनानी