गांधी के राम

पुण्यतिथि 30 जनवरी पर विशेष लेख

पराग मांदले*

बहुत साल पहले कुंभ मेले के दौरान एक साधु से मैंने प्रश्न किया था कि सनातन तो परब्रह्म परमेश्वर को निर्गुण-निराकार और सर्वव्यापी मानता है, फिर वह उसी ईश्वर को सगुण-साकार मानकर एक छोटी-सी मूर्ति तक कैसे सीमित कर देता है? इसके जवाब में उस साधु ने कहा था कि सगुण-साकार उपासना दरअसल उस निर्गुण-निराकार के साक्षात्कार की पहली सीढ़ी है। स्व से सर्व तक की यात्रा एकदम नहीं की जा सकती। सगुण-साकार साधना दरअसल भवसागर के उस पार स्थित निर्गुण-निराकार तक पहुँचने के लिए उपयोग में लाई गई नाव है। जैसे उस पार जाने पर नाव से उतर जाया जाता है, उसी तरह निर्गुण-निराकार ईश्वर की अनुभूति के पश्चात् सगुण-साकार की कल्पना भी पीछे छूट जाती है। यह एक कसौटी है, यह जाँचने की कि अपनी साधना में कोई साधक कहाँ तक पहुँचा है।

गांधी को अपने गुणों के कारण इस देश के लोक-मानस ने महात्मा की उपाधि दी थी। उनका सारा जीवन धर्म से ओतप्रोत रहा। लेकिन अपने को कट्टर हिंदू कहने के बावजूद न सिर्फ उन्होंने छुआछूत की अमानवीय धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ आवाज़ उठाई, संघर्ष किया बल्कि वे हिंदू-मुस्लिम एकता के भी सबसे बड़े पैरोकार के रूप में स्वीकार किए गए। यह कैसे संभव हुआ, इसके सूत्र उस साधु की विवेचना में खोजे जा सकते हैं। गांधी ने भी दशरथ पुत्र राम से सर्वव्यापी राम तक की यात्रा अपनी साधना के दौरान की थी। इस यात्रा का ही परिणाम था कि राम गांधी की उपासना का आलंबन न होकर जीवन का लक्ष्य हो गए थे। राम गांधी के प्राण थे, सर्वस्व थे, जीवन का सार थे।

सनातन पुनर्जन्म को मानता है और अध्यात्म कहता है कि किसी भी व्यक्ति द्वारा इस जन्म में की गई साधना यदि पूरी न हो तो वह अगले जन्म में पीछे से आगे बढ़ती है, वहाँ फिर शून्य से शुरुआत करने की जरूरत नहीं होती। गांधी के जीवन पर यदि हम दृष्टिपात करें तो महसूस होता है कि वह भी शायद पिछले जन्म में की गई साधना की थाती इस जन्म तक ले आए थे। शायद यही वजह थी कि बचपन से ही धर्म के मामले में उनमें थोथा छोड़कर सार को गह लेने की प्रवृत्ति थी। सामान्य हिंदू गुजराती वैष्णव परिवारों की तरह उनके परिवार में भी पूजा-पाठ करने और मंदिर जाने की प्रथा थी, मगर गांधी का मन इसमें कभी रमा नहीं। उनके मन में बीज बोये गए राम नाम के, जिसकी सीख उन्हें उनकी धाय रम्भा ने डर को दूर भगाने के लिए दी थी। रामनाम का यह नन्हा बीज ही आगे चलकर उनके जीवन की अमोघ शक्ति में बदल गया। एक दूसरा असर उन पर रामचरित मानस के पाठ का पड़ा, जो पोरबंदर के राम मंदिर में लाघा महाराज नामक रामभक्त किया करते थे, जहाँ गांधी हर रात अपने पिता के साथ जाते थे। यह अलग बात है कि वह प्रचलित धारणा के अनुरूप धार्मिक नहीं बन पाए, मगर राम से उनके रिश्ते का बीज यहीं बोया गया था, जिसने कालांतर में वटवृक्ष का रूप ले लिया था।

अध्यात्म के क्षेत्र में गांधी के मार्गदर्शक

विलायत में अपनी पढ़ाई के दौरान गांधी को अलग-अलग धर्मों से परिचित होने का मौका मिला। यहीं से सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव रखने की भावना उनके भीतर जागृत हुई। मगर इस सबकी वजह से उनके भीतर कोई आध्यात्मिक अभिप्सा उत्पन्न हुई हो, ऐसा भी नहीं था। भारत लौटने के बाद भी रोजी-रोटी कमाने की जद्दोजहद ने उनका सारा ध्यान आकर्षित किए रखा। बस एक घटना ऐसी हुई, जिसका बाद के वर्षों में उन्हें बहुत लाभ मिला। यह घटना थी, विलायत से लौटते ही बंबई में में रायचंद भाई (श्रीमद राजचन्द्र) से उनकी मुलाकात, जो जवाहरात के व्यापारी और अध्यात्म के साधक थे। महज पच्चीस साल के रायचन्द भाई के व्यापक शास्त्रज्ञान, शुद्ध चारित्र्य और आत्मदर्शन करन के उनके उत्कट उत्साह ने गांधी को मुग्ध कर लिया। इसके पश्चात् अलग-अलग धर्मों के अनेक आचार्यों से गांधी का परिचय हुआ मगर जो छाप रायचन्द भाई ने उन पर डाली, वैसी कोई और न डाल पाया। यही कारण था कि बाद के वर्षों में अपने तमाम आध्यात्मिक संकटों के समय गांधी रायचन्द भाई का आश्रय लिया करते थे।

भारत में वकालत में कोई खास प्रगति न होने के कारण गांधी दक्षिण अफ्रीका पहुँचे। वहीं उनके भावी जीवन की तमाम प्रवृत्तियों की सही मायने में नींव पड़ी। वहाँ कुछ मित्र और सह्रदयी लोगों ने उन्हें ईसाई बनाने की कोशिश की। हालाँकि इसमें वे सफल नहीं हुए, मगर इसके कारण गांधी विभिन्न धर्मों का अध्ययन करने और हिंदू धर्म को गहराई से जानने की ओर प्रवृत्त हुए। एक तरह से यहीं से उनके आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत हुई।

गांधी के महात्मा होने का सूत्र शायद इस बात में छुपा हुआ है कि उन्होंने आत्म-दर्शन या ईश्वर की खोज के लिए विभिन्न धार्मिक और आध्यात्मिक पुस्तकों के अध्ययन के साथ-साथ जो मार्ग स्वीकारा वह सेवा-धर्म का था।  अंहकार का त्याग कर ईश्वर की शरण लेकर पूर्ण समर्पण किए बिना सेवा-धर्म को निभाना आसान नहीं। स्वाभाविक ही गांधी ने भी इस ईश्वर-परायणता को अपनाया। ईश्वर का जो नाम उन्होंने अपनी शरणागति के लिए स्वीकार किया, वह राम था। गांधी ने कभी राम की मूर्ति के रूप में पूजा-अर्चना नहीं की, जिसके लिए एक समय नियत होता है, बल्कि उन्होंने राम के नाम को अपने हर क्षण का साक्षी और साथी बना लिया।

बचपन में रामकथा ने गांधी पर बहुत प्रभाव डाला था मगर गांधी ने जब ईश्वर के नाम के रूप में राम को अपनाया तो निश्चय ही उनके लिए राम का स्वरूप किसी अवतार का न होकर परब्रह्म परमेश्वर का था। वर्ष १९४६ में हरिजनसेवक में एक पाठक के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा था – “ मेरा राम वह ऐतिहासिक राम नहीं है, जो दशरथ का पुत्र और अयोध्या का राजा था। वह तो सनातन, अजन्मा और अद्वितीय राम है। मैं उसी की पूजा करता हूँ। उसी की मदद चाहता हूँ।”

यह सनातन, सर्वव्यापी राम उनके लिए कभी संकुचित और एक धर्म विशेष तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने हमेशा राम शब्द को अल्लाह, गॉड या अन्य धर्मों में ईश्वर के लिए प्रयुक्त सम्बोधनों का पर्याय माना। इस सवाल पर कि उनकी प्रार्थना सभाओं में गाई जाने वाली रामधुन में गैरहिंदू किस तरह से सहभागी हो सकते हैं, उन्होंने कहा था – “जब कोई यह एतराज उठाता है कि राम का नाम लेना या रामधुन गाना तो सिर्फ हिंदुओं के लिए है, मुसलमान उसमें किस तरह शरीक हो सकते हैं, तब मुझे मन ही मन हँसी आती है। क्या मुसलमानों का अल्लाह हिंदुओं, पारसियों या ईसाइयों के भगवान से अलग है? नहीं, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी ईश्वर तो एक ही है। उसके कई नाम हैं, और उसका जो नाम हमें सबसे ज्यादा प्यारा लगता है, उस नाम से हम उसको याद करते हैं।” जाहिर है, यहाँ गांधी कह रहे थे कि महज सम्बोधन अलग होने से वह सर्वव्यापी ईश्वर विभक्त नहीं हो जाता।

किसी ने उनसे जब यह सवाल किया कि जब आप यह कहते हैं कि आपका राम दशरथनंदन राम नहीं है, बल्कि आपका आशय जगत्-नियंता से है तो फिर आपकी रामधुन में राजाराम, सीताराम का उल्लेख क्यों होता है? इस पर गांधी ने उत्तर दिया था – “वास्तव में इतिहास, कल्पना और शुद्ध सत्य आपस में इतने ओतप्रोत हैं कि उन्हें अलग करना लगभग असंभव है। मैंने अपने लिए ईश्वर की सब संज्ञाएं रखी हैं। और उन सबमें मैं निराकार, सर्वस्थ राम को ही देखता हूँ। मेरे लिए मेरा राम सीतापति-दशरथनंदन कहलाते हुए भी वह सर्वशक्तिमान ईश्वर ही है, जिसका नाम ह्रदय में होने से मानसिक, नैतिक और भौतिक सब दुःखों का नाश हो जात है।”

इसी तरह के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था – “इस तरह के सवालों का जवाब बुद्धि से नहीं दिया जा सकता। यह दिल की बात है। शुरू में मैंने भी राम को सीतापति के रूप में पूजा। लेकिन जैसे-जैसे मेरा ज्ञान और अनुभव बढ़ता गया, वैसे-वैसे मेरा राम अविनाशी और सर्वव्यापी बनता गया, और है।”  यह दरअसल सगुण साधना से निर्गुण तक पहुँचने की सुविचारित सनातन पद्धति की ही पुष्टि है। वहाँ पहुँचकर धर्म और संप्रदायों की संकुचित दीवारें शेष नहीं रह जाती। गांधी के साथ भी यही हुआ। जो भी इस राह पर ईमानदारी से चलेगा, वह इसी निष्कर्ष तक पहुँचेगा।

रामनाम के प्रति उनका अटूट विश्वास इस सीमा तक पहुँचा कि उन्होंने यह दावा किया कि दरअसल रामनाम सभी बीमारियों की, फिर वे तन की हों, मन की हों या रूहानी हों, एक ही अचूक दवा है। उनका कहना था कि इसमें संदेह नहीं कि डॉक्टरों और वैद्यों से बीमारियों का इलाज कराया जा सकता है, मगर जिसकी रामनाम में अखंड श्रद्धा है, उसे रामनाम खुद ही अपना वैद्य या डॉक्टर बना देता है और उसे अपने अंदर से निरोग बनाने की शक्ति हासिल करा देता है। यदि कोई बीमारी इस हद तक पहुँच जाए कि उसे खत्म करना मुमकिन न हो तो रामनाम उसे शांत और स्वस्थ भाव से सह लेने की ताकत देता है।

उनका स्वप्न यही था कि जब भी उनकी मृत्यु हो, उनकी जिह्वा पर राम का नाम हो। उनके अनुसार यह उनके जीवन भर की साधना का प्रमाण होता। और आश्चर्य नहीं कि एक हत्यारे की गोलियों से छलनी होकर अपने प्राण त्यागते हुए उनके अंतिम शब्द “हे राम” थे।

राम को अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए मूर्ति, मंदिर और प्रतीकों के जाल में उलझाने वाले क्या कभी राम से उस तरह एकाकार हो पाएंगे, जिस तरह पिछले पचहत्तर से अधिक सालों से उनके द्वेष का सबसे बड़ा केंद्र बने रहे गांधी हो पाए थे?

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*वाणिज्य और पत्रकारिता की डिग्री हासिल करने के उपरांत पराग मांदले किसी ना किसी रूप में मीडिया से जुड़े रहे। देश भर के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख, कहानियां, कविताएं और स्थायी स्तंभ प्रकाशित होते रहे हैं। उनके दो कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं। विगत अनेक वर्षों से वे पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ शाश्वत व वैज्ञानिक जीवनशैली के प्रचार-प्रसार से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा गांधी उनके अध्ययन का प्रमुख केंद्र रहे हैं। गांधी विचारों पर उनके कई लेख प्रकाशित हुए हैं और देश के विभिन्न शहरों में व्याख्यान भी आयोजित हुए हैं। संपर्क – 8484999664

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3 COMMENTS

  1. सुंदर लेख, गाँधी के राम छवि विशेष से उपर व्यापक, सभी के लिए एक मार्ग दर्शक आदर्श थे।

  2. गांधी के राम को समझने के लिए यह एक बहुत सुंदर लेख है. इस लेख में श्रीमद राजचंद्र की चर्चा तो है पर उनका गांधी के राम की व्यापकता के लिए किस तरह का अवदान था यह जानना और अच्छा होता.

    इस लेख में गांधी का यह कथन मेरे लिए बड़ा हासिल है कि “वास्तव में इतिहास, कल्पना और शुद्ध सत्य आपस में इतने ओतप्रोत हैं कि उन्हें अलग करना लगभग असंभव है। मैंने अपने लिए ईश्वर की सब संज्ञाएं रखी हैं। और उन सबमें मैं निराकार, सर्वस्थ राम को ही देखता हूँ। मेरे लिए मेरा राम सीतापति-दशरथनंदन कहलाते हुए भी वह सर्वशक्तिमान ईश्वर ही है, जिसका नाम ह्रदय में होने से मानसिक, नैतिक और भौतिक सब दुःखों का नाश हो जात है।”

    लेखक को बहुत धन्यवाद.

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